ज्ञानार्णव - श्लोक 909: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
आत्मैव मम विज्ञानं दृग्वृत्तं चेति निश्चय:।
मत्त: सर्वेऽप्यमी भावा बाह्या: संयोगलक्षणा:।।
ज्ञानी का निश्चय- मेरा आत्मा ही विज्ञान है, आत्मा ही दर्शन है, आत्मा ही चारित्र है ऐसा मेरा निश्चय है। इसके अतिरिक्त अन्य समस्त ये सब भाव बाह्य हैं और संयोगस्वरूप हैं। जिसे हटना है, जिससे हटना है, उन दोनों का यथार्थस्वरूप कोई जाने तब वह हट सकता है। कोई बाहर में ही सोचे कि मुझे इस घर से हटना है, इनके नियंत्रण से हटना है, इस शरीर से हटना है, यहाँ तक भी कोई पर से हटने की बात सोचे तो उसे वह झलक नहीं मिल सकती, वह भेदविज्ञान नहीं मिलता जिसके प्रताप से मुक्ति होती है, ये भी परतत्त्व है, परपदार्थ है, इनसे भी न्यारा होना है लेकिन साक्षात् भेदविज्ञान तो अपने स्वभाव और औपाधिक विकारों के बीच करना है। भेदविज्ञान जगे तो ये सब भेदविज्ञान होंगे ही। पर बाह्य के इन आकार वाले पदार्थों से हम अपने को भिन्न निरख लें उसके साथ नियम नहीं है कि अपने शुद्धस्वरूप को यथार्थ भिन्न परख सकूँ। मैं घर वैभव से न्यारा हूँ ऐसा भेद करके भी कोर्इ यह समझ सकता है कि में तो यह हूँ, जो यह शरीर है और मैं तो यह हूँ जो ऐसी पोजीशन बनाता हैं, ऐसा मौज लेता है। जैसा परिणमन है उस परिणमनरूप अपने को मानते हुए घर मकान से भी न्यारा समझ सकता है, लेकिन भेदविज्ञान नहीं जगा। यों तो अनेक लोग द्वेषवश होकर घर भी छोड़ देते हैं, घर से भाग जाते हैं तो क्या वह भेदविज्ञान की बात हुई? अरे भेदविज्ञान की बात तो तब हो जब सर्व से विविक्त अपने आत्मतत्त्व को निरख ले। इस आत्मतत्त्व का परिचय होने पर फिर अंतरंग से कोई आकांक्षा नहीं रहती है। सबसे बेढंगी आकांक्षा मन वाले जीवों में लोकयश की हुआ करती है। लेकिन जिसे ऐसे विशुद्ध निज अंतस्तत्त्व का परिचय होता है वह ऐसी बेढंगी अटपट आकांक्षाएँ नहीं करता है। क्या होगा यश से? यह तो स्वप्नवत् बात है। किन्हीं स्वार्थी लोगों ने प्रशंसा कर दी तो उससे इस आत्मा को क्या लाभ मिलता है? वह आत्मपरिचयी पुरुष समझता है कि मैने यदि अपने अंतस्तत्त्व से विलग होकर बाह्य में यश की चाह की तो इसके फल में क्लेश भोगना होगा। ये जगत के कोई भी मनुष्य मेरे साथी नहीं हो सकते। जिस अपने शुद्ध स्वरूप का परिचय हुआ है वह बेढंगी आकांक्षाएँ नहीं करता है। ये सब केवल संयोगरूप है।
इच्छादिकों की संयोगलक्षणता होने से बाह्यरूपता- जैसे चूल्हे पर बटलोही चढ़ा दिया तो पानी गरम हो गया। यदि यह पूछा जाय कि पानी में जो गर्मी है वह संयोगरूप है या तादात्म्यरूप है तो अब- देखिये इसका उत्तर। एक दृष्टि से तो यह उत्तर मिलेगा कि पानी में स्पर्श गुण है और वह गुण इस समय गर्मी रूप भी है, वह गरम जल का तादात्म्य रखता है लेकिन जब दृष्टि से निरखते हैं तो यदि यह गर्मी जल में तादात्म्यरूप हो तो जल तब भी है और जब तक रहे तब तक यह गर्मी रहना चाहिए, और, चूंकि जल में यह गर्मी अग्नि का संयोग पाकर हुई है अतएव गर्मी का जल में संयोग है तादात्मय नहीं है। यद्यपि दोनों दृष्टियों से दोनों बातें निरखी जा सकती है फिर भी रुचि भेद से क्या समझना चाहिए, यह उनकी अलग-अलग बात बन जाती है। जैसे जो स्वर्ण का शुद्ध स्वरूप जानता है वह किसी मलिन गहने को कसौटी पर कसकर समझ तो सही जाता है, इसमें यह है स्वर्ण, इतनी मलिनता है, एक यों बोलता है, और जिसे शुद्ध स्वर्ण की रुचि तीव्र है और उसके ही मन में एक आस्था तीव्र बनी हुई है तो वह उसे कसकर शीघ्र यह कह देगा कि यह क्या पीतल लाये हो? इसी प्रकार जिस ज्ञानी को आत्मा के उस शुद्ध ज्ञानस्वरूप में तीव्र रुचि जगी है वह पुरुष ही क्रोधादिक कषायों को जो कि एक दृष्टि से देखने पर जीव में तादात्म्य रूप से रह रहे हैं फिर भी वह एकदम कह देगा कि ये सब तो परभाव हैं। इनका मुझमें संयोगमात्र है इसका तादात्म्य नहीं है। क्या क्रोधादिक विकारों का आत्मा में तादात्म्य नहीं है? एक दृष्टि से तादात्म्य है, जीव के जीवत्व में ही वे क्रोधादिक परिणमन हैं पर एक दृष्टि से चूंकि वे जीव के साथ सदैव नहीं रहते हैं और कर्मरूप परद्रव्यों का निमित्त पाकर होते हैं इस कारण जीव में नहीं हैं, ये संयोगभाव हैं, ऐसी ही दृष्टि को रखकर समयसार जीव अजीवाधिकार में बहुत विस्तार के साथ आचार्यदेव ने खूब बताया है शरीर मैं नहीं, कषायें मैं नहीं, यहाँ तक कि संयोग के स्थान मैं नहीं, विशुद्धि का स्थान भी मैं नहीं, अध्यात्म स्थान भी मैं नहीं, उन सबको अजीव ठहराया है, जीव तो यह मैं एक शुद्ध ज्ञानभाव हूँ।
आत्मतत्त्व का परमार्थ स्वरूप- समयसार में जहाँ ज्ञायक आत्मा का लक्षण पूछा कि आत्मा का शुद्ध स्वरूप क्या है? तो कहा गया कि आत्मा न प्रमादसहित है, न प्रमादरहित है, न कषायसहित है, न कषायरहित है किंतु वह तो वही है जो ज्ञात होता है। जिसे यदि व्यवहारभाषा में कहते हैं तो वह तो ज्ञातामात्र है, ज्ञायकस्वरूप है, आत्मा के शुद्धस्वरूप पर कितनी अभिरुचि है ऐसी दृष्टि रहने वाले की अन्यथा जब कोई सुनेगा कि यह कह रहे हैं कि आत्मा न तो कषायसहित है और न कषायरहित है तो एकदम शंका दौड़ उठेगी कि कषायसहित नहीं है यह तो ठीक है पर कषायरहित भी नहीं है यह तो ठीक नहीं है। आत्मा को कषायरहित है लेकिन किसी भी वस्तु के स्वरूप को समझना हो तो विधिपूर्वक ही समझा जायगा, निषेधपूर्वक नहीं। आत्मा कषायरहित है ऐसा यदि निर्णय करते हो तो कषायरहित तो अनेक चीजें हो सकती है। पुद्गल कषायरहित हैं, धर्म, अधर्म, आकाश, काल आदि भी कषायरहित हैं, उससे जीव की क्या पहिचान हुई? जैसे किसी पुरुष की पहिचान करना हो और परिचय देने वाला निषेध निषेध की बात कहे, यह मामा भी नहीं, फूफा भी नहीं, व्यापारी भी नहीं, यों अनेक बातों को मना करता रहे तो मना मना करते रहने से उस पुरुष का परिचय नहीं हो पाया। यद्यपि वे भी परिचय के साधक हैं, मगर सीधा परिचय नहीं होता। तो आत्मा न कषायसहित है और न कषायरहित है किंतु वह तो जो ज्ञात हो सो ही है अथवा कह लीजिए कि वह ज्ञानमात्र है। अब इस संबंध में कुछ और दृष्टि से भी विचारिये। आत्मा कषायसहित तो है ही नहीं, पर कषायरहित यदि कह दिया जाय तो इसमें यह भाव आया कि पहले आत्मा में कषायें थी और अब दूर हो गयी। तो जब कषायें थी तब का आत्मा तो टूट गया ना इस ज्ञानधारा में। तो ऐसा खंडित आत्मा नहीं है। आत्मा केवल ज्ञानमात्र है। तो मेरा आत्मा ज्ञानरूप है, दर्शनरूप है, यह एक स्वच्छस्वरूप है चारित्र है तो उसका निश्चय है, ऐसी सब बातें मुझमें बाह्य हैं, संयोगरूप हैं, ऐसा अनुभव करने से फिर रत्नत्रय में और आत्मा में कोई भेद नहीं रहता है, वह रत्नत्रय जिसके प्रकट हो वह आत्मा के ध्यान का पात्र है।