ज्ञानार्णव - श्लोक 590: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
विदंति परमं ब्रह्म यत्समालंब्य योगिन:।
तद्व्रतं ब्रह्मचर्यं स्याद्धीरधौरेयगोचरम्।।
ब्रह्मचर्य के अतुल अधिकारी- इस व्रत के संबंध में बड़े-बड़े सहस्र जिह्वाधारी भी हों कोई तो भी इसकी महिमा का वर्णन नहीं कर सकते और जो इसकी महिमा समझना चाहते हैं वे इस ब्रह्मचर्य को अंगीकार करके ही समझ सकते हैं, फिर भी कुछ न कुछ वर्णन तो करना ही चाहिए। तो इस व्रत के वर्णन में आचार्यदेव कहते हैं कि मैं विस्तार के साथ कहूँगा, परंतु सत्पुरुषों के इस व्रत के संबंध में अति विस्तार की वार्ता सुनकर देखकर रंच भी क्लेश न करना अर्थात् रुचिपूर्वक इस व्रत की महिमा को सुनना। जिसका होनहार उत्तम होता है वह पुरुष इस ब्रह्मचर्य व्रत में अंतरंग से प्रीति करता है। अकलंकदेव निकलंकदेव का उदाहरण प्राय: सबको विदित है। अकलंक निकलंक के पिता अष्टाह्निका के दिनों में किसी गुरु से ब्रह्मचर्य व्रत ले रहे थे। अष्टह्लिका के 8 दिनों में उसी समय कौतूहलवश अपने दोनों नन्हे मुन्नों ने कहा कि तुम भी ब्रह्मचर्य व्रत लो। उन्होंने भी लिया। जब कई वर्ष गुजर गये तो उनके माता पिता उनके विवाह की बात करने लगे। तो अकलंक निकलंक ने कहा कि हमें तो आपने ब्रह्मचर्य व्रत दिलाया था, अब यह चर्चा कैसी? तब माता पिता ने कहा कि व्रत तो अष्टाह्लिका पर्व तक था, इस पर दोनों ने यह कहा कि हमने तो ब्रह्मचर्य का पूर्ण व्रत लिया था। सदैव के लिए व्रत लिया था, अष्टाह्लिका के दिनों के ही व्रत का भाव रखकर हमने ब्रह्मचर्य न लिया था। इस लोक में मेरा तेरा कहकर कौनसी सिद्धि मिलती है? जिन्होंने धर्म के लिए ही अपना, तन, मन, धन, वचन सर्वस्व न्योछावर किया है ऐसे पुरुष ही स्वयं अपने आपका और जगत के जीवों का कल्याण कर गए।
परमकर्तव्यों से जीवन की महिमा- जो जन्म लेते हैं वे मरते अवश्य हैं। अब मरने के बाद में जीव का कुछ लाभ रहे तब तो अच्छा है और मरने के बाद पशु, पक्षी, कीड़ा, मकौड़ा बन गए तो उससे क्या तत्त्व निकला? इसी प्रकार इस जीवन से लोक का यदि उपकार बने तो उसके जीवन की महिमा है। तो अपना जीवन सोपकार और परोपकार से भरा हुआ होना चाहिए। रही यह आजीविका की बात, तो इसका भी खुद निर्णय रखिये कि जिन जिनके भोगोपभोग में धन लगता है उनके पुण्योदय से इसका अर्जन होता है। जीवन वही सारभूत है जिस जीवन से अपना और पर का उपकार हो। अन्य बातें तो सब पुण्य पाप कर्मों के अधीन हैं। कोई पुरुष दिनभर खूब श्रम करके 8-10 आने ही कमा पाता है और कोई पुरुष थोड़े ही प्रयास से अपने कारोबार को निरखता है और उसके विशेष आमदनी चलती है। तो इसका कारण क्या है अंतरङ्ंग में? वह है सब पुण्य का उदय अनुदय। तो उसकी ओर से तो मुँह मोड़ना चाहिए और फिर चाहे जो स्थिति बने, सभी स्थितियों का मुकाबला कर सकते हैं ऐसा जिसके मन में साहस हो वही पुरुष धर्म का सेवन कर सकता है। जो संपदा की चाह करे, विपत्ति से घबड़ायें ऐसा पुरुष कहा धर्मवृक्ष का सेवन कर सकता है।
सावधानी की अत्यावश्यकता- अपने आत्मा को पवित्र बनाना यह सबसे ऊँचा काम है, इसका संबंध अपने आपसे है। आत्मलाभ इसी में है। हम आज मनुष्य हुए, हमने जैन शासन पाया, हृदय की बात दूसरे को समझा सकते, इतना श्रेष्ठ समागम किसी पुण्योदय से ही प्राप्त हुआ है, नहीं तो अनेक पशु, कीड़े, मकौड़े सब तो फिर रहे हैं, ये भी तो जीव हैं। जैसे हम हैं वैसे ही ये भी हैं। क्या हमने ये पर्यायें न प्राप्त की होंगी? और, यदि अब भी न चेते तो क्या ये पर्यायें प्राप्त न होंगी? सभी जीव समान हैं, पर आज हमने जो एक विवेकयुक्त भव पाया है तो यों समझिये कि एक विशिष्ट पुण्य का फल मिला है। अब इस पुण्यफल को पाकर नहीं चेतते हैं तो उसी पुण्य पर हम कुठाराघात कर रहे हैं। यह सब व्रतों के सिरताज ब्रह्मचर्य व्रत की बात चल रही है।