वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 442
From जैनकोष
मन्ये मुक्त: स पुण्यात्मा विशुद्धं यस्य दर्शनम् ।
यतस्तदेव मुक्त्यंगमग्रिमं परिकीर्तितम् ॥442॥
विशुद्ध सम्यक्त्व से सहित आत्मा की पुण्यरूपता ― आचार्यदेव कह रहे हैं कि मैं तो ऐसा मानता हूँ कि निर्मल विशुद्ध निरतिचार सम्यग्दर्शन प्रकट हुआ है वही महाभाग है क्योंकि सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का प्रधान अंग कहा गया है । मुक्ति के उपाय के लिए ही ध्यान किया जाता है । तो ध्यान में सफलता मिले इसलिए ध्यान का प्रधान अंग भी तो समझना चाहिए कि जिस उपाय का हम आलंबन लें तो हमारा ध्यान सिद्ध हो और संसार संकटों से छुटकारा भी बने । यों ध्यान के प्रकरण में ध्यान की प्रायोगिक विधि में मोक्षमार्ग के विधान में सम्यग्दर्शन ही एक मुख्य उपाय है । लोग कहते हैं देखो भाई अपने पुत्र को शिक्षा देते हैं, देखो वत्स, भले का तो साथ करना, किंतु जो भले नहीं हैं, दुष्ट हैं उनका संग करना । भले को तो देखना और दुष्टों की ओर तो निहारना भी नहीं । ऐसे ही सम्यग्दर्शन में यह शिक्षा भरी है । देखो भाई ― सम्यक् का तो दर्शन करना, पर असम्यक् का दर्शन न करना, उसकी ओर निहारना भी नहीं । जो सहज विशुद्ध है, शाश्वत है, सर्वदोषों से दूर है वही तत्त्व सम्यक् है, उसका दर्शन करना यही सम्यग्दर्शन है और यही समृद्धि लाभ संकट मुक्ति का अमोघ उपाय है । अपने आपमें निहारो सबसे अधिक सम्यक् चीज क्या है, जिसमें रंच भी दोष न हो । इस आत्मा का जो सत्त्व है, स्वरूप है, लक्षण है उस लक्षण पर दृष्टि न दें तो यह कैसे दिखेगा एक चिदानंद स्वरूप, इसमें विकार है तो यह केवल आत्मा की देन है । केवल आत्मा के स्वरूप को निहारो तो वह शुद्ध चिदानंदस्वरूप है, सहज है, सहजसिद्ध है, सहज शुद्ध है । सहज सिद्ध तो यों है कि सिद्ध का अर्थ है निष्पन्न अस्तित्व से रचा गया । क्या यह जीव असिद्ध है ? जीव की ही बात नहीं करते । ये जो अनंतानंत परमाणु हैं क्या ये असिद्ध है ? क्या इनका अस्तित्व पूर्ण बन नहीं पाया ? क्या ये अधूरे हैं ? क्या अभी ये पूरे नहीं हो पाये है ? कोई भी पदार्थ अधूरा नहीं है, सब पूर्ण हैं । किसी की सत्ता आधी नहीं है। सब पूर्ण सत् हैं । तो अपने अस्तित्व से निर्वृत रहने का नाम है सिद्ध । कर्मक्षय की बात नहीं कह रहे हैं, सहजसिद्ध की बात कह रहे हैं । ऐसा यह आत्मा कब से सिद्ध है ? अर्थात् मात्र अपने स्वरूप से रचा हुआ यह कब से है ? अरे जब से यह आत्मा है तब से ही है । इसका नाम सहज है । सह मायने साथ, ज मायने उत्पन्न होना । जब से आत्मा है तब से ही इसके साथ इसका यह स्वरूप है । तो केवल आत्मा के स्वरूप में कोई दोष नहीं है । लक्षण इसका केवल एक चित्स्वरूप है, वह ही सम्यक् है, सर्वोपरि सम्यक् है । किसी रागद्वेष के प्रयोजन से देश जाति समाज आदिक में मेरे-तेरे विकल्प का होना यह परमार्थ से कुछ तथ्य तो नहीं रखता । इस आत्मा का तो प्रताप समस्त लोक में है, उसमें से किसी छोटे क्षेत्र में अपना सर्वस्व मान लेना यह तो आत्मा का स्वरूप नहीं है । इससे भी और विशुद्ध तथ्य की ओर आयें । शरीर वैभव, देश, जाति, समाज, वातावरण बर्ताव इन सबसे भी विविक्त निर्दोष शुद्ध स्वरूप की ओर आयें । जो यह अंतस्तत्व सम्यक् है उसका दर्शन हो जाने का नाम है सम्यग्दर्शन । यह मुक्ति का प्रधान अंग है ।