वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 797
From जैनकोष
शरीराहारसंसारकामभोगेष्वपि स्फुटम्।
विरज्यति नर: क्षिप्रं सद्भि: सूत्रे प्रतिष्ठित:।।
सत्संग से वैराग्यलाभ- सत्संग के द्वारा सूत्र में बताये हुए, शिक्षित किए हुए मनुष्य की शरीर आहार संसार काम और भोग आदिक से तत्काल विरक्ति हो जाती है। कोई मनुष्य शरीर से वैराग्य रख रहा है तो ऐसी बुद्धि उसे मिली कहाँ से? उसने बचपन में गुरुवों का सत्संग पाया, विद्याभ्यास किया तो उस ही की परंपरा से बुद्धि विकसित हो गयी और यह भान हुआ कि शरीर जुदी चीज है, मैं आत्मा जुदा पदार्थ हूँ। शरीर के संबंध से, शरीर के राग से आत्मा में कलंक बढ़ता है और उनसे ऐसे पापों का बंध होता हैं जिससे अनेक अनेक दुर्गतियों में उत्पन्न होना पड़ता है। यह बुद्धि उसे जगी कब? जब कि सत्संग में रहा आया और उससे कुछ शिक्षा पायी। कामभोगों में, विषयभोगों में अरुचि बनी ज्ञानी के तो यों ही जन्मते तो नहीं बनी। जो भी मनुष्य धर्मात्मा बनते हैं वे जन्म से ही तो नहीं बनते। जब उन्हें गुरुजनों का सत्संग मिलता है, उनका धर्मोपदेश मिलता है, तो उसके प्रभाव से वे धर्मात्मा बनते हैं। दो भाई थे, जिनमें एक भाई तो साधु हो गया, छोटे भाई का विवाह हो गया। वह भाई सपत्नी रहता था। उसके यहाँ एक दिन एक साधु का आहार हो गया, वह साधु उसका बड़ा भाई ही था। तो आहार होने के पश्चात् छोटा भाई अपने भाई मुनि को पहुँचाने के लिए गया तपोवन में, तो वहाँ उस छोटे भाई ने देखा कि इस बड़े भाई का तो बड़ा आदर हो रहा है। वह सोचता है कि यदि मैं यहाँ से लौट जाऊँ तो इसमें मेरी तौहीन होगी, लोग कहेंगे कि इनका यह छोटा भाई कैसा है? तो वह भी वही रुक गया और साधु दीक्षा वही ले ली। जब दसों वर्ष व्यतीत हो गए तो एक दिन उसके चित्त में आया कि मैं अपनी नवविवाहिता पत्नी को छोड़कर चला आया था, पता नहीं अब वह कहाँ क्या करती होगी? तो एक दिन उसी नगर में वह छोटा मुनि गया तो वहाँ जो पहली हवेली थी वहाँ देखा कि उस स्थान पर जिनमंदिर बना हुआ है, स्वाध्यायशाला बनी हुई है, वहाँ तो सारी काया पलट है। एक स्त्री स्वाध्याय कर रही थी। मुनि ने पूछा कि यहाँ फलाने रहते थे ना? उनकी स्त्री थी ना, जिसे वह विवाह होने के थोड़े दिन बाद ही छोड़कर चले गये थे? वह स्त्री कहाँ किस प्रकार से रहती है? तो वह वही खुद की स्त्री थी। तो स्त्री बोली, महाराज आपको साधु हुए दसों वर्ष हो गए पर आपके चित्त ये अभी यह शल्य नहीं हटी। अरे वह स्त्री आपकी मैं ही हूँ। और, मैंने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया है और सारा जीवन स्वाध्याय पूजन ज्ञान में लगाती हूँ। तो देखो उस स्त्री का भी उस समय सत्संग कहलाया जिसने शल्य हटा दी, यों दोनों का उद्धार हो गया। तो सत्संग से जो विरक्ति प्राप्त होती है वह विरक्ति अनेक शिक्षा देने से भी नहीं प्राप्त होती। सारा सुख वैराग्य का है, जितना राग हटा हुआ होगा उतना ही इस जीव को सुख है और जितना राग माह लगा हुआ होगा उतना ही यह जीव क्लेश में है। ऐसा जानकर हम देवपूजा, गुरुसेवा, सत्संग इन कार्यों में अपना उपयोग लगायें और अपने को निर्दोष बनायें, प्रसन्न रखें और अगले भव में भी हमें धर्म का वातावरण मिलें ऐसा ही यत्न रखें। धर्म ही वास्तव में एक शरण है, वह न छूटे बाकी जो पदार्थ जैसा परिणमता है उसके हम ज्ञाता रहें, उसमें ममता न बनायें, अपनी रुचि धर्मपालन की बनायें।