वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 904
From जैनकोष
साक्षादिदमनासाद्य जन्मकोटिशतैरपि।
दृश्यते न हि केनापि मुक्ति श्रीमुखपंकजम्।।
रत्नत्रयलाभ बिना मुक्तिलाभ की नितांत असंभवता- इस रत्नत्रय को प्राप्त न होकर जीव करोड़ों जन्म धारण करने पर भी मुक्ति को प्राप्त नहीं होता। जैसे जिस कलपुर्जे से जो इंजन चलता वह उसी पुर्जे से चलेगा, अन्य पुर्जे से वह इंजन नहीं चल सकता। इसी प्रकार जिस कार्य की जो विधि है वह कार्य उसी विधि से होगा अन्य विधि से न होगा। मोक्ष किसे होना है इसका पहिले श्रद्धान तो करें। मोक्ष होना है आत्मा को, मोक्ष होना है कर्मों के बंधन से। मोक्ष कहते हैं छुटकारा अर्थात् छुट्टी पा जाने को। जैसे स्कूल में 4 बजे जब बच्चे छुट्टी पाते हैं तो कितना उछलते-कूदते, हँसते-खेलते हुए वहाँ से अपना पाटी बस्ता लेकर भागते हैं। तो वह किस बात की उन्हें खुशी हुई? कुछ खाने पीने को उन्हें मिल गया क्या? अरे उन्हें छुट्टी मिल गई स्कूली कामों से इस बात की उन्हें खुशी है, इसी प्रकार समझ लो अभी यह आत्मा कर्मों के विकट बंधन में है। जिस काल में यह आत्मा इन कर्मबंधनों से छूट जाएगा अर्थात् इन कर्मों से छुटकारा मिल जायगा उस काल में यह आत्मा मुक्त हो जायगा। तो किसे छुटकारा चाहिए, किससे छुटकारा चाहिए, इस बात का पहिले यथार्थ बोध होना चाहिए। आत्मा क्या चीज है, कर्म क्या चीज है इसका पहिले निर्णय करें। ये कर्म नोकर्म पौद्गलिक हैं, बंधनरूप हैं, अचेतन हैं और जिसे छुटकारा दिलाना है वह मैं आत्मा चेतन हूँ, केवल ज्ञानानंदस्वरूप हूँ। मेरे स्वभाव में सर्व परपदार्थ छूटे हुए हैं। बाह्यपदार्थ कोई भी मेरे स्वभाव में नहीं पड़ा है। यदि मेरे स्वभाव में ये विकार अथवा ये बाह्यपदार्थ पड़े होते तो करोड़ों यत्न करने पर भी छूट नहीं सकते थे। ये सब औपाधिक हैं, मायारूप हैं, इनसे भिन्न अपने को निरखें तो अवश्य इनसे छुट्टी मिलेगी। जैसे कोई पुरुष किसी दुष्ट मित्र से फंस गया हो, उससे यदि छुटकारा पाना है तो पहिला तो यह कर्तव्य है कि दुष्ट मित्र की सारी दुष्टता का परिचय कर लें, क्या क्या छल किया करता है, उस परिचय से उसकी उपेक्षा हो जायगी। किसी की दोस्ती भंग करने का उपाय है उपेक्षा कर देना, उससे बोलचाल न रखना, अपने कार्य से प्रयोजन रखना, स्नेह न रखना। हमें इन कर्मों से और शरीर से छूटना है तो पहिले हम यह समझें कि मेरा सर्वस्व केवल ज्ञानमात्र है और यह कर्मों से, शरीर से छूटा हुआ है। यों सर्व विविक्त ज्ञानमात्र अपने आपकी श्रद्धा हो तो नियम से शरीर से छुटकारा कभी न कभी हो ही जायगा। अपने को ऐसा अनुभव करना चाहिए परिवार के बीच रहकर भी, वैभव के बीच रहकर भी कि मैं इस परिवार और वैभव से न्यारा केवल एक ज्ञानरूप सत्पदार्थ हूँ, ऐसा अनुभव बने तो यह बहुत ऊँचा तपश्चरण हैं। अपना ज्ञान सही रहे, विषयकषायों को न चाहे तो यह एक बहुत ऊँचा आंतरिक तपश्चरण है। आत्मा का परिचय इस ही तपश्चरण से होता है।