वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 830
From जैनकोष
हषीकराक्षसानीकं कषायभुजगव्रजम्।
वित्तामिषमुपादाय धत्ते कामप्युदीर्णतां।।
धनामिष पाकर इंद्रियराक्षसों की उद्दंडता- परिग्रह संबंध होने से इंद्रियरूपी राक्षसों की सेना और कषायरूपी सर्पों का समूह धनरूपी मौज को ग्रहण करके ऐसी उद्दंडता धारण करता है कि जो चिंतना में भी नहीं आ सकती। इंद्रियरूपी राक्षस उस आत्मा को बहुत सता डालते हैं जो आत्मा परिग्रह में व्यासक्त है। परिग्रह में ऐसी लालसा रखने वाले पुरुषों के एक क्या अनेक विपदायें निरंतर बनी रहती हैं। प्रथम तो उसमें कोर्इ बाधक बनता है तो उसे शत्रु मानता है और कदाचित् कोई बाधक न बने तो वहाँ विषयों के परिणाम से अपने को बरबाद कर लेता है। ऐसे ही कषायरूपी सर्प के समूह से यह डसा जाता है। परिग्रही पुरुष इतना व्यग्र रहता है कि उसे विषय कषाय ऐसा सताते रहते हैं कि वह क्षणमात्र भी शांति का रस नहीं ले पाता है। अपने आपको नि:संग केवल ज्ञानमात्र अनुभव करते रहें तो यह विषय और कषाय की सेना इसे सता न सकेगी। हमारा यह मुख्य कर्तव्य है कि हम अधिकाधिक ऐसा ही अनुभव करें कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ और समस्त परभावों से जुदा हूँ, ऐसा ज्ञानमात्र अपने आपको निरखने से ये विषय और कषाय की विपदायें समाप्त हो जाती हैं।