ज्ञानार्णव - श्लोक 546: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
न तथा चंदनं चंद्रो मणयो मालतीस्त्रज: ।कुर्वंति निवृत्तिं पुंसां यथा वाणी श्रुतिप्रिया ॥546॥
वचनों से संतप्त प्राणी को शीतलता ― कर्णों को प्रिय और आत्मा को हित देने वाली वाणी जितना जीवों को सुखी करती है उतना सुख संसार के ये शीतल पदार्थ उत्पन्न नहीं कर सकते । वचनों में यद्यपि स्पर्श नहीं है लेकिन वचन सुनकर दु:ख ज्वाला में जलने वाले पुरुष जो शीतलता प्राप्त करते हैं, शांति प्राप्त करते हैं वह शीतलता एक अद्भुत है । उतनी शीतलता न चंदन से प्राप्त होती है, न चंद्रमा से, न चंद्रमणि से, न मालती के पुष्पों से प्राप्त होती है । लोक में ये पदार्थ शीतलता उत्पन्न करने में प्रसिद्ध हैं । और, अब तो सीधी शीतलता कोल्डस्टोरेज में पायी जाती है जहाँ सब्जी वगैरह रखी जाती हैं । कोई दु:ख की ज्वाला से दु:खी हो, किसी चिंता से कोई जल भुन रहा हो, तो उस पुरुष को कोल्ड स्टोरेज में डाल दीजिये तो क्या उसका दु:ख दूर हो जायेगा ॽ नहीं दूर हो सकता । ऐसे पुरुष को कुछ ज्ञान की बातें समझावो, कुछ भेदविज्ञान की दृष्टि करावो तो उसे शीतलता आ जायगी । तो वाणी में शीतलता उत्पन्न करने की सामर्थ्य है और इन पदार्थों में नहीं है । चंद्रमा को सभी लोग अनुभव करते हैं कि गर्मी के दिनों में भी जब शुक्लपक्ष की रात होती है तो उसमें उतनी बैचेनी नहीं मालूम होती और कृष्णपक्ष की जब रात होती है तो उसमें विशेष गर्मी का अनुभव होता है । चंद्रमा की किरणें शीतलता का विस्तार करती हैं ।
कषाय ज्वाला से तप्तायमान पुरुष को ज्ञानकिरणों से शीतलता की प्राप्ति ― कषाय ज्वाला से तप्तायमान पुरुष को ये चंद्रमा की किरणें क्या शीतलता पैदा करें । जिन्हें किसी वियोग से दु:ख है, जिन्हें किसी अनिष्ट संयोग से दु:ख है, जिन्हें नाना प्रकार की आशा लगाने के कारण वेदना है ऐसे पुरुषों को ये चंद्रमा की किरणें क्या शांति पहुँचा देंगी ॽ ज्ञान ही शांति पहुँचा सकता है । किसी परपदार्थ की आशा से यदि हृदय दु:खी है तो ऐसा ज्ञान जगे जिससे यह आशा दूर हो जाय तो उसकी वेदना मिटेगी । किसी इष्ट वियोग से दु:ख उत्पन्न होता है तो ऐसा ज्ञान जगे जिससे यह समझ में आये कि मेरी शीतलता जगत में अन्य कुछ है ही नहीं, मेरा इष्ट तो मैं आत्मा ही हूँ, यों सोचने से वियोग का दु:ख दूर होगा । अनिष्ट पुरुष निकट हो और उसके कोई प्रसंग से उत्पन्न हुआ दु:ख उस ज्ञान से मिट सकेगा जिस ज्ञान से यह समझ में आये कि जगत के सभी पदार्थ मुझसे अत्यंत भिन्न हैं । सभी पदार्थ अपने-अपने उपादान के अनुकूल परिणमते हैं, मेरा वास्तव में कोई अनिष्ट नहीं है, मैं जो कषाय करता हूँ उस कषाय से अनुकूल प्रतिकूल जो जुड़ते हैं उन्हें इष्ट अनिष्ट मानते हैं । वस्तुत: लोक में बाहर में कोई मेरा अनिष्ट नहीं है । मैं ही अपने स्वरूप से चिगकर जब अज्ञान में, भ्रम में, कषाय में लगता हूँ तो मैं ही स्वयं अपने लिए अनिष्ट हूँ । जब ज्ञान से यह बात विदित हो जाती है कि मेरा कोई अनिष्ट नहीं तब वह अनिष्टसंयोग का दु:ख दूर होता है ।
संताप दूर करने का साधन ज्ञानपूर्ण वचन ― अशांति नष्ट करने का सामर्थ्य शुद्धज्ञान में है तो ऐसे ही ज्ञान भरी बातों से ऐसे ही ज्ञानपूर्ण वचन से जीवों के संताप दूर होते हैं, वह संताप न चंद्र से, न चंदन से, न मणियों से, न मालती के पुष्पों से किसी से भी दूर नहीं हो सकता और उन सत्य वचनों से पर के संताप भी दूर होते हैं और खुद में भी एक आत्मबल साहस बना रहता है जिससे यह अपने आत्मस्वरूप में मग्न होने का प्रयत्न कर लेता है । और, आत्ममग्न हो जाय बस यही सर्वोत्कृष्ट पुरुषार्थ है, हम अपने इस ज्ञानसमुद्र से बाहर अपने उपयोग की चोंच निकाले फिर रहे हैं तो बाहर से हजारों विपदारूपी पक्षी मेरी चोंच को पकड़ने को, झपटने को तैयार हैं । मैं अपने उपयोग को अपने अंदर समा लूँ तो सारा संसार भी उल्टा चले तो भी मुझमें कुछ विपदा नहीं आती, क्योंकि मैं अपने ज्ञानानंदस्वरूप में मग्न हो गया हूँ । ऐसे ही वाणी संसार के जीवों का संताप हर सकती है और इस वाणी के प्रयोग से संसार के सर्वसंकटों से छूटने के उपाय में आत्मप्रभु का उत्कृष्ट ध्यान बना सकते हैं ।