वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 502
From जैनकोष
सकलजलधिवेलावारिसीमां धरित्रीं
नगरनगसमग्रां स्वर्णरत्नादिपूर्णाम् ।यदि मरणनिमित्ते कोऽपि दद्यात्कथंचित्
तदपि न मनुजानां जीविते त्यागबुद्धि: ॥502॥
सब जीवों के समानता की दृष्टि हितकारी ― सभी जीवों को अपना जीवन कितना प्यारा है ॽ मनुष्यों को अपना जीवन इतना प्रिय है कि कोई समस्त पृथ्वी का राज्य भी दे तो भी वह मरना नहीं चाहता । किसी से कहा जाय कि हम तुम्हें यह सारा राज्य दे देंगे, तुम मर जावो, तो वह मरने के लिए तैयार न होगा । कोई बूढ़ा या बुढ़िया कभी-कभी ऐसा कहा करते हैं कि भगवान मुझे उठा ले, और अगर कोई भयंकर सर्प आ जाये तो लड़कों को बुलाते हैं दौड़ो सर्प आ गया । और, अगर कोई कहे कि अरी दादी तू रोज-रोज कहा करती थी कि हे भगवान मुझे उठा ले, सो भगवान ही तेरे ऊपर दया करके तुझे उठाने आये हैं । तो कोई मरना नहीं चाहता । और, कोई अगर किसी की जान ले ले तो समझ लीजिए कि उसने कितना बड़ा पाप किया । प्रथम तो जीवन में ऐसी साधना बनायें, अपने मन को समझा बुझाकर, अपने मन को कोई कष्ट मिले तो उस कष्ट को सहन करने की आदत बना लें, पर किसी भी जीव को सताने का यत्न न करें, किसी के अनिष्ट का चिंतन भी मन में न लायें । ऐसा स्वच्छ हृदय बन सके तो इसमें बहुत पुण्य की बात होगी । यद्यपि अनेक घटनाएँ ऐसी आती हैं चूँकि अज्ञानियों से बसा ही तो संसार है, लेकिन उसका बुरा करने का यत्न न करके जिस किसी भी प्रकार बने तिस पर भी हे उन्नति चाहने वाले पुरुष ! तुम यह निर्णय रखो कि कोई मुझे कितना ही कष्ट दे पर मैं किसी का अनिष्ट चिंतन न करूँगा । ऐसा स्वच्छ हृदय हो, अहिंसा बसी हो उसमें पुण्यबल बढ़ता है, आत्मध्यान की पात्रता होती है और निकटकाल में वह मुक्ति को भी प्राप्त होता है । अब सोच लीजिए जीव को अपना जीवन कितना प्रिय है । कितना भी कुछ आप सब देने की बात कहें तब भी कोई मरना नहीं चाहता ।
किसी की जान बचा देना सर्वोत्कृष्ट पुण्य ― किसी जीव की जान बचा ले तो इसमें कितना पुण्य होता होगा । जीव की जान बचाने में जो पुण्य होता है वह समस्त पृथ्वी के दान से भी अधिक होता है । एक कथानक ऐसा प्रसिद्ध है कि कोई पुरुष बहुत दानी था । अनेक दान उसने किए । यज्ञविधान किया, पूजा समारोह किया, तपश्चरण किया, गुरुवों की उपासना की, बहुत-बहुत पुण्य किया और एक बार ऐसी भी घटना हुई कि वह कहीं जा रहा था परदेश । रास्ते में वह भोजन करने लगा तो उस समय कई दिनों का भूखा मरणासन्न मनुष्य या पशु कोई दिख गया तो उसे खिला दिया और स्वयं निराहारी रह गए । यह भी उसके जीवन में घटना घटी । वह पुरुष कर्मोदयवश गरीब हो गया और इतना अधिक गरीब हो गया कि खाने का भी कोई ढंग न रहा तो स्त्री ने कहा कि तुम राजा साहब के पास जावो और कोई सा भी पुण्य राजा को दे आवो, उसके एवज में वह तुम्हे धन देंगे । वह गया राजा के पास और बोला कि हे महाराज ! हमने जीवन में बहुत-बहुत पुण्य के काम किये, यज्ञ किया, यात्रा किया, गुरुवों की उपासना किया, भूखे व्यक्ति को अपने सामने रखा भोजन भी दे दिया, अनेक पुण्य किया, उनमें से कोई एक मेरा पुण्य ले लीजिए और मुझे थोड़ी सी संपदा दे दीजिए । तो राजा ने सोच विचार कर कहा, अच्छा तुमने जो अपने सामने रखा हुआ भोजन भी किसी भूखे को मरणासन्न को खिला दिया था, उससे जो पुण्यबंध हुआ वह पुण्य हमें दे दीजिए । वह बोला महाराज हमने बड़े-बड़े यात्रा, यज्ञ, विधान आदिक अनेक पुण्य काम किये, उनमें से आप कोई पुण्य ले लीजिए ।.... नहीं । हमें तो वही पुण्य चाहिए जो किसी भूखे मरणासन्न को अपने सामने रखा हुआ भोजन भी दे दिया था । वह पुण्य सारे पुण्यों से बढ़कर है । तो वह सोच विचारकर कहता है कि हम तो वह पुण्य नहीं देंगे । तो इस कथानक से यह बताया है कि किसी जीव का हित कर देना, उसके प्राण बचा देना यह सब दानों से भी अधिक पुण्य की बात है । यह पुण्य समस्त पृथ्वी का दान करने से भी अधिक है । दिल इतना दयालु होना चाहिए । आज के जमाने में ऐसी दया की बात कौन करता है ॽ लेकिन अब भी बिरले पुरुष ऐसे पाये जाते हैं जिनका हृदय दया से भरा हुआ होता है और इस ही दयाधर्म पुण्य के कारण उनका यश, उनकी संपदा, उनका ठाठ सब कुछ दिन प्रतिदिन बढ़ता रहता है । अहिंसाधर्म ही इस जीव का वास्तविक शरण है ।