वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 814
From जैनकोष
यानपात्रमिवांभोधौ गुणवानपि मज्जति।
परिग्रहगुरुत्वेन संयमी जन्मसागरे।।
शांति का प्रयास- इस लोक में विषयकषायों के विष से मूर्छित जगत के प्राणियों को कहीं कुछ भी शरण नहीं नजर आ रहा है। शांति के लिए अथक प्रयत्न तो करते हैं प्राणी, किंतु बाह्य अर्थों में दृष्टि बनाये रहते हैं, और इसका परिणाम यह है कि इतना श्रम करने पर भी जीव शांति प्राप्त नहीं कर पाता। शांति का मार्ग तो शांतस्वरूप जो निज आत्मतत्त्व है उसमें दृष्टि जाना और अपने आपको सर्व से विविक्त केवल ज्ञानप्रकाश मात्र अनुभव करना ऐसी मग्नता आये तो शांति प्राप्त हो सकती है। यह सब आत्मध्यान के प्रसाद से संभव है, अतएव जीव को केवल अपने सहज आत्मस्वरूप का ध्यान ही शरण है। इस शरणभूत आत्मध्यान के खास अंग तीन हैं- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। तो सम्यक्चारित्र का यह वर्णन चल रहा है और उसी प्रकरण में अब परिग्रह त्याग महाव्रत की बात कह रहे हैं।
परिग्रहभार से भवसागर में डूब- जिस प्रकार समुद्र में या बड़े तालाब में कोई नाव गुण अर्थात् रस्सी से भी बंधी हुई है, लेकिन उसमें पाषाण आदिक का बोझ बढ़ जाय तो भले ही रस्सी से बँधी हुई है तो भी वह डूब जाती है, इस ही प्रकार कोई साधु बहुत संयम धारण किए हुए है, गुणवान है तो भी यदि परिजन में अथवा किन्हीं परिग्रह भावों में मूर्छा का परिणाम आया तो वह गुणवान होकर भी संसारसमुद्र में डुबता है। जिस किसी भी प्रकार का त्याग किया, परिजन का त्याग, गृह का त्याग, सब कुछ त्याग करने के पश्चात् भी यदि परिजनसंबंधी, वैभवसंबंधी, कुटुंबसंबंधी मूर्छा जगती है तो वह त्याग त्याग तो नहीं होता। कारण यह है कि त्याग मूर्छारहित परिणाम का नाम है, ऐसे मूर्छावों का भार यदि बढ़ गया हो तो गुणों से बंधा होता हुआ भी वह साधु अर्थात् अपने अन्य व्रत और संयम को भी निभाता हो तब भी वह संसारसागर में डूब जाता है। तात्पर्य यह है कि आत्मध्यान की पात्रता परिग्रहत्याग से होती है और इसी कारण आत्मध्यान के विशिष्ट पात्र संयमी साधुजन होते हैं। परिग्रह शब्द में दो शब्द हैं- परि और ग्रह, परि उपसर्ग है और ग्रह ग्रहण करने में आने वाली धातु है। जो चारों ओर से ग्रहण करे, चारों ओर से बाँध दे उसका नाम परिग्रह है। परिग्रह संबंध का भार संसारसागर में डूबा देता है।