ज्ञानार्णव - श्लोक 441: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
अत्यल्पमपि सूत्रज्ञैर्दृष्टिपूर्वं यमादिकम् ।प्रणीतं भवसंभूतक्लेशप्राग्भारभेषजं ॥441॥
दृष्टिपूर्वक संयम से भवक्लेश का परिहार ― सम्यग्दर्शन से युक्त यम नियम तपश्चरण आदिक अत्यंत अल्प भी हों तो भी सूत्रज्ञ पुरुषों ने, विद्वान योगी संतों ने संसार से उत्पन्न हुए क्लेश के समूहों की औषधि की तरह कहा है, अर्थात् सम्यग्दर्शन के होते हुए व्रत तपश्चरण आदिक अल्प भी होवें तो भी सांसारिक दु:खरूप रोगों को दूर करने के लिए औषधि के समान हैं । कोई-सा भी कार्य यदि विधि सहित किया जा सके और वह अक्ष्प ही किया जाये तो भी वह कार्य में शामिल है और बिना विधि के कितने भी कार्य करते चले जायें तो भी अंत तक उल्झन ही उल्झन बनी रहती है । कोई पुरुष चतुर कारीगर की प्रशंसा को और उसके लाभ को देखकर साधारण मजदूर यह सोच ले कि हम तो इतना बड़ा श्रम करते हैं बोझ ढोने का और यह बैठे ही बैठे हुकुम चलाता है, कुछ करता भी नहीं और यों ही बड़ा लाभ लेता है और इज्जत पाता है । हम तो इससे कई गुना भी काम कर सकते हैं । है क्या उसमें ? ईंट पर ईंट रख दी, बीच में गारा रख दी । यों ही वह मजदूर जोड़ने लगे तो बिना विधि का जो वह कार्य है वह तो उल्झन बढ़ायेगा, फिर मकान गिरा करके बनाना पड़ेगा तो उसमें तो उल्झन ही बनी । बिना विधि के कोई भी कार्य किया जाये वह विडंबना रूप बनता है अतएव धीरता रखना और प्रत्येक कार्य को विवेक से और विधिवत् कार्य करना यह समझदार पुरुषों की प्रकृति होती है । सम्यग्दर्शन एक आंतरिक प्रताप है । अत: यह श्रद्धान और ज्ञानप्रकाश बन रहा है जिसमें सबसे विविक्त चैतन्यमात्र निजस्वरूप को आत्मारूप ग्रहण किया जा रहा है । इस वृत्ति में परम पुरुषार्थ पड़ा हुआ है और यह प्रतपन और यह प्रताप यह स्वरूपाचरण कर्मों से छूटने की एक विधि है । यह विधि रहे और ज्ञानविस्तार सम्यक् आचरण रूप व्रत नियम आदिक रूप विशेष प्रगति की परिणति न हो तो भी यह सम्यगदर्शन की दृष्टि कर्मों का विध्वंस करने में कारण बन रही है ।
सम्यक्त्व लाभ के अर्थ अनुरोध ― भैया ! श्रेयोलाभ के अर्थ सम्यक्त्व रत्न का आदर करें, और समता से अंत:गुप्त ही रहकर स्वरक्षित रहकर अपने आपकी ओर अपने को अभिमुख रखकर सम्यग्दर्शन का लाभ लें, जिस सम्यग्दर्शन के प्रताप से संसार के संकट सदा के लिए छूट सकेंगे । उस सम्यग्दर्शन के न होने पर बड़े-बड़े व्रत यम नियम तपश्चरण भी किये जायें तो भी विश्राम कहाँ पाना है । विश्राम का स्वरूप क्या है ? जिसे इस तत्त्व का परिचय न हो वह कहाँ लगेगा ? वह व्यर्थ ही श्रम कर रहा है और विकल्पों का संताप भोग रहा है । उसे विश्राम नहीं मिल पाता । सम्यग्दर्शन के भाव में ऐसी अद्भुत सामर्थ्य है कि इस आत्मा को अपने आपमें विश्राम मिलता है । जैसे लोक में ही जिन पुरुषों की दृष्टि बाह्यपदार्थों के संचय में लौकिक इज्जत में रहती है उन्हें कभी विश्राम से बैठा हुआ क्या आपने कभी देखा है ? और जिनके वह समझ बनी है कि जो होता हो सो हो, उसमें मेरा क्या ? मैं तो सबसे ही जुदा अपने आपकी ही करतूत का जिम्मेदार हूँ, सबसे विविक्त ऐसी जिसकी बुद्धि हो वह यथा समय विश्राम भी पा लेता है । तब सम्यग्दर्शन की बात तो अद्भुत ही तथ्य है । जैसे बालक को कोई डाँटे पीटे, कुछ कड़ी नजर से निहारे तो वह दौड़कर माँ की गोद में बैठकर अपने को कृतार्थ समझ लेता है । अब संकट की बात क्या ? खतम हो गए उसके संकट । ऐसे ही संसार की नाना स्थितियों में उलझने, रमने, फिरने से जो एक सुविकल्पकृत और परचेष्टाकृत बाधाएँ हुई है यह ज्ञानी यदि एकदम उनसे मुख मोड़कर स्वानुभूति माँ की गोद में पहुँच जाये तो वह कृतार्थ हो जाता है, उसे अब संकट कहाँ रहा ? संकट तो यह माना जा रहा था कि मेरे पास धन नहीं है, मेरे पास धन खत्म हो गया है, लोग यों कहते हैं, इज्जत नहीं होती है, बुराई करते हैं, अपमान करते हैं । ये ही तो लोक में संकट मानें जाते हैं । यह ज्ञानी इन मायारूपों से, इन अहित बातों से, इन असार चेष्टावों से मुख मोड़कर एक ज्ञानप्रकाशमय निज तत्त्व की ओर आये और इसकी शरण में पहुँचे तो बतावो उसके लिए कोई संकट रहा क्या ? सारा जगत् भी विरुद्ध चेष्टा कर रहा हो लेकिन इस पर संकट है कहाँ ? यह तो अपने ज्ञानानुभव के आनंद में लीन है । संकट मानने वाले संकट मानें । सम्यग्दर्शन अद्भुत प्रताप है ।