ज्ञानार्णव - श्लोक 831: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
उन्मूलयति निर्वेदविवेकद्रुममंजरी:।
प्रत्यासत्तिं समायात: सतामपि परिग्रह:।।
परिग्रहसंग निर्वेदोन्मूलकता- यह परिग्रह यदि कुछ निकट प्राप्त हो जाय तो सज्जन पुरुषों का भी वैराग्य विवेकरूपी वृक्ष की मंजरियों का उन्मूलन कर देता है। जैसे कितना भी आम में बौर आये हो, बहुत अच्छी फसल की आशा हो और बिजली औला बौछार हो जाय तो वे सम मंजरियाँ खतम हो जाती हैं, ऐसे ही सज्जन पुरुषों में बहुत भी वैराग्य हो, विवेक हो किंतु जब किसी समय परिग्रह में मूर्छा भाव जग जाता है तो वैराग्य और विवेक खतम हो जाते हैं, परिग्रह का ऐसा संबंध है। एक ऐसी किंबदंती से लोगों को समझाया गया है कि यह परिग्रह जहाँ भी पहुँचता है उसके निकटवर्ती महान आत्मा को भी पतित कर देने का कारण बन जाता है। एक ऐसा कथानक है कि गुड़ एक बार भगवान के पास गया और उनसे प्रार्थना करने लगा (होंगे कोई ऐसे ही भगवान) कि महाराज हम पर बड़ी विपदा है। जब हम खेत में खड़े थे, गन्ने के रूप थे तो लोगों ने मुझे तोड़ तोड़कर खाया, और बच गया तो घानी में पेलकर रस निकालकर खाया, फिर वहाँ से बचे तो गुड़ बनाकर खाया, और मैं जब सड़ गया तो लोगों ने तंबाकू में कूट कूटकर खाया। सो महाराज हम पर बड़ी विपदा है। यह सब गुड़ कह रहा है। तो भगवान बोले कि तू इसी समय मेरे सामने से हट जा क्योंकि तेरी कथा सुनकर मेरे मुंह में पानी आ गया है। एक कथानक से यह समझाया है कि बड़े से बड़े पुरुष भी परिग्रह के व्यासंग से गिर जाते हैं। परिग्रह ही समस्त दु:खों की खान है। जीव सब दु:खी हैं एक इस परिग्रह की लालसा के कारण। उस वैभव से ही लोग अपनी महत्ता आँकते हैं। यों परिग्रह का संबंध जगा तो इस जीव को समस्त विडंबनाएँ फिर भुगतनी पड़ती हैं। तो यह परिग्रह निकट आ जाय तो बड़े-बड़े संत पुरुषों के भी वैराग्य विवेक मंजरियों को नष्ट कर डालता है। जो पुरुष अपने परिणामों को निर्विकार बनाये रहते हैं वे ही इस शुद्ध परमात्मस्वरूप के ध्यान के पात्र होते हैं और परमात्मस्वरूप का संग मिलना यही जीव को वास्तविक शरण है। मोही जीवों का संग मिलने से उनसे कोई शरण नहीं मिलता है। तो अपना शरण पाने के लिए इन परिग्रहों से रहित होने का भाव रखना चाहिए और परिग्रहरहित निज अंतस्तत्त्व का ध्यान रखना चाहिए।