वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 547
From जैनकोष
अपि दावानलप्लुष्टं शाद्वलं जायते वनम् ।न लोक: सुचिरेणापि जिह्वानलकदर्थित: ॥547॥
अग्नि और वाण से कठोर वचन की उपमा ― ऐसी बात देखी जाती है कि कहीं वन में कठोर अग्नि लग जाय, दावानल अग्नि से बन जल जाय तो बहुत काल तक वह हरा नहीं हो पाता, लेकिन दावानल अग्नि से जला हुआ वन किसी काल में हरा तो बन सकता है, सदा के लिए वह पृथ्वी नहीं जल गयी, कभी हरा हो जायेगा लेकिन इस जिह्वारूपी अग्नि से जला हुआ दूसरा पुरुष बहुत काल व्यतीत हो जाने पर भी हरा याने प्रसन्न नहीं हो सकता । अर्थात् मर्मभेदी वचन किसी को बोल दिये जायें तो उसकी ज्वाला बहुत दिन तक भी नहीं बुझ पाती । कहा है ना कि कठोर वचन का घाव बाणों के घाव से भी कठिन होता है । लोग तो दूसरों की अपमानभरी बात को न सुनकर अपने प्राण तक भी गवां देते हैं । अब मेरे जीने से क्या लाभ है ॽ जहाँ मेरा इतना बड़ा अपमान हो गया है । दूसरे का अपमान कर दिया जाय ऐसी वाणी से निकृष्ट और बात कुछ नहीं है ।
परसम्मानरूप वाणी में स्वसम्मान गर्भित ― जो मनुष्य दूसरों के सन्मान की ही बात करता रहता है उसका खुद सन्मान रहता है क्योंकि जो सन्मानित होता है वह पुरुष उसका आभारी हो जाता है । सन्मानित पुरुषों की दृष्टि में वह पुरुष एक आदर्श और आकर्षण का पदार्थ बन जाता है । वे सन्मानित पुरुष उसका आदर करते हैं । अब ही देख लो किसी पुरुष को अत्यंत खोटे वचन बोले जायें तो क्या आप उससे यह आशा रख सकेंगे कि यह आपसे बहुत ही शिष्ट वचन बोलेगा ॽ यद्यपि ऐसा हो सकता है कि कोई कितना ही गंदा, खोंटा बोल दे; पर वह महात्मा है, सज्जन है, वह तो दिल से बिना विकार के, बिना बनावट के शिष्ट वचन बोल सकता है । लेकिन अक्सर बात वह होती है कि जिससे आप खोंटा बोलेंगे उससे आप उससे भी अधिक खोटे वचन बोलकर रहेंगे ।
अपमान से प्राणघात ― कभी अधिक अपमान हो जाय तो बहुत से लोग तो प्राणघात कर लेते हैं । हाई स्कूल, इन्टर, बी.ए. वगैरह की परीक्षा में अनुत्तीर्ण कितने ही विद्यार्थी अपना अपमान महसूस करने के कारण प्राणघात कर लेते हैं । जिन लड़कों से अपने को पढ़ने में अधिक अच्छा अनुभव करते थे उन्हें अब अपना क्या मुहँ दिखायें, ऐसा अपमान महसूस कर वे आत्महत्या कर लेते हैं । कितने ही विद्यार्थी तो पेपर में गलत छप जाने से अपने को फेल मान लेते हैं और बाद में दूसरे गजट में भूल सुधार में पास होने का नाम आ जाता है, पर पहिले ही अपने को फेल होने का अनुभव करके, उसमें अपना अपमान महसूस करके आत्महत्या कर लेते हैं । इस आत्महत्या का मूल कारण है अपमान का अनुभव करना । परिवार का कोई स्त्री, पुत्र अथवा कोई पुरुष कभी अत्यंत संक्लेश करके आत्महत्या करता है तो उसका मूल कारण है अपमान का महसूस करना । कभी किसी बड़े धन का घाटा हो गया तो उस घाटा के प्रसंग में कोई पुरुष आत्मघात करले तो उस घाटे के कारण उसने आत्मघात नहीं किया, किंतु उसने अपना अपमान महसूस किया कि अब मैं लोगों के बीच कैसे रहूँगा, उससे आत्मघात किया । तो आप समझिये कि अपमान से बढ़कर और कुछ विष नहीं है ।
अपमानकारक वचन अतिनिंद्य ― जो वचन दूसरों का अपमान कर दें वे वचन अतिनिंद्य वचन हैं, ऐसे वचन बोलने वाले को कैसे आत्मा की सुध हो सकती है, कैसे आत्मा का ध्यान हो सकता है, उनका जीवन बेकार है । वे संसार में भटकने वाले ही प्राणी हैं । इससे स्वपर शांति चाहने वाले स्वपर शांति के अभिलाषी हैं तो अपनी वाणी को संभालना चाहिए । सदा हितकारी वचन ही अपने मुख से निकलें तो इसमें स्वयं का भी हित है और दूसरों का भी हित है ।