ज्ञानार्णव - श्लोक 86: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
यांत्येव न निवर्तंते सरितां यद्वद्र्मय:।
तथा शरीरिणां पूर्वा गता नायांति भृतय:।।86।।
अतीत समय का पुन: अमिलन― जिस प्रकार नदी की लहरें जो निकल गयीं सो निकल गयीं, जो बह गयीं सो बह गयीं, वे फिर लौटकर नहीं आती, इसी प्रकार जीव की विभूति जो नष्ट हुई, वह नष्ट होने के बाद फिर लौटकर नहीं आती। इष्टवियोगज आर्तध्यान में और होता ही क्या है? इष्ट का वियोग होने पर उसके संयोग के लिए ध्यान बनाना यह इष्ट वियोगज आर्तध्यान है। इष्ट का वियोग हो गया, हो गया, अब उसमें आर्तध्यान कब बनेगा? जब तक कि विमुक्त इष्ट पदार्थ का संयोग चाहा जाय। यह मिल जाय, फिर आ जाय, ऐसा ध्यान बनाये, इच्छा बनाये तब ही तो आर्तध्यान बनता है। कुछ लोग तो बाहर भी देखने लगते मरे हुए उस पुरुष के प्रति जिस गली से रोज आया करता था सामने से भोजन करने के लिए, उस गली की ओर देखते हैं, शायद आ जाय। यों आता था, यों क्यों न आ जाये? यों आ जाना चाहिए आदिक कल्पनाएँ बनाते हैं। अरे जो गुजर गया वह पुन: नहीं आता। उसके लिए खेद करने की ही बात नहीं बल्कि जब तक संयोग था तब तक उसका हर्ष करना भी व्यर्थ रहा।
विवेक की समझ― कभी तो घटना गुजरने के बाद विवेक आता है। कहते है ना कि किसी में बुद्धि 2 मिनट बाद ही आ जाती है यथार्थ समझ की। किसी के 15 मिनट बाद आती है, किसी की 1 घंटे बाद अक्ल ठिकाने होती है। तो यह सब क्षयोपशम की विभिन्नता की बात है और मोहनीय के क्षयोपशम की विशेषता की बात है। वियोग हो जाने पर तो यह खूब समझ में आ जाता है कि संयोग के समय जो इसने हर्ष माना था, वह सब व्यर्थ की बात रही, तत्त्व की, सार की बात वहाँ कुछ न थी। सोच लो अपने आपमें। जिसके प्रति अपना अधिक प्रेम था वह अब नहीं रहा तो उसके संबंध में आप यों स्पष्ट परख सकते हैं कि हमने जो उसके प्रति अनुराग किया था, बहुत राग रहता था हर्ष मानते थे, वे सब व्यर्थ की बातें थीं। ध्यान में वियोग के बाद यह बात समाती है। काहे का हर्ष करना और काहे का विशाद करना?
अतीत के विशाद की व्यर्थता― भैया ! पर्वत से गिरने वाली नदी का वेग जो निकल गया वह फिर लौटकर कभी नहीं आता ऐसे ही हमारे परिणमन में जो वेग निकल आया है, तरंग निकली हैं वह गुजर गयीं, वह पुन: लौटकर नहीं आती। ऐसा समझकर इष्ट पदार्थों के वियोग में विशाद मत करो। यह तो होती ही है, ऐसा तो जगत् में हुआ ही करता है।