वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 39
From जैनकोष
जन्मजातंकदुर्वारमहाव्यसनपोडितम्।
जंतुजातमिदं वीक्ष्य योगिन: प्रशमं गता:।।39।।
पीड़ित जगत् व आत्मसंतोष―संसार से उत्पन्न होने वाले दुर्निवार आतंकरूपी महाकष्ट से पीड़ित इस जीव समूहको देखकर योगीपुरुष प्रशम को प्राप्त हो गये। अर्थात् जिन योगी ज्ञानी संतों ने अपने शरणभूत आत्मतत्त्व को पाया है उन्होंने जब इस जगत को दु:खों से व्याप्त देखा तो और अत्यंत विरक्ति हुई, अपने आपके स्वरूप में रुचि हुई कि वह अपने आपमें प्रशमभाव को प्राप्त कर चुके। दूसरों को देख-देखकर संसारी प्राणियों में भी ऐसी आदत है कि कुछ अपने आपके बारे में हम सुखी हैं इस प्रकार की पद्धति से कुछ साता प्राप्त करते हैं, अपने से विशेष दु:खी देखने में आ जाय तो अपनी परिस्थिति में उसे असंतोष नहीं होता। जब यह विचार होता हे कि यह तो और ज्यादा दु:खी है तब अपने से कम धनी को देखकर चित्त में उसके तृष्णा नहीं उत्पन्न होती। अपने से अधिक धनी को देखकर तृष्णा उत्पन्न होती है।
सद्बोध का उपकार― भैया ! सम्यग्ज्ञान का बड़ा उपकार है, समस्त संकटों को दूर करने में सम्यग्ज्ञान ही समर्थ है। तीन लोक का भी वैभव इस जगत को शांति देने में समर्थ नहीं है। वैभव होकर भी जो पुरुष सुखी रहता हे वह ज्ञान के माहात्म्य से सुखी रहता है, वैभव के प्रताप से सुखी नहीं होता। सुखी होने का मार्ग तो सद्ग्रंथों में बताया है, जो उस मार्ग पर चलता है वह उसका आनंद लूट पाता है। कितनी सीधी व्यवस्था है। पंच अणुव्रतों का धारण करना, प्रतिमारूप न सही, पर पंच अणुव्रतों में जो किया जाता है उसे करने की एक अपनी प्रकृति बना लें। श्रावक के 8 मूल गुणों में 5 अणुव्रत और 3 मकार का त्याग― इस प्रकार 8 मूल गुण बताये हुये हैं। अणुव्रतों के पालन में अनेक संकट दूर हो जाते हैं।
श्रावक के त्रिविध मूल गुण― श्रावक के मूल गुण 3 ढंग के हैं, पहिला ढंग तो यह है कि पाँच तो पंच अणुव्रत और छठवां सातवां आठवाँ है मद्य, माँस, मधु इन तीन का त्याग करना। अब दूसरे ढंग का मूल गुण सुनिये पंच उदंबर फलों का त्याग, एक में ले लीजिये मद्य, माँस और मधु का त्याग तीन ये हुये, रात्रि भोजन त्याग, जल छानकर पीना, जीवदया करना और नित्य देवदर्शन करना― इस प्रकार 4 ये हुए। यों 8 मूलगुण हुए। फिर तीसरे दर्जे में 5 उदंबर का त्याग, इन्हें 5 मान लो और मद्य, माँस, मधु का त्याग यों 8 हो गए।तीन तरह के मूल गुण हुए। जब कहा जाय कि 8 मूलगुणों को धारण करो तो जो हित को तीव्र अभिलाषा रखने वाले नहीं हैं वे इन तीन प्रकार के मूलगुणों में से जो सबसे सस्ता है उसे ढूँढ़ेंगे और वह सस्ता मूल गुण कौन है? 5 उदंबर फलों का त्याग और मद्य, माँस, मधु का त्याग। लेकिन यह समझने की बात है― ये सस्ते मूलगुण उनके लिये बताये गये हैं जिन बिरादरियों में नीचकर्म होते हैं। शिकार खेला जाता है, माँसभक्षण का रिवाज है उनके लिये यह तीसरे दर्जे का मूलगुण है कि तुम इतना ही पालन करो, अभी तुम इतना ही उठो। जो जन्म से श्रावककुल में आये हैं, जिनकी प्रवृत्ति और पद्धति प्रकृत्या बहुत कुछ भली हैं वे मूलगुणों का पालन करें, नियम संयम करें तो प्राथमिक दोनों प्रकारों में से किसी प्रकार का शुरू करें।
पतन में वृत्ति― यहाँ एक बात और समझने की है कि ऊँचे पुरुष जिन बिरादरियों में यह पद्धति है कि वे नीचकर्म न करें, उनमें यदि कोई नीचकर्म करता है, उसका यदि आचरण खोटा है तोवह तो उन लोगों से भी अधिक पतित हो जाता है जो नीच बिरादरी के लोग होते हैं। और यदि नीच बिरादरी का कोई अच्छे आचरण से रहता है तो उसकी पवित्रता में वृद्धि है। जैसे जिन बिरादरियों में माँस, मदिरा वगैरह का पूर्ण त्याग है उनमें यदि कोई मदिरा का ही प्रयोग करने लगे तो वह कितना बुरा माना जाता है? यह तो है लोकव्यवहार की बात। अब व्यक्तिगत आत्मा की दृष्टि से देखो तो अच्छे कुल का पैदा होने वाला पुरुष मदिरा की भी ओर प्रवृत्ति करे तोउसके परिणामों में अधिक गिरावट आती है और नीच कुल का कोई पुरुष माँस, मदिरा वगैरह का भक्षी एक मदिरा का भी त्याग कर दे तो उसकी कितनी पवित्रता बढ़ी हुई है? यह निकटकाल में माँसभक्षण का भी त्याग कर देगा।
उत्थान व पतन का एक सिंहावलोकन― करणानुयोग की दृष्टि से आपको एक उदाहरण बतायें। संयमासंयम में असंख्यात स्थान हैं। किसी का संयमासंयम घटिया दर्जे का, किसी का उनसे बढ़िया, किसी का उससे बढ़िया, इस तरह उसके संयमन में, आचरण में इतनी डिग्रियाँहैं, इतने स्थान हैं, जिनके असंख्यात भेद हैं। संयमासंयम पशुपक्षियों और संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंचों और मनुष्यों में होता है। अब उन संयमासंयम स्थानों में जो जघन्य स्थान हैं, कुछ दूर तक वे जघन्य संयमासंयम मनुष्यों के तो हो जायेंगे, पर तिर्यंचों के नहीं। तिर्यंचों के इससे बहुत ऊँचे दर्जे का जघन्य संयमासंयम होगा।
मान लो संयमासंयम के स्थान 11 डिग्री से लेकर एक लाख डिग्री तक के हैं, इनमें से11 डिग्री से लेकर 75 डिग्री तक के संयमासंयम स्थान मनुष्यों के तो हो जायेंगे, पर तिर्यंचों के मान लो 75 से ऊपर के होंगे। अर्थात् तिर्यंचों का जघन्य संयमासंयम मनुष्यों के जघन्य संयमासंयम से बहुत ऊँचा है। यद्यपि उत्तम संयमासंयम मनुष्यों के ही होगा और जैसा उत्कृष्ट संयमासंयम मान लो कि 90 हजार से ऊपर एक लाख तक के हैं तो तिर्यंचों के नहीं होगा। मनुष्यों के ही उत्कृष्ट संयमासंयम होगा। यह बात विशेष है, पर जघन्य की बात सोच लीजिये। तिर्यंच का जघन्य व्रत मनुष्यों के जघन्य व्रत से अधिक पवित्र है। यह भी इस बात का समर्थन करता है कि बड़े पुरुष गिरे तो ज्यादा गिरे हुए हो जाते हैं, छोटे पुरुष उठे तो वे अच्छे उठे हुए कहलाते हैं।
अहिंसाणुव्रत मूल गुण― 8 मूल गुणों के बिना तो श्रावक नहीं बताया है असली मायने में। यों तो नाम का श्रावक भी अच्छा है तो अब सोच लेना चाहिये कि हमारी प्रवृत्ति किस प्रकार की है जिससे हम योगय श्रावक कहला सकें। जैनशासन की पद्धति देखो। गृहस्थों को पंच अणुव्रत का पालन बताया है और वह शांति में कितना अधिक सहायक होता है इसे भी विचारना। अहिंसाणुव्रत आरंभ न करना, खोटा व्यापार न करना, सात्त्विक रूप से रहना, हिंसात्मक कार्य न करना, सो अहिंसाणुव्रत है। जहाँ खोटा वातावरण है, जहाँखोटा व्यापार है वहाँउन व्यापारों के करने के लिये संक्लेश करना पड़ता है।विकल्प अधिक करना पड़ता है।अहिंसाणुव्रत का लक्षण है ‘‘त्रस हिंसा को त्यागी वृथा थावर न संहारे।’’ इस अणुव्रत में इस गृहस्थ को जीव के स्वभाव पर दृष्टि रहने का कितना अवसर है?
हिंसा में अध्यात्मघात का आपादन― कोई यह प्रश्न करे क्यों जी कीड़ामकौड़ा अगर मर गया, बूढ़े शरीर को बदलकर उसने नया जन्म, नया शरीर पा लिया तो इसमें मारने का पाप क्यों लगा? मार डाला तो क्या हुआ? वह तो अन्य शरीर पा लेगा? तो इस के समाधान में प्रश्नकर्ता की पद्धति में उत्तर यों समझे कि भाई हिंसा का नाम है आध्यात्मिक दृष्टि में मोक्षमार्ग में बाधा आ जाना, फिसल जाना संसार में रुलते रहने की नौबत आना, यह है वास्तव में हिंसा। जन्ममरण की ही बात न देखो। उसमें तो कह देंगे कि हो गया मरण तो क्या हुआ? नया जन्म तो मिल जायेगा। इसका मोक्षमार्ग में पतित होने का पाप गिनकर समाधान करिये। कोई कीड़ामकौड़ा निगोद से निकलकर अन्य स्थावरों से निकलकर किसी प्रकार से तीन इंद्रिय, चारइंद्रिय के भव में आया था, उस जीव ने उन्नति की थी, अब उसका घात किया गया तो घात के समय उसका संक्लेश परिणाम होगा और संक्लेश परिणाम होने से जिस स्थान में वह आज है उससे गिरी हुई स्थिति में उसका जन्म होगा।मान लो वह एकेंद्रिय बन जायेगा तो एक जीव को जो कि इतनी उन्नति कर चुका था वह बहुत अधिक गिर जाय और एकेंद्रिय वगैरह बन जाय, जिसका फिर कुछ ठिकाना नहीं, तो यह उसका कितना घात हुआ? तो हुआ न पाप। अहिंसा अणुव्रत पालने वाले की दृष्टि में यह पाप का भय बना रहता है कि किसी जीव की अवनति न हो जाय। वह मोक्षमार्ग से और दूर न हो जाय, दूर तो है ही, और दूर न हो जाय, ऐसा सम्यग्दृष्टि गृहस्थ के मन में अंत: बात रहती है और इसी बुनियाद पर उसका यह अहिंसा पालन यथार्थ बना करता है।
मूलगुणों में सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य अणुव्रत― गृहस्थों का कर्तव्य है कि वे सत्याणुव्रत ग्रहण करें, सत्यव्यवहार में, सत्य बोलने में कितना आपत्तियों से बचा जाया करता है, जिसका झूठा ही जीवन है, जिसने झूठे लोगों में विकट जाल फैला रक्खा है उसको आत्मशांति नहीं रह सकती। सत्य जीवन, सत्यव्यवहार, सत्य वचन के प्रयोग में संकट दूर होते हैं। अचौर्याणुव्रत में भी नि:संकट जीवन रहता है। जिसके पराई वस्तु की चोरी या लूट का भाव रहता है वह सतत बेचैन रहता है। चोरी करके, लूट करके भी वह सशल्य और व्यग्र रहता है। चोरी कर भाव न हो, ऐसे स्वच्छ जीवन में न शल्य होती न व्यग्रता रहती है। ब्रह्मचर्याणुव्रत में भी यही बात है। स्वदारसंतोष व्रत लेना, अपनी स्त्री के अतिरिक्त समस्त बहू बेटियों को अपनी माँ बहिन के समान समझना और स्वस्त्री में भी संतोष वृत्ति रखना, आसक्ति न रखना, यही है ब्रह्मचर्याणुव्रत। इससे भी शांति का अवसर मिलता है।
मूलगुणों में परिग्रहपरिमाण अणुव्रत― एक अवशिष्ट मुख्य बात है परिग्रह परिमाणकी। गृहस्थ परिग्रह का परिमाण करे तो कितनी ही आपत्तियों से बच जाता है। जिस मनुष्य के परिग्रह का परिमाण नहीं है उसको सदा तृष्णा बनी रहती है। जितना जो कुछ हो जाय संतोष नहीं कर पाता। अपने से अधिक धनिकों को देखकर वे आश्चर्य भी करते हैं और यह आश्चर्य का भाव मिथ्यात्व का पोषण करता है और परिग्रह परिमाण अणुव्रत ग्रहण करने वाले गृहस्थ के चित्त में तृष्णा नहीं जगती। यद्यपि परिग्रह का परिमाण अपनी इच्छा से कोई कितना ही रख ले, लेकिन अनापसनाप जितना चाहे बढ़ाकर रख ले तो वह तो निर्मलता का कारण नहीं होता।जैसे एक थोड़े पढ़े लिखे पंडित जी थे, उन्होंने क्या परिमाण रखा कि हम 5 हाथी, 10 ऊँट, यों सब बड़ी-बड़ी चीजें गिना दी और कहा कि इससे अधिक हम नहीं रक्खेंगे। स्थिति तो है उनकी अत्यंत साधारण, गरीबी में दिन काट रहे हैं पर परिमाण इतना बड़ा लिया तो इससे मुफ्त का संतोष लूटने की मन की बात समझिये।
गृहस्थ का सुगम मार्ग― परिग्रह परिमाण से तृष्णा नहीं होती। अधिक कमाने की चिंता नहीं होती और बड़े धनिक पुरुषों को देखकर इसके चित्त में आश्चर्य नहीं होता क्योंकि यह परिग्रह को धूलवत् असार समझ रहा था, केवल गृहस्थी में आवश्यकता के कारण कुछ जरूरत थी जिसका इसने परिमाण किया है। यों कितना सीधा मार्ग है पर चलने की बात है और जो इस पर चल सकता है वही इसका आनंद लेता है। योगीजन संसार के प्राणियों को निरखकर अपने आपमें ऐसा उद्यम करते हैं वैराग्य बढ़ जाने के कारण कि वे शांति को प्राप्त कर लेते हैं।