ज्ञानार्णव - श्लोक 501: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
सप्तद्वीपवतीं धात्रीं कुलाचलसमचिताम् ।नैकप्राणिवधोत्पन्नं दत्वा दोषं व्यपोहति ॥501॥
परिणाम शुद्धि में अहिंसा ― एक प्राणी के वध करने में जितना दोष उत्पन्न होता है वह दोष बड़े दान करके भी दूर नहीं होता। कोई पुरुष 7 द्वीप सारे चलाचल सहित पृथ्वी भी दान कर दे तो उस दान से भी जीववध से उत्पन्न हुआ दोष दूर नहीं होता । अहिंसा का महत्व समझिये, अभयदान का महत्व देखिये । और, देखो तो केवल परिणामों की ही आवश्यकता है, परिणाम शुद्ध हों, किसी जीव का वध न विचारे तो अहिंसा होती है । जिस किसी पुरुष ने अपने जीवन में किसी भी समय किसी के घात के लिए उपाय किया हो, घात किया हो, या दूसरों को बहकाया हो, किसी प्रकार हिंसा में सहयोग दिया हो वह पुरुष कितना पापी है, उसको कितने पापकर्मों का बंध हुआ है ॽ पुण्य का उदय है वर्तमान में, इस कारण वह इस ओर दृष्टि नहीं देता लेकिन इसका बहुत खोटा परिणाम होता है । यह संसार है, यहाँ आज हम आप लोग मनुष्यजन्म धारण करके आये हैं, यहाँ अपना कुछ है नहीं । और, सुयोग कितना अच्छा मिला है, धर्म की बातें सुनने को मिलती हैं, धर्म का चिंतन करने की पात्रता है, धर्मधारण कर सकते हैं, ऐसे सुयोग के अवसर में भी यदि किसी प्राणी के वध का चिंतन करके हम अपने जीवन को निष्फल कर दें तो भविष्य में फिर कहाँ अपना सुधार करेंगे । एक भी प्राणी का वध करें उसका इतना अधिक दोष है कि जंबूदीप जैसी पृथ्वी का दान भी कर देवें तो भी वह पाप टलता नहीं है ।