ज्ञानार्णव - श्लोक 910: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
अयमात्मैव सिद्धात्मा स्वशक्त्याऽपेक्षया स्वयम्।
व्यक्तीभवति सद्धयानवह्निनाऽत्यंतसाधित:।।
ध्यानाग्नि से साधित होने पर आत्मा के सिद्धात्मत्व की व्यक्ति- यह आत्मा संसार अवस्था में भी अपनी शक्ति की अपेक्षा से सिद्ध स्वरूप है। सिद्ध का स्वरूप जैसा कि गतिरहित, इंद्रियरहित, कषायरहित, योगरहित, वेदरहित, कषायरहित, केवल ज्ञानमय जैसा व्यक्त है वैसा होता है। हम आप संसारी जीवों में भी वह शक्ति है, अत: शक्ति की अपेक्षा से यह संसार अवस्था में भी सिद्धस्वरूप है। और समीचीन ध्यानरूपी अग्नि से उसकी साधना की जाय तो व्यक्तरूप सिद्ध होता है। जैसे जो स्वर्ण की खान हैं उन खानों में स्वर्ण मौजूद है अपने ढंग से शक्तिरूप मौजूद है। जब उस मिट्टी को भट्टी में डालते हैं या और और उपायों से उसे पोंछते हैं तो उसमें स्वर्ण व्यक्त हो जाता है इसी प्रकार कर्म और शरीर के बंधन में पड़ा हुआ यह संसारी जीव है तो भी इसमें शक्ति सिद्ध के समान ही है। यदि स्वयं अपने आपमें वह गुण न होता तो अनेक उपाय किए जाने पर भी वह गुण प्रकट नहीं हो सकता। जैसे गेहुँवों में चने के पेड़ होने की शक्ति नहीं है तो कितने ही उपाय किये जायें पर गेहूँ बोकर चने के अंकुर उत्पन्न नहीं किए जा सकते। तो इन समस्त आत्मावों में वही शक्ति है जो सिद्धप्रभु में है और इतना ही नहीं अभव्य जीव भी हो तो भी शक्ति उसमें वही है जो सिद्ध में है। शक्ति के व्यक्त होने को योग्यता नहीं है। तो सिद्ध स्वरूप ही ये समस्त संसारी जीव शक्ति अपेक्षा हैं और जब अष्टकर्म का विनाश होता है तो व्यक्त रूप में सिद्ध परमात्मा हो जाता है।