वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 625
From जैनकोष
अनासाद्य जन: कामी कामिनीं हृदयप्रियाम्।
विषशास्त्रानलोपायै: सद्य: स्वं हंतुमिच्छति।।
कामार्त पुरुष द्वारा अनिष्ट का अनवलोकन- विषयकषायों का वेग एक इतना गहन अंधकार है कि इस अंधकार में फंसे हुए पुरुष अपना धन चारित्रबल इनके नाश होने को भी नहीं देखते, कलंक को भी नहीं देखते और मरण भी निकट आ जाय तो उसे भी नहीं देखते, हित अहित का कुछ भी विचार उनके नहीं रहता। लौकिक सुख की प्रधानता भी उसी के होती है जिसके कुछ ज्ञान जगता है तो ज्ञान का भी लौकिक सुख में बड़ा हाथ है। जो लोग बड़े-बड़े वैभव की रक्षा और अर्चना करते हैं वे मनुष्य भी ज्ञानबल पर ही कर रहे हैं। सारे लौकिक बल भी ज्ञानकला पर ही निर्भर है। जहाँ अज्ञान है वहाँ विवाद कलह सारे मचे रहते हैं। अपने ज्ञान को सुरक्षित रखना है तो सत्संगति और स्वाध्याय आदिक द्वारा अपने ज्ञान को विषय और कषायों से अधिकाधिक दूर रखने का प्रयत्न करें।
ज्ञान से आपत्ति के दूरीकरण पर एक दृष्टांत- एक कथानक है कि एक संस्कृत का वृद्ध पंडित, उसकी वृद्ध पत्नी, सबसे छोटा लड़का और बहू किसी गाँव को जा रहे थे, रास्ते में एक जंगल पड़ा, उसमें करीब 2 मील ही पहुँचें होंगे कि शाम होने को हुई। तो जो रास्तागीर वापस आ रहे थे उन्होंने कहा कि यह जंगल बहुत मील लंबा है, इसमें बहुत से भूत राक्षस रहते हैं, वे पहिले कुछ सवाल करते हैं अगर उनका उत्तर न दे सके तो वे प्राण हर लेते हैं। इसलिए आप यहाँ से लौट जावो इसी में कुशलता है। उन सबने सोचा कि अब लौटने का काम नहीं है। अब तो चल दिया तो चलते ही जायेंगे। देखेंगे कौन क्या प्रश्न करता है? वे चलते गए, रास्ते में चारों एक स्थान पर ठहर गये। जब सोने का समय हुआ तो चारों ने सलाह किया कि रात्रि के चार पहरों में अपन में से हर एक व्यक्ति हर एक पहर में जाग ले और तीन सोते रहें। पहले पहर में वह वृद्ध, दूसरे पहर में वृद्ध पत्नी, तीसरे पहर में छोटा लड़का और चौथे पहर में छोटी बहू जाग लेंगे, यह तय हुआ। पहले पहर में जब वह वृद्ध पहरा दे रहा था तो बड़ा भयंकर रूप रखकर एक राक्षस आया, उसने व्याकरण का एक सूत्र बोला- ‘‘एको गोत्रे’’, तो उस वृद्ध पुरुष ने इसके उत्तर में कहा- ऐको गोत्रे भवति स पुमान्, य: कुटुंबं बिभर्ति। गोत्र में वही एक पुरुष प्रधान उज्ज्वल निर्मल श्रेष्ठ है जो समस्त कुटुंब का भरणपोषण करता है, और आप अनुभव भी करते होंगे कि घर का मुखिया जो सबके भरणपोषण का आधार है वह कुटुंब के बीच कितना श्रेष्ठ जंचता है? इस उत्तर को सुनकर राक्षस अति प्रसन्न हुआ और उसे बड़ा पुरस्कार देकर चला गया। दूसरे पहर में बुढ़िया जगी तो वहाँ भी राक्षस ने एक प्रश्न किया ‘‘सर्वस्य द्वे’’, यह भी एक व्याकरणसूत्र है। उसने उत्तर दिया- सर्वस्य द्वेसुमतिकुमति संपदापत्तिहेतु। सब जीवों को ये दो चीजें सुमति और कुमति संपत्ति और विपत्ति का कारण होती हैं। जहाँ सुमति तहाँ संपत्ति नाना, जहाँ कुमति तहाँ विपत्ति निधाना। कैसा भी संकट हो, कैसा भी दारिद्रय हो, यदि परिजन परस्पर सुमति से रहते हैं तो उनका समय बहुत अच्छा व्यतीत होता है और जितना भी वैभव हो, किंतु हो जाय परस्पर में कुमति, तो कुछ काल बाद उनका वैभव भी नष्ट हो जाता है और सभी प्रकार के आरामों से वह पतित हो जाते हैं। तो सब जीवों को सुमति तो संपत्ति का कारण है और कुमति विपत्ति का कारण है। उचित उत्तर सुनकर उसे भी बहुमूल्य पुरस्कार देकर चला गया। तीसरे पहर में छोटा लड़का जगा, तब राक्षस आया व उसने प्रश्न किया- ‘‘वृद्धो यूना’’, यह भी एक संस्कृत का सूत्र है। इसका उत्तर उस लड़के ने यों दिया- वृद्धो यूना सह परिचयात्त्यज्यते कामिनीभि:। अर्थ यह है कि वृद्ध तो पति हो और उसकी युवती स्त्री हो, उस स्त्री का जब किसी युवक से परिचय हो जाता है तो वह वृद्ध पुरुष को जैसे कोई घी से मक्खी निकालकर फेंक देता है इस तरह छोड़ देती है। उचित उत्तर पाकर उसे भी इनाम देकर चला गया। अब अंत स्त्री जगी तो वहाँ भी राक्षस आया और प्रश्न किया- ‘‘स्त्री पुंवत्’’, तो उसने उत्तर दिया स्त्री पुंवत् प्रभवलि यदा तद्धि गेहं विनष्टम्। जिस घर में स्त्री पुरुष की तरह चलाने वाली हो जाती है वह घर नष्ट हो जाता है। ऐसा अनुकूल उत्तर पाकर उसे भी इनाम देकर गया।
ज्ञानबल से सर्वाभ्युदय- भैया ! ज्ञानबल है तो किसी भी जगह हो, किसी भी स्थिति में हो वह अपने आपमें प्रसन्न रहता है, इस निजतत्त्व को तो कोई छुड़ा नहीं सकता ना? हम अपने आपके अंतरंग में सही ज्ञान बनाये रहें, धर्म करें तो इसे कोई छुड़ायेगा क्या? यही है सत्य विद्या। इस सत्य विद्या को न चोर चुरा सकते, न डाकू लूट सकते, न परिजन बाँट सकते, यह तो हमारा हमारे ही अधीन है। हम इस ज्ञान के द्वारा अपने इस ज्ञान का सिंचन करते रहें, अपने आपको सबसे न्यारा ज्ञानमात्र निरखना सही आत्मसिंचन है, यही धर्मवृक्ष का सिंचन है तो इसके प्रताप से यह लोक परलोक हमारा पूर्ण अभ्युदय में व्यतीत होगा।
आत्मप्रकाशन की लगन में हित- भैया ! आत्मप्रकाशन की ओर लगन लगनी चाहिए। धुन की बात है। धुन लगना चाहिए। यह सोचना कि अभी हमारी स्थिति इस काबिल नहीं है कि हम धर्म में, ज्ञान में समय अधिक दे सकें तो ऐसे विचार वाले को तो कभी भी परिस्थिति न आ पायगी। हर स्थिति में तो कुछ न कुछ कमी ढूँढ़ निकालेगा। जिसकी जो स्थिति है उसको ही पर्याप्त स्थिति मानकर धर्मपालन में, ज्ञानार्जन में जो आत्मा के हित के कार्य हैं उन सब कार्यों में अपना उपयोग लगायें, समय लगायें, बस यही भला है। धर्म के लिए आगे समय की बाट जोहना उचित नहीं है। यह मोही पुरुष मैं करूँगा, करूँगा यह तो बहुत सोचता है, पर मैं मरूँगा, मरूँगा ऐसा कभी नहीं सोचता है। अचानक ही किसी दिन मरना तो अवश्य है। जो कोई भी मरते हैं क्या तिथि निर्णीत करके मरते हैं? क्या किसी को निमंत्रणपत्र देकर मरते हैं? सभी यों ही किसी दिन अचानक गुजर जाते हैं। कल का भी तो ठिकाना नहीं है कि जीवन रहेगा कि न रहेगा। फिर जो अनेक वर्षों की चिंताएँ अभी से बनाये हैं उनसे क्या लाभ है? जैन शासन जैसा सुयोग बारबार मिलना अति दुर्लभ है। बहुत कठिनता से प्राप्त होता है। वीतराग ऋषिसंतों ने तत्त्व के मर्म की जो बातें बतायी हैं उनका ज्ञान करें उनमें ही अपना उपयोग लगायें और अपने आपमें उन्हें घटित करके जीवन सफल करें।