ज्ञानार्णव - श्लोक 561: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
श्वपाकोलूकमार्जारवृकगोमायुमंडला: ।स्वीक्रियंते क्वचिल्लोकैर्न सत्यच्युतचेतस: ॥561॥
आत्मा के उद्धारक वचन सत्य ― सत्य का ऐसा रुचिया होना चाहिए कि उसे उस सत्य की दृष्टि के सिवाय सब कुछ नीरस लगने लगता है । अपने आपको सोचो तो सत्य ज्ञानानंदस्वरूप मात्र । ऐसा ही सबको निरख कर व्यवहार करें तो हित मित प्रिय वचन से व्यवहार करें । जो पुरुष सत्य से डिगे हुए हैं उनकी प्रतिष्ठा नहीं होती । लोग चाहे पागल उल्लू, बिलाव कुत्ता आदिक निकृष्ट जीवों को भी स्वीकार लें, उन्हें भी भला मान लें पर असत्य बोलने वाले को कोई भला नहीं मानता, वह झूठा है, उसे कोई अपनी गोष्ठी में भी नहीं जुड़ने देता । असत्यवादी इन सब जीवों से भी अधिक निंद्यनीय है, असत्य उसे कहते हैं जो दूसरे पुरुषों का अहित करे । विषय कषायों में लगाने वाले वचन भी असत्य वचन कहलाते हैं । जो इंद्रियपोषण के लिए गप्प सप्प किए जाते हैं वे असत्य वचन कहे जाते हैं । आत्मा का जिसमें उद्धार हो ऐसे वचन बोलना सो सत्य वचन कहलाता है परमार्थ से । ऐसा जानकर असत्य के आग्रह को तज दें ।
सत्य के आग्रह द्वारा धर्म अधर्म का निर्णय ― देखिये धर्म के नाम पर आजकल सभी लोग अपनी-अपनी बात बोलते हैं, अपने धर्म को सत्य और दूसरे के धर्म को असत्य कहते हैं । यदि किसी कल्याणार्थी को यह शंका हो जाय कि जब सभी लोग अपनी तूती बजाते हैं तो हम किसको सत्य मानें ॽ तो मेरा कर्तव्य यह है कि सबके धर्म की बात छोड़कर जिस धर्म को अपने कुल में भी माना जा रहा हो उसका भी विकल्प तोड़कर यदि स्वयं सत्य का आग्रह करके विश्राम से बैठ जायें और आचरणों से समस्त परवस्तुवों के विकल्प को त्याग दें, इतना तो ज्ञान होना ही चाहिए कि सभी परपदार्थ अहित हैं, उनके विकल्प में लाभ नहीं है, ऐसा समझकर सबका ख्याल छोड़ दें, विश्राम से बैठ जायें तो अपने आप ही अपने में वह अनुभव जगेगा, वह आनंद प्रकट होगा जिसके अनुभव होने पर स्वयं निर्णय हो जायेगा कि धर्म यह है और अधर्म यह है ।
उत्कृष्ट समागम प्राप्त कर अपने से परिचय करना आवश्यक ― देखिये कितना उत्कृष्ट समागम है । देव मिला हमें तो ऐसा मिला जो निर्दोष है, गुणसंपन्न है, जिसमें न श्रृंगार का नाम है, न कौतूहल की कथायें हैं, न विडंबना की कोई बात है । एक आत्मदर्शन कराने वाली मूर्ति है । जिनशासन में गुरु होते हैं तो निवृत्ति की ओर बढ़े हुए होते हैं, प्रवृत्ति का काम नहीं है । जिन शास्त्रों में विषय कषायों के त्याग का उपदेश भरा है, , कषाय करने का उपदेश नहीं है ऐसे देवशास्त्र गुरु का समागम पाकर हम अपने आपके आत्मा को ज्ञान से प्रकाशित न कर सके तो भला बतलावो फिर कल्याण के लिए और मौका कौन सा होगा ॽ हम अपने आपमें बसे हुए सत्य स्वरूप का आग्रह करें और उसी चर्या में समय बितायें ।