वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 589
From जैनकोष
जो अदत्त कछु लेत, ताको सगो न कोई ह्वै।
गुणनि जलांजलि देत, नरकवास परभव लहै।
परम तप ब्रह्मचर्य- समस्त तपश्चरणों में प्रधान तपश्चरण है ब्रह्मचर्य। आत्मा की पवित्रता ब्रह्मचर्य से होती है। कर्मों की निर्जरा का मुख्य साधन है ब्रह्मचर्य। जिस व्रत का आलंबन करके योगीगण परमब्रह्म परमात्मा को जानते हैं तो अपने को परमात्मस्वरूप अनुभवते हैं और जिस व्रत को धीर वीर पुरुष ही धारण कर सकते हैं, वह है ब्रह्मचर्य नाम का महान व्रत। ब्रह्म का अर्थ है आत्मा। उस आत्मा में ही अपने उपयोग का लगाना सो है ब्रह्मचर्य। देखिये किसी भी इंद्रिय के विषय में गिरे तो उसमें ब्रह्मचर्य का घात है अर्थात् आत्मा में रमण न कर सका, किसी बाहरी पदार्थों में लग गया।
कुशील की प्रबल पातकता- ब्रह्मचर्य के घात का नाम है व्यभिचार। व्यभिचार नाम तो सभी बाहरी प्रवृत्तियों का है। आत्मा में अपना उपयोग स्थिर न रहे, बाहरी बाहरी विषयों में ही चित्त लगा रहे वे सब व्यभिचार हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, तृष्णा ये सबके सब व्यभिचार कहलाते हैं। लेकिन लोक में रूढ़ि एक स्पर्शन इंद्रिय के विषय सेवन में अर्थात् मैथुन प्रसंग में, कामवासना की पूर्ति में लोग व्यभिचार शब्द का प्रयोग करते हैं। इससे यह जानना कि समस्त इंद्रियों में प्रबल और पातक विषय है स्पर्शनइंद्रिय का विषय अर्थात् कुशील नामक पाप एक ऐसा कठिन पाप है कि जिसमें रहकर मनुष्य रंच भी सावधान नहीं रह पाता। इसी कारण कुशील पाप को ब्रह्मचर्य का घात बतलाया गया है। वहाँ तो आत्मा के उपयोग से हटकर किसी भी बाह्य पदार्थ में रति करना सो व्यभिचार है। फिर भी रूढ़ि में एक विषयसेवन को ही व्यभिचार कहते हैं। तात्पर्य यह है स्पर्शनइंद्रिय का विषय सबसे कठिन विषय है, उससे विरक्त रहकर एक परमार्थ ब्रह्मचर्य का पालन करना हैं।
परम हित ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य सब मनुष्यों को हितकारी है, गृहस्थ हों उन्हें भी अधिकाधिक ब्रह्मचर्य से रहना हितकारी है और ब्रह्मचर्य की महिमा वहाँ है जहाँ मन, वचन, काय से ब्रह्मचर्य की साधना हो। किसी भी रूप में मन को डिगायें नहीं, कभी रागभरी वाणी बोलकर अपना दिल बहलायें नहीं। कभी किसी प्रकार की काय से कुचेष्टा न करें। मन, वचन, काय से ब्रह्मचर्य की जो साधना करें उनका निर्दोष ब्रह्मचर्य है।
शील का एक दृष्टांत- एक पुराना कथानक है कि एक नगर में कोई बड़ा राजा रहता था। कोई मुगल राज्य के समय की बात है। उस राजा से किसी और बादशाह की लड़ाई हो गयी। उस युद्ध में राजा के पुत्र ने ऐसा कड़ा युद्ध किया कि सिर कट जाने पर भी धड़मात्र से 10-20 सिपाहियों को युद्ध में मार गिराया। ऐसा हो सकता है कुछ समय के लिए। अंत में वह मर गया। बादशाह ने जब उसकी वीरता की कहानी सुनी तो वह सोचता है कि वह किसी बहादूर बाप का जाया हुआ पुत्र था। जब वह पुत्र इतना बहादूर था तो उसका बाप कितना बहादूर होगा? यही सोचकर उसने उसके बाप को अपने राज्य में बुलाना चाहा, इसलिए कि उसके द्वारा अपने यहाँ भी वीर संतानों की उत्पत्ति हो। किसी चतुर आदमी को उसके पास भेजा, वह राजा से जाकर कहता है कि बादशाह ने आपकी याद की है। वह चला, रास्ते में राजा पूछता है कि आखिर बादशाह ने किस बात के लिए याद किया है? उसने कहा- महाराज बादशाह ने यह निर्णय किया कि आपकी शादी हम अपने देश में किसी कन्या से करायेंगे और उससे वीर संतानों की उत्पत्ति होगी। तो उस बात को सुनकर राजा बोला कि यह तो तुम बतावो कि तुम्हारे बादशाह के राज्य में मेरे लायक कोई कन्या भी है क्या? कहा, महाराज एक से एक हैं, राजा बोला- एक से एक की बात नहीं कह रहे, जिस रानी से वहाँ पुत्र उत्पन्न हुआ था, जिसने सिर कट जाने पर भी धड़मात्र से बीसों सिपाही मार गिराये, उस रानी का चरित्र सुनो ! जब वह पुत्र 6 माह का ही था, घर में पालने में झूल रहा था तो रानी के कमरे में पहुँचने पर हमने कुछ शब्दों से मजाक किया तो उस समय उस 6 माह के पुत्र ने अपने हाथों से अपना चेहरा ढक लिया। तो रानी ने कहा कि तुम यहाँ मजाक करते हो, यह अन्याय है, देखो यहाँ पर पुरुष पड़ा है, उसने शरम के मारे अपना मुँह ढक लिया है। इतना कहकर रानी ने अपनी जीभ निकाली और अपने ही दाँतों से पीसकर अपनी जान खो दी। इतनी शीलवती कन्या यदि तुम्हारे बादशाह के राज्य में हो तो बतावो- उसने कहा- महाराज ऐसी कन्या होना तो कठिन है। तो प्रयोजन यह है कि ब्रह्मचर्य व्रत का मन से, वचन से और काय से पालन करें, यह धीर वीर पुरुषों का ही काम है।
ब्रह्मचर्य पालन की अभीष्टता- जिन्होंने अपने आत्मा के सहजशुद्ध स्वरूप का बोध किया है और जो अपने ज्ञानानंदस्वभाव में तृप्त रहा करते हैं, जिन्हें कभी अपने आपका अकेलापन निरखने को मिला है जिससे चुपचाप अंदर में वार्ता करके तृप्त रह सकते हैं, ऐसी अपनी निधि जिन्होंने पायी है ऐसे धीर वीर संतों से यह ब्रह्मचर्यव्रत पलता है। फिर भी ब्रह्मचर्य अणुव्रत गृहस्थजनों के होना अति आवश्यक है। जैसे जो पर्व के दिन हों अष्टाह्निका, दसलाक्षणी, सोलह कारण, अष्टमी, चौदस, ऐसे पर्व के दिनों में ब्रह्मचर्य व्रत रखें, और ऐसा नियम होना चाहिए कि एक माह में 25, 26, 27 दिन ब्रह्मचर्य से रहेंगे। ब्रह्मचर्य की अद्भुत महिमा है।