ज्ञानार्णव - श्लोक 815: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
बाह्यांतर्भूतभेदेन द्विधा ते स्यु: परिग्रहा:।
चिदचिद्रूपिणो बाह्या अंतरंगास्तु चेतना:।।
द्विविध परिग्रह- वे परिग्रह कितने प्रकार के हैं जिन परिग्रहों के भार से दबकर यह प्राणी गुणवान होकर भी संसारसागर में डूबता है, वे परिग्रह मूल में दो प्रकार के हैं- एक बाह्यपरिग्रह और एक अंतरंगपरिग्रह। बाह्यपरिग्रह तो चेतन और अचेतन दो प्रकार के हैं, जैसे परिजन, पुत्र, मित्र, स्त्री आदिक ये चेतन परिग्रह हैं और घर, दुकान, धन, वैभव आदिक ये बाह्य अचेतन परिग्रह हैं, किंतु अंतरंगपरिग्रह सिर्फ चेतन ही होता है। बाह्यपरिग्रह ये सब इस कारण कहलाते कि ये सब बाह्यक्षेत्र में मौजूद हैं, इनकी भिन्न सत्ता है। इनका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव यह चतुष्टय इनमें है। चूँकि इन बाह्य अर्थों में ममत्व भाव बसा रक्खा है इस कारण ये परिग्रह कहलाते हैं, पर अंतरंगपरिग्रह तो आत्मपरिणमनरूप है; विकार भाव जगना आदि ये सब अंतरंगपरिग्रह कहलाते हैं। यद्यपि जीव बाह्यपरिग्रहों को भी ग्रहण नहीं किए हुए हैं क्योंकि जीव तो ज्ञानरूप है, इनके न हाथ है, न पैर है, न कुछ बनता है इन ढेरों में जीव से, क्योंकि सब पौद्गलिक ढांचा है। जीव तो केवल एक ज्ञानरूप है, उसमें कल्पनाएँ जगती हैं, विचार तर्क-वितर्क होते हैं सो उन तर्क-वितर्कों से कोई बाह्यपदार्थ ग्रहण में नहीं आता, छूने में नहीं आता, फिर भी जिन पदार्थों के संबंध में इनके मूर्छा जगती हो, मम इदं- यह भाव बनता हो, इदं अहं- यह भाव बनता हो तो वह सब परिग्रह कहलाता है।
मूर्छा से परिग्रहत्व- जैसे कि प्रकटरूप में यह वर्णन चलता है कि मिथ्यादृष्टि तो पर का कर्ता है और सम्यग्दृष्टि पर का कर्ता नहीं है, इस संबंध में विचार कीजिए तो पर का कर्ता कोई परद्रव्य हो ही नहीं सकता। यह वस्तु का स्वरूप है। मिथ्यादृष्टि भी पर का कर्ता नहीं, सम्यग्दृष्टि तो पर का कर्ता अंतरंग बहिरंग किसी रूप में भी नहीं है, लेकिन जिन बाह्य पदार्थों में करने का अभिमान रखता है मिथ्यादृष्टि जीव, सो करता तो है अपने विकार भाव को किंतु उन विकार भावों का जो विषय बना उन पदार्थों का उपचार से, कहा जाता है कि यह उन पदार्थों का कर्ता है। इस ही प्रकार यद्यपि बाह्यपरिग्रह इस जीव में लगे हुए नहीं हैं, अथवा कुछ संसर्ग में लगे भी हैं, जहाँ कर्म है, शरीर है, जहाँ जीव जाता है तहाँ बंधन चलता है तिस पर भी यह निमित्तनैमित्तिक रूप बंधन है। आत्मा कहीं अपने किसी गुण को पकड़े हुए नहीं है, छुवे नहीं है, पर ऐसा विशिष्ट निमित्तनैमित्तिक बंधन है कि यह बंधन में पड़ा है, अलग नहीं हो सकता। प्रयोजन यह है कि आत्मा की प्रगति जैसी समस्त वस्तुवों में होती है वैसी इसके भी है। जैसे समस्त वस्तुवें पर से विविक्त हैं, निरपेक्ष हैं, किसी का परिणमन किसी पर में नहीं जाता, किसी पर के द्वारा उपादानरूप से कुछ किया नहीं जाता किसी पर में, इसी प्रकार इस आत्मा की भी बात है। तो मूल में परिग्रह के दो भेद है- बहिरंग परिग्रह और अंतरंग परिग्रह, अब उन परिग्रहों का विवरण करते हैं।