ज्ञानार्णव - श्लोक 555: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
चंद्रमूर्तिरिवानंदं बर्द्धयंती जगत्त्रये ।
स्वर्गिभिर्ध्रियते मूर्ध्ना कीर्ति: सत्योत्थिता नृणां ॥555॥
सत्चरित्रवानों की देवताओं द्वारा कीर्ति ― सत्य वचनों से उत्पन्न हुई मनुष्यों की कीर्ति को देवता लोग भी मस्तक पर धारण करते हैं । लोग लौकिक वैभव को तरसते हैं, पर यह सोचिये तो लौकिक वैभव किस स्थिति में होता है । अनेक पुरुष ऐसे भी मौजूद हैं एक दो जगह हमने भी देखा है, लखपति पुरुष हैं पर स्वयं कुछ खा पी भी नहीं सकते, कुछ बुद्धि भी नहीं है, और शरीर से भी बेहूदे हैं, लार गिर रही है, पागलपन जैसा छाया है । हम पूछते हैं कि उनको लौकिक वैभव क्या मिला ॽ लौकिक वैभव तो उसे कहते हैं जो हजारों पुरुष मान लें कि धन्य है इनका चरित्र और धन्य है इनका महत्त्व । यह बात सत्य व्रत के प्रताप से अनायास बनती है । जो नेता ऐसे हुए हैं, जिन्होंने जनता के उद्धार की ही बात सोची है । न अपने नाम के यश की बात सोची और न धनसंचय की कल्पना उठी, जिनके मरण के बाद न कोई घर, न कोई संपदा, ऐसे नेतावों का आज भी कितना बड़ा यश है । जैसे वर्तमान में महात्मा गाँधी हुए, किदवई हुए, लालबहादुर शास्त्री हुए, सभी जानते हैं कि उनको पैसे से कुछ मोह न था, उनके चित्त में धनसंचय की भावना नहीं रही, अपने नाम की चाह नहीं रही, उन्हें लोग कितनी प्रशंसा की दृष्टि से देखते हैं । तो करोड़ों अरबों के लौकिक वैभव से भी बढ़कर उन संतों का, उन नेतावों का सत्चरित्र है । जो सत्यव्यवहार रखने वाले हैं ऐसे मनुष्यों की कीर्ति को देवता भी मस्तक पर धारण करते हैं ।
सती सीता का दृष्टांत ― भला जब सीता को अग्निकुंड में कूदने का हुक्म दिया गया जो फर्लागों लंबा चौड़ा कुंड था, जहाँ बहुत सा ईंधन जलाया गया था । अग्नि जाज्वलित हो गयी । अब सीता का नमस्कार मंत्र का ध्यान भर और यह संकल्प कर कि मैंने स्वप्न में भी यदि अपना मान डिगाया हो तो ऐ अग्नि तू मुझे भष्म कर दे और ज्यों ही कूदी तत्काल होता क्या है सत्य प्रतिज्ञा और पूर्वकर्म का फल कि दो देवता कहीं जा रहे थे केवली के दर्शन करने, उन्होंने वह दृश्य देखा और अवधिज्ञान से जाना कि ये तो बड़ा अनर्थ होने को है, ऐसी शीलवती सत्यव्यवहार वाली सती का यदि यों ही मरण हो गया तो लोक में धर्म की प्रभावना न रहेगी । तो विक्रिया से उस कुंड को जलमय बना दिया । तो अग्नि, सर्प, दुष्ट दैत्य ये कोई भी एक पुण्यकर्म के आलंबन वाले सत्यप्रतिज्ञ आत्मा का कुछ कर नहीं सकते और उनकी कीर्ति बड़े-बड़े देवतावों के द्वारा भी मस्तकपर चढ़ाई जाती है ।
सत्यतत्त्व की ज्ञानवृद्धि का उपदेश ― हमारा कर्तव्य है कि हम एक सत्यतत्त्व का ज्ञान बढ़ायें, वह है अपना स्वरूप । स्वध्याय में विशेष चित्त दें और व्यवहार भी अपना समीचीन रखें, ऐसा करके अपने इस लोक का भी जीवन सफल करें और भविष्य में भी हम धर्ममार्ग का आश्रय करें और निर्वाण को प्राप्त करें । यह एक लक्ष्य रखें कि इन समागमों में मोहभरी दृष्टि न बनायें ।