वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 556
From जैनकोष
खंडितानां विरूपाणां दुर्विधानां च रोगिणाम् ।कुलजात्यादिहीनानां सत्यमेकं विभूषणम् ॥556॥
असत्य के आग्रह से अशांति ― जगत के सभी जीव शांति चाहते हैं और दु:खों से निवृत्त होना चाहते हैं । और, जितने भी उनके प्रयास हैं इस ही के लिए हैं कि शांति मिले । जो कुछ भी करते हैं प्राणी ये सब मनुष्य वह सब शांति के लिए करते हैं । गृहस्थ धर्म का पालन करना, साधुधर्म का पालन करना और आजीविका के साधन बनाना, परस्पर का व्यवहार बनाना सबका प्रयोजन शांतिलाभ है । यहाँ तक कि कभी अपना भी कोई घात कर डालता है स्वयं वह भी अपने विचारानुसार शांति के लिए अपना घात करता है । पर शांति के कार्य करते हुए भी शांति नहीं मिलती इसका कारण क्या है ॽ इसका कारण है असत्य का आग्रह । जीवों ने सत्य का आग्रह नहीं किया, असत्य का ही आग्रह किया, यही कारण है कि अनेक श्रम करके भी शांति प्राप्त नहीं होती ।
सत्य को ज्ञात करने की जिज्ञासा अति आवश्यक ― अपने आपमें सत्य क्या है, इसकी जिज्ञासा होना चाहिए और इसमें ही संतुष्ट होना चाहिए । यह बात जब मनुष्य में आ जायगी तब से शांति का मार्ग प्राप्त होने लगेगा । मैं क्या हूँ सर्वप्रथम इसका ही सत्य निर्णय करना चाहिए । मैं हूँ एक ज्ञानमय पदार्थ । जो पदार्थ होता है वह अनादि अनंत हुआ करता है । जितने भी सत हैं सब अनादि अनंत हैं । मैं भी अनादि से हूँ अनंत काल तक रहूँगा । ज्ञानमय हूँ तो अपने स्वरूप की सीमा में परिणमता रहूँगा । यह मैं ज्ञानमय पदार्थ इस ज्ञानरहित देह से निराला हूँ और जितने भी पदार्थ हैं उन सबसे निराला हूँ । मेरे साथ जो कुछ भी विजातीय पदार्थ लग गए हैं, जिनके कारण नाना दशाएँ हो रही हैं, अनेक जन्म, अनेक स्थितियाँ बन रही हैं । स्वरूपज्ञान करने के लिए ऐसी तर्कणा करें कि यदि मेरे साथ कोई पर-उपाधि न हो तो मैं किमात्मक रहूँगा इस प्रकार की तर्कणा से अपने आपके स्वरूप का परिचय होता है ।
उपाधियों से नाना अवस्थायें ― मेरे साथ उपाधियाँ हैं । द्रव्यकर्म, ज्ञानावर्णादिक अष्टकर्म जो अत्यंत सूक्ष्म हैं और द्वितीय उपाधि है देह । इन दोनों उपाधियों के संबंध से मेरी दशा विचित्र हो रही है और एक भ्रम आ गया है, इंद्रियाँ प्राप्त हुई हैं, ज्ञान दब गया है, उन इंद्रियों से ज्ञान उत्पन्न होता है और मुझ आत्मा में ही लौकिक ज्ञान और आनंद के साधन इस समय हमारी इंद्रियाँ हैं । अतएव हम इंद्रियों में बहुत अनुराग रखते हैं, बस यह है असत्य का आग्रह । सत्य है मेरे लिए मेरा स्वरूप । उस स्वरूप का तो आग्रह किया नहीं किंतु मेरे स्वरूप से भिन्न जो देहादिक हैं, धन वैभव आदिक हैं, उनमें आग्रह किया, हठ किया, अनुराग किया यही कारण है कि शांति के अनेक यत्न करके भी हमें शांति मिलती ।
निज सत्य पदार्थ की दृष्टि होना एक भूषण ― ऐसे सत्य निज पदार्थ की दृष्टि होना और इस ही सत्य का प्रतिपादन होना यह एक बहुत बड़ा भूषण है । जिन पुरुषों ने इस सत्य की खोज की, सत्य की रुचि बनाया, सत्य के लिए ही अपना जीवन समझा ऐसे पुरुष लोक में एक श्रृंगाररूप हैं, आभूषणरूप हैं । कोई पुरुष खंडित हो, जिसके हाथ नाक आदिक अवयव कुछ कट गए हों, कोई पुरुष विरूप हो, सुंदररूप वाला न हो, दरिद्री हो, रोगी हो, कला से भी हीन हो, जाति का भी हीन हो लेकिन उसकी दृष्टि सत्य पर जाती हो, सत्य का ही प्रतिपादन करता हो तो ऐसे सत्य के रुचिया और सत्य के भाषणकर्ता इस लोक में शोभा को प्राप्त होते हैं । कोई पुरुष संपूर्ण अंग अवयव वाला हो, सुंदर हो, स्वस्थ हो, धनिक भी हो, किंतु उस आत्मा को सत्य की रुचि नहीं है, भाषण भी सत्य नहीं करता लोक व्यवहार में भी असत्यप्रलापी है तो असत्य प्रलाप करने वाले का लोक में न यश रहता, न आदर रहता । सत्य का कितना महत्त्व है ।
सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में अपना हितपना ― हमारा कर्तव्य होना चाहिए कि हम अपना जीवन केवल धन कमाने के लिए, परिवार को उन्नत करने के लिए ही न समझें । धन वैभव क्या वस्तु है ॽ यों ऐसे वैभव अनेक भवों में मिले, इससे भी कई गुना वैभव प्राप्त हुआ, आखिर उन सबको छोड़कर जाना ही पड़ा । यही हाल अबका भी है । जो भी समागम मिला है उस समागम को छोड़कर आगे जाना ही पड़ेगा । इस महत्त्व से अपना महत्त्व न कूतें । इतनी बात तो जरूर होनी चाहिए कि अपना महत्त्व कूतें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के पालन से । मैं अपने आपको सही समझ लूँ, मैं अपने आपका सत्य श्रद्धान करूँ और जो मेरा सत्य सहजस्वरूप है समस्त परवस्तुवों से न्यारा केवल ज्ञानानंदमात्र, जहाँ मात्र जानन ही जानन है ऐसे उस स्वरूप से कुछ प्रतीति बने इसमें अपना महत्त्व समझना चाहिए ।
स्वरूपदृष्टि के हेतु सब क्रियायें ― हमारे इन चौबीस घंटों में कुछ समय तो अपने आपके आत्मा की चर्या में जाना चाहिए । हम दर्शन करते हैं तो दर्शन भी उस पद्धति से करें जिसमें प्रभु के गुणों पर दृष्टि जाय और अपने आपके ही स्वरूप पर दृष्टि जाय । इस जीव को वास्तविक शरण ज्ञान और वैराग्य ही है । जब-जब भी इस जीव को सुख होता है तो अज्ञान और राग की कमी के कारण होता है । जितने भी कारण हैं लोकव्यवहार में वे इच्छा के अभाव से हुआ करते हैं । लोग तो मोह में यों समझते हैं कि इच्छा की पूर्ति से सुख होता है, पर वहाँ तथ्य यह है ।
इच्छा के अभाव में सुख ― इच्छा के अभाव से सुख होता है । पूर्ति नाम किसका है ॽ जैसे बोरे में गेहूँ भरे जाते हैं भर दिया, क्या इस तरह आत्मा में यह इच्छा भरें, यों इच्छा भरने का नाम इच्छा की पूर्ति होना है । इच्छा के न रहने का नाम ही इच्छा की पूर्ति है । खूब ध्यान से सोच लीजिए । भोजन किया, भोजन कर चुकने पर कहते हैं कि आज हमारी इच्छा की पूर्ति हो गयी । उसका अर्थ क्या ॽ उस समय की स्थिति क्या है जिस स्थिति को यह कहा है कि हमारी इच्छा की पूर्ति हो गयी ॽ वह स्थिति है इच्छा के अभाव की । अब खाने की इच्छा नहीं रही उसका ही नाम है इच्छा की पूर्ति । इच्छा के न रहने का नाम है इच्छा की पूर्ति । आनंद इच्छा के अभाव से होता है काम के होने से नहीं होता । किसी पुरुष को कोई झोपड़ी बनवाने का काम था और उसने छोटा सा घर बना लिया । घर बनाने के बाद जो उसे कुछ शांति आयी, कुछ विश्राम हुआ वह घर की ईंटों से निकलकर नहीं हुआ किंतु जो यह भाव अब बना है कि मेरे करने को यह काम नहीं रहा उस कृतार्थता का आनंद है उसे । प्रत्येक जीव को जो कुछ भी आनंद होता है वह इच्छा के अभाव से होता है । प्रत्येक जगह घटा लो इच्छा के न होने से आनंद होता है । इस जीव का स्वभाव है केवल ज्ञानस्वरूप रहना ।
सत्य परिणमन में आनंद ― तो ऐसे ही केवल एक सत्य परिणमन हमारा रहे तो उसमें शांति का मार्ग प्राप्त होता है । उस सत्य की जिनकी रुचि जगी है और सत्य का ही जो भाषण करते हैं ऐसे पुरुष इस लोक के भूषण ही हैं, चाहे रूप न हो । अंग अवयव भी भग्न हो, दरिद्र हों, रोगी हों, कुल जाति हीन हों, लेकिन सत्य वचन बोलते हों तो उनकी सब कोई प्रशंसा करते हैं । अपने आपको आनंद में रखने के लिए यह कर्तव्य जरूरी है कि हम अपने को सबसे न्यारा अकेला निज स्वरूपमात्र श्रद्धान करें ऐसा ही उपयोग बनाएँ और ऐसी ही रुचि जगायें कि मैं अपने ही इस स्वरूप में मग्न होऊँ, सब विकल्प तोड़ दें ऐसा यत्न हो तो उस यत्न में शांति की प्राप्ति होती है और निर्वाण का मार्ग प्राप्त होता है ।