ज्ञानार्णव - श्लोक 903: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
ये याता यांति यास्यंति यमिन: पदमव्ययम्।
समाराध्यैव ते नूनं रत्नत्रयमखंडितम्।।
रत्नत्रय में अव्ययपदलाभ की कारणता- निश्चय करके इस रत्नत्रय से परिपूर्ण होकर संयमी मुनि पूर्वकाल में मोक्ष गए हैं, वर्तमान में जाते हैं और भविष्य में जायेंगे। मोक्ष नाम है निराकुल दशा का। जहाँ रंच भी आकुलता नहीं है उसका नाम है मोक्ष। अब सोचिये- हम आपको जो यह शरीर मिला है यह क्या निराकुलता का स्थान है? सारी आकुलताएँ इस शरीर के कारण ही लगी हुई हैं। प्रथम तो इस जीव को इस शरीर में मोह उत्पन्न होता है, यह शरीर मैं हूँ इसको ही लक्ष्य में लेकर मैं माना जा रहा है तब इसका साधन बनाने के लिए यत्न करेंगे। पर, कोई परपदार्थ इसके अधीन है नहीं, प्रत्येक पदार्थ की परिणति अपने आपमें है, तो परपदार्थ में अनुकूल परिणमन न देखकर आकुलित तो होंगे ही। जब इस शरीर को माना कि यह मैं हूँ तो फिर यह भाव बनेगा कि मैं इस जगत में श्रेष्ठ कहलाऊँ। अरे किसकी निगाह में तुम श्रेष्ठ बनना चाहते हो? सभी जीवों जो संसार में दिख रहे हैं, ये सब कर्मों के प्रेरे हैं, इस शरीर का भार लादे हैं, कुछ समय बाद ये सब यहाँ से विदा हो जायेंगे। किनसे यहाँ बड़प्पन चाहते हो? ये जो सम्मान अपमान की बातें यहाँ चल रही हैं इनसे अनेक प्रकार के मानसिक क्लेश उत्पन्न होते हैं। इस शरीर के कारण क्षुधा, तृषा, ठंड, गर्मी आदि अनेक प्रकार के क्लेश चलते रहते हैं। यह शरीर जिसको यह जीव सर्वस्व मानता है इस ही के कारण यहाँ के सारे क्लेश हैं, और जब यह शरीर मिला है तो इसका वियोग अवश्य होगा। जब वियोग होगा तब इसके क्लेश अधिक होता है। यों ही यहाँ के सारे प्राप्त समागमों का विछोह अवश्य होगा। उनमें ममता का परिणाम बसाने से अंत में विछोह के समय बड़ा क्लेश होगा। यहाँ कौनसी सारभूत चीज है सो तो बतावो। सारभूत चीज है केवल रत्नत्रय का अखंड परिपालन। अपने आपके श्रद्धान में कभी भी दोष न जगे, यह श्रद्धान पूर्ण दृढ़ रहे, मैं शरीर से भी न्यारा, कर्मों से भी न्यारा, रागद्वेष विकारों से भी न्यारा एक ज्ञानज्योतिस्वरूप हूँ। ऐसा श्रद्धान इसका दृढ़ रहे तो इसे शांति का पथ मिलेगा। यही धर्मपालन है। लोग धर्मपालन के लिए बड़े-बड़े कष्ट सहते हैं, बड़े-बड़े खर्च करते हैं, पर अपने आपका सही श्रद्धान बनाये बिना धर्म नहीं हो सकता। अपने आपका ऐसा ध्यान बनना चाहिए कि मैं सबसे न्यारा केवल ज्ञानानंदस्वरूप हूँ, जब मेरा स्वभाव आनंद है तो परवस्तुवों से मेरा क्या प्रयोजन? मैं स्वयं ही आनंदघन हूँ, एक रागद्वेष करके हमने अपने आनंद का घात किया है। ऐसा रागद्वेष आज ही मिटे तो वही परिपूर्ण आनंद हमारे पास है, ऐसा अखंड सम्यग्दर्शन बने और फिर इस ही की जानकारी के लिए चित्त चाहे। मुझे अन्य पदार्थ की जानकारी बनाये रहने से कुछ न मिलेगा। मैं अपने आपके स्वरूप की जानकारी निरंतर बनाये रहूँ तो मेरे कर्म कटेंगे, मोक्ष का लाभ होगा। धर्मपालन मोह के त्यागने से शुद्ध ज्ञानरूप अनुभव करने से हुआ करता है। संयमी मुनि जितने भी अब तक मोक्ष गए हैं और जा रहे हैं और भविष्य में जायेंगे वह सब रत्नत्रय का प्रताप है। अपने आपको ज्ञानानंदस्वरूप अनुभव किया जाय, ऐसा ही अपनी ज्ञानदृष्टि में लिया जाय और परपदार्थ में कुछ परिणति न करके केवल ऐसा अनुभव करने में लग जाय, यही है रत्नत्रय का पालन, इसके प्रताप से ही समस्त संकट दूर होते हैं।