ज्ञानार्णव - श्लोक 626: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
दक्षो मूढ: क्षमी क्रुद्ध: शूरो भीरुर्गुरुर्लघु:।
तीक्ष्ण: कुंठो वशी भ्रष्टो जन: स्यात्स्मरवंचित:।।
मदनज्वर की पीड़ा- जीव के स्वरूप को देखो तो समस्त जीवों का एक समान ही स्वरूप है। उस दृष्टि में किसी भी जीव से किसी का भेद नहीं है किंतु उपाधि के भेद से जीवों में गुणगृत भेद भी नजर आता है और प्रदेशकृत भेद भी नजर आता है। देखो तो भूल भूल में कितना भेद हो गया, कोई जीव कीट मकोड़ा है, कोई मनुष्य है, कोई पशु पक्षी है, कोई वृक्ष, पृथ्वी आदिक स्थावर है। इतना अधिक अंतर जो प्रदेशकृत आ गया है वह सब उपाधि का परिणाम है। गुणकृत अंतर भी देखिये- कोई क्रोधी है, कोर्इ मानी है, कोई मायावी है, कोई लोभी है, कोई कामी है और उनमें भी असंख्यात प्रकार की डिग्रियाँ हैं। इतने गुणकृत जो भेद हैं ये भी उपाधिकृत भेद है। उपाधियाँ विकारों के कारण हैं। सब विकारों में महान विकार है काम संबंधी विकार। सभी शासनों में ब्रह्मचर्य की महिमा कही गई है। ब्रह्मचर्य व्रत ज्ञानहीन, बलहीन जीवों से नहीं धारण किया जाता है। सच्चा ब्रह्मचर्य तो वहाँ ही निभता है जहाँ निज ब्रह्मस्वरूप का भान है और उपयोग भी अपने आत्मस्वरूप की ओर लग गया है ऐसे ज्ञानी संतों से परमार्थ ब्रह्मचर्य भी पलता है और व्यवहारिक ब्रह्मचर्य भी पलता है। जो आत्मपरिचय से रहित हैं, जिन्होंने पर्याय को ही अपना स्वरूप मान लिया है, जो शरीर मिला उसी को ही ‘ये मैं हूँ’ ऐसा जो समझते हैं वे शरीर के दास बनते हैं और इन इंद्रियों ने जो कुछ चाहा उसकी पूर्ति में उद्यत रहते हैं। काम का ज्वर इतना पीड़ा पहुँचाने वाला है कि जितने कष्ट पिशाच सर्प रोग आदिक भी नहीं देते और न दैत्य गृह राक्षस भी इतनी पीड़ा नहीं देते जितनी पीड़ा कामवासना में होती है।
ज्ञानोन्नत जीवन का साधन ब्रह्मचर्य- पुरुष का जीवन उत्तरोत्तर जो उन्नतिशील बनता है वह ब्रह्मचर्य के आधार पर बनता है। वर्तमान में उन्नत जीवन इस ही का तो नाम है जो ब्रह्मचर्य, शुद्धभोजन और स्वाध्याय अर्थात् ज्ञानार्जन, इन तीन बातों से भरा हुआ हो, उस ही जीवन को पवित्र जीवन कहते हैं। यदि ज्ञानार्जन का कोई साधन नहीं बना रखा, स्वाध्याय करके या गुरुमुख से सुनकर कुछ चर्चा द्वारा कुछ सुनाते हुए तत्त्व के चिंतन द्वारा यदि शुद्ध ज्ञान का अर्जन नहीं करते हैं तो ज्ञानशून्य जीवन चाहे लोककला से लोक में अन्य विद्यावों के कारण प्रतिष्ठा पा ले, लेकिन जिस ज्ञान से आत्मा को शांति मिलती है वह ज्ञान नहीं है अतएव शांति प्राप्त नहीं होती। जितना राग और मोह में बढ़ेगा यह जीव उतनी ही इसमें अशांति बढेगी। यह सर्वत्र नियम देख लो। वह बड़ा सौभाग्यशाली पुरुष है जो सब कुछ समागम होते हुए भी राग और मोह जिसके नहीं बढ़ता है, ज्ञान और वैराग्य की ओर ही दृष्टि रहती है वह सुखी भी होता है, अन्यथा आत्मज्ञानशून्य पुरुष सभी प्रकार के विषय और कषायों में अनुरक्त हो जाता है और दु:खी हो जाता है। तो ज्ञानशून्य जीवन उन्नत जीवन नहीं कहलाता। इस ज्ञानोन्नत जीवन का साध्य है।
अशुद्धभोजी के परमब्रह्मचर्य के लक्ष्य की भी अपात्रता- इसी प्रकार शुद्ध भोजन के बिना यद्वा तद्वा माँस मदिरा आदिेक भोजन किए जाते हों तो यह तो निश्चित है कि उनके आत्मबोध नहीं है। आत्मज्ञान होता तो वे सब आत्मावों को अपने आत्मा की तरह मानते। जो दूसरे जीवों को अपनी तरह मानता है जैसे खुद के कोई कांटा चुभे तो दु:ख होता है ऐसे ही दूसरे जीवों के प्रति भी समझता है कि इन्हें भी ऐसा ही दु:ख होता है। जीवघात के बिना माँस उत्पन्न नहीं होता। माँसभक्षी पुरुष और मदिरापायी पुरुष के भी आत्मा की सुध नहीं रहती है। माँसमदिरा आदिक रहित जो भोजन है वह शुद्ध भोजन कहलाता है। शुद्ध भोजन बिना भी जीवन उन्नत नहीं कहलाता। तीसरी बात है ब्रह्मचर्य की। सब कुछ गुण आ जायें, लोकप्रतिष्ठा, लोकविद्या, वैभव सब कुछ भी आ जायें और धार्मिक पंथ में तपश्चरण संयम छुवाछूत ये सभी बातें भी करने लगे जो धर्म के नाम पर की जाती है किंतु एक ब्रह्मचर्य न हो, काम से व्यथित जीवन हो तो उसका चित्त ही स्थिर नहीं रहता। धर्मात्मा तो वह बनेगा ही क्या? तो यों जीवन वही उन्नतिशील कहलाता है जहाँ ब्रह्मचर्य, शुद्धभोजन और ज्ञानार्जन ये तीन बातें पायी जाती हैं।
ब्रह्म की उपासना में ब्रह्मचर्य- यह प्रकरण ब्रह्मचर्य का चल रहा है। जगत में जीवों को आत्मध्यान ही शरण है, ब्रह्म की उपासना ही शरण है। अपने आपको शरीर से, कर्मों से रहित जैसा कि अपने सत्त्व में कारण स्वरूप है, यों ज्ञानानंदमात्र निरखें इसी का नाम है ब्रह्मचर्य की उपासना। मैं शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप हूँ, इस प्रकार की बारबार भावना करने से जो अन्य संकल्प विकल्प दूर होते हैं उस समय जो आनंद है उसका अनुभव ही ब्रह्मचर्य की सच्ची उपासना है। तो आत्मा का ध्यान ही इस जीव को वास्तव में शरण है। चाहिए इसे शांति और शांति मिलती है विकल्प छोड़कर, पर का मोह छोड़कर अपने आपके स्वरूप में अपना ज्ञान लगाने से। आत्मध्यान का पात्र ब्रह्म की रुचि रखने वाला पुरुष ही हो सकता है। इसलिए ब्रह्मचर्य सिद्धि पर यहाँ अधिक जोर दिया जा रहा है। ब्रह्मचर्य से मनोबल, वचनबल और कायबल भी समृद्ध रहते हैं। इस सबके लिए भी ब्रह्मचर्य की साधना आवश्यक है।