वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 87
From जैनकोष
क्वचित्सरित्तरंगाली गतापि विनिवर्तते।
न रूपबललावण्यं सौंदर्यं तु गतं नृणाम्।।87।।
अतीत रूपादिक के पुन: लाभ की असंभवता― कदाचित् नदी की लहर लौट भी आये यह भी संभव हो सकता है, परंतु मनुष्य का गया हुआ रूप, बल और सौंदर्य यह फिर नहीं आता। नदी में लहर उठती है, वह तो गयी, कदाचित् वायु का वेग पुन: दूसरी और से लौटकर आये, तो थोड़ा बहुत वह लहर खिसक भी सकती है, पर गया हुआ रूप, बल, सुंदरता ये फिर नहीं आते हैं।
रूपादिक की विनश्वरता पर एक पौराणिक उदाहरण― सनतकुमार चक्रवर्ती की कथा बहुत प्रसिद्ध है। स्वर्गों में चर्चा हुई कि सुंदरता में सनतकुमार चक्रवर्ती अद्वितीय है। देव देखने गए। उस समय वह सनतकुमार अखाड़े में लड़ भिड़कर धूल से धूसरित शरीर को नहाने के लिये बैठे हुए थे। देव देखकर खुश हुए। वाह जैसा सुनते थे वैसा ही सुंदर शरीर है। तो कोई बोला― कभी क्या देखते हो चक्रवर्ती की सुंदरता? जिस समय सजे सजाये सिंहासन पर राजदरबार में बैठे हों, उस समय इनकी सुंदरता देखो। अच्छा वहाँ भी हम देखने आयेंगे। फिर क्या था, दुगुने तिगुने शृंगार से सनतकुमार चक्रवर्ती को सजाया गया। कभी आप बन ठनकर फोटो उतरवायेंगे तो फोटो अच्छी न आयेगी और सहज साधारणरूप से फोटो उतरवावें तो वह ठीक आयेगी। तो जब सजे सजाये सनतकुमार को सिंहासन पर बैठा हुआ देखा उस समय देवता लोग माथा धुनते हैं और कहते हैं― हाय ! वह रूप तो अब नहीं रहा। लोग कहने लगे कि यह क्या कह रहे हो? तो उस समय उन्होंने दृष्टांत के रूप में पानी का घड़ा मंगवाया, फिर उसमें एक पतली सींक डुबोई और सींक में अंतिम एक बूँद लगी रही उसे जमीन पर गिरा दिया और लोगों से कहा― बतलावो यह घड़ा कुछ रीता हुआ या नहीं? तो लोग बोले― हाँ इसमें एक बूँद कम हो गयी है। तो ऐसे ही यह रूप भी, यह सुंदरता भी प्रतिक्षण कम होती जाती है। बूढ़ों को, बुढ़ियों को देखो आज इनकी सुंदरता चली गयी। क्या वे भी कभी आज के लड़की लड़कों जैसे सुंदर न थे? अरे आज के जो युवावस्था संपन्न लड़का लड़की हैं ऐसे ही सुंदर तो वे भी थे। तो जो रूप गया, सुंदरता गयी, बल गया वह फिर नहीं आता।
रूप की मायारूपता― भैया ! रूप में क्या चीज है? कुछ मिलने वाली बात है क्या? किसी का रूप पकड़कर मुट्ठी में रख लीजिए अथवा जेब में धर लीजिए खूब सुहावना लग रहा है ना, सो उसे बार-बार जेब से निकालकर देख लीजिए। अरे यह रूप कुछ चीज नहीं है। जो रूप है उसे टटोलकर देखो, वहाँ कुछ भी चीज न मिलेगी। यह सब इंद्रजालवत् है।
बल की विनश्वरता― बल की बात भी क्या है? यह शरीर का बल। यद्यपि यह बल भी आत्मा के कुछ बल का क्षयोपशम हुए बिना नहीं होता। लेकिन शरीरबल से आत्मबल का अनुपात न निकालना। भैंसा 80 मन का वजन खींच दे इतना बलिष्ट होता है। 10 मनुष्यों को खींचकर ले जाय उसके गले में रस्सी पड़ी हो तो इतना बलवान भैंसा होता है और 8 वर्ष का बालक उसे हाँके, टिटकारे, मारे पीटे, जहाँ चाहे ले जाय। तो उस भैंसे में आत्मबल कहाँ है? इस 8 वर्ष के बालक में आत्मबल है जो ऐसे बलिष्ट भैंसे को भी जहाँ चाहे ले जाता है। यह बल भी क्या है, यह बल भी प्रतिक्षण विनश्वर है। जो व्यतीत हो गया वह पुन: लौटकर नहीं आता।
विनश्वरों की प्रीति से हटकर― कांति और सुंदरता ये दोनों भी विनाशीक हैं। आकार प्रकार सुहावना होना सो तो सुंदरता है और वहाँ दीप्त होना सो लावण्य है। ये दोनों ही विनश्वर हैं। जो व्यतीत होता है वह पुन: लौटकर नहीं आता। यह प्राणी व्यर्थ ही विनश्वर वैभव की आशा लगाये रहता है। हे आत्मन् ! तू इन सबको विनश्वर जानकर इनकी आशा मत कर। इनमें अपेक्षा करके अविनाशी सहज निज अंतस्तत्त्व की उपासना कर। मैं ज्ञानानंदस्वरूपमात्र हूँ, इस भावना में ही लीन रहा कर।