ज्ञानार्णव - श्लोक 796: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
भयलज्जाभिमानेन धैर्यमेवावलंबते।
साहचर्यं समासाद्य संयमी पुण्यकर्मणाम्।।
सत्संग से संयमी का पुण्यलाभ- सत्संग में रहने से मनुष्य बहुत से पापों से बच जाता है। कदाचित् तीव्र का पाप का उदय आ जाय, परिणाम बिगड़ने लग जाय तो भी सत्संग में रहने से भय, लज्जा, स्वाभिमान आदि के कारण वह अनेक पापों से दूर हो जाता है। वह सोचता है कि इस महान संगति में रहकर यदि मैं खोटा कार्य करूँ तो यह मेरे लिए धिक्कार की बात होगी। लोग मुझे तिरस्कृत कर देंगे। यों पापों के करने से उसे लज्जा आती है। वह लज्जावश, अपने गौरववश अनेक पापों से दूर हो जाता है। मेरी प्रतिष्ठा हैं, लोग मुझे यों मानते हैं, यदि मैं कोई खोटा कार्य करूँ तो इसमें मेरी हँसी होगी। तो सत्संग में रहकर लज्जा, भय, स्वाभिमान आदि के कारण वह अनेक पापों से दूर हो जाता है। तथ्य तो यह है कि सत्पुरुषों की प्रवृत्ति को निरखकर दिल पर इतना उच्च असर पहुँचता है कि यह पापों से हटकर धर्म के कार्यों में अपने आप लग जाता है। तो सत्संग एक महान गुण है जिससे आत्मा की उन्नति बनती है, हम जितने भी धर्म के लिए कार्य करते हैं वे सभी सत्संग ही तो है। सत्संग में सबसे प्रधान हैं अरहंतदेव, प्रभु सर्वज्ञदेव। जो प्रभु की भक्ति करता है, भगवान के गुणों में अनुराग करता है उसने एक महान सत् का आलंबन लिया है। वह है परम सत्संग। जो सत् मनुष्य आत्मशुद्धि के कार्य में लग रहे, वह भी सत्संग है। जब कभी बड़े मनुष्य संग के लिए न प्राप्त हों तो अपने ही पड़ोस में, अपनी ही मंडली में जो मनुष्य हों उनका संग अपन विशेष करें। वह संग सत्संग है, सत्संग का चित्त पर अत्यंत अधिक प्रभाव पड़ता है। उन्नति ही सत्संग से होती है, इसी का नाम है वृद्धसेवा। जो वृद्ध मनुष्य हों, ज्ञानचारित्र में बढ़े हुए हों, जो हित का उपदेश कर सकते हैं, जो हमें हित की राह बता सकते हैं ऐसे मनुष्यों की विनय करना, सेवा करना, संगति करना सो सब सत्संग है। सत्संग से आत्मा के गुणविकास की प्राप्ति होती है।