वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 908
From जैनकोष
स्वज्ञानादेव मुक्ति: स्याज्जंमबंधस्ततोऽंयथा।
एतदेव जिनोद्दिष्टं सर्वस्वं बंधमोक्षयो:।।
बंध मोक्ष का सर्वस्व मर्म- आत्मा के ज्ञान से ही मुक्ति होती है और आत्मा में ज्ञान बिना संसार का बंधन होता है। जिनेंद्रदेव ने बंध और मोक्ष के संबंध में यह सर्वस्व प्रतिपादित किया है। मुक्ति का अर्थ है छूटना। छूटकर क्या बना जायगा और छूटना किसे है, और छुड़ाना क्या है, ये तीन बातें जिनके स्पष्ट रहती हैं उन्हें ही मुक्तिमार्ग की सिद्धि होती है। छूटना किसे है? एक ज्ञानस्वरूप अहं प्रत्ययबोध इस सत् को छूटना है। किससे छूटना है? इस ज्ञानमात्र मुझ आत्मा को अपने ही सत्त्व के कारण सहज जो भी बात इसमें हुआ करती है, उससे अतिरिक्त उससे विलक्षण जितने भी भाव हैं, विभाव हैं, विकार हैं उनसे छूटना है। छूटकर स्थिति क्या बनेगी? एक स्वच्छ ज्ञानप्रकाशरूप परिणमन रहेगा। इन तीन का निर्णय बसा हो तो मुक्ति का मर्म जान सकते हैं। यह बात अन्य लौकिक स्थितियों की भी है। लोकव्यवहार में भी जब छूटना कहा जाय तो उसमें भी ये तीन बातें निहित रहती हैं। छूटना किसे है, छूटना किससे है और छूटकर स्थिति क्या बनेगी? जैसे कोर्इ विद्यार्थी स्कूल से छुट्टी पाकर खुश होता है तो उसमें भी यही तीन बातें गर्भित हैं। छूटना किसे है? उस विद्यार्थी को। छूटना किससे है? उस स्कूल के कार्यों से और छूटकर स्थिति क्या होगी? स्कूल के सारे बखेड़ों से अलग होकर खेलेंगे, कूदेंगे, घूमेंगे। यही बात जेल से छुट्टी पाने वाले की है। जेल से छूटना किसे है? जो जेल में बंद है उसे। छूटना किससे है? जेल के सारे दंदफंदों से। छूटकर स्थिति क्या बनेगी? जेल के सारे कष्टों से छुट्टी मिल जायगी। तो इसी प्रकार से मुक्ति का मर्म जो जानते हैं उन्हें भी इन तीन बातों का निर्णय होता है। यह मुक्ति किसे प्राप्त होगी? आत्मा को। किससे मुक्ति प्राप्त होगी? सर्व कर्मजालों से। स्थिति क्या होगी? जैसा स्वयं आनंदस्वरूप है वैसा प्रकट हो जायगा। जो व्यक्ति मुक्ति का मर्म जानते हैं उन्हें यह अंत: प्रतीति रहती है कि यह मुक्ति तो आत्मज्ञान से ही बनेगी। आत्मज्ञान न बनने के कारण ही इस संसार में आवागमन का चक्र लगा हुआ है। जो अपने मुक्त स्वरूप को नहीं समझ सकते उनकी दृष्टि परपदार्थों में पहुंचेगी और उसके फल में इस संसार में जन्ममरण के क्लेश सहन करने होंगे। आत्मज्ञान से ही मुक्ति होती है और आत्मज्ञान के बिना इस संसार का बंधन होता है ऐसा जिनेंद्रदेव ने बँध मोक्ष के स्वरूप में मौलिक बात बताया है।