वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 911
From जैनकोष
एतदेव परं तत्त्वं ज्ञानमेतद्धि शाश्वतम्।
अतोऽन्यो य: श्रुतस्कंध: स तदर्थं प्रपंचित:।।
समस्त श्रुताध्ययन का प्रयोजन ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व का परिचय- यह आत्मा ही परमतत्त्व है, यही शाश्वत ज्ञान है और जितने भी श्रुत हैं, द्वादशांग शास्त्र हैं समस्त शास्त्ररूप रचना इस आत्मा को ही जानने के लिए विस्तृत हुई है। जैसे लौकिक विद्यावों का सीखना एक आजीविका के लिए और आसपास के जनसमूह में कुछ प्रशंसा बने केवल इसके लिए है, और जिसे ये दोनों बातें प्राप्त हो जायें तो वह भी अनुभव करता, और लोग भी कहते हैं कि विद्या का अच्छा लाभ उठाया। उस स्थिति पर पहुँचने पर फिर लौकिक विद्या के सीखने की जरूरत नहीं रहती। उसका फल ही पा लिया। ऐसे ही जितने भी शास्त्राभ्यास है, ज्ञानार्जन हैं, शास्त्रों का स्वाध्याय है ये सब एक आत्मतत्त्व को जानने के लिए ही है। इससे आगे और कुछ फल नहीं चाहता। फिर तो इस आत्मज्ञान के प्रताप से उसका फल जो निर्वाण है उसकी प्राप्ति होगी। तो यह ही आत्मा एक तत्त्व है और यही शाश्वत ज्ञान समस्त शास्त्राभ्यासों का फल है। शास्त्र का ज्ञान शास्त्र की पंक्ति रटने के लिए नहीं है। इसी प्रकार शास्त्र का स्वाध्याय केवल नियमपालन के लिए नहीं है अथवा उसमें कुछ जानकारी कर ले नई बात में उससे दिल खुश होना इसके लिए भी नहीं है किंतु उस समस्त ज्ञान से इस आत्मतत्त्व का परिचय पा ले, अनुभव कर ले यह प्रयोजन होना चाहिए। और, शास्त्र के विषय में भी यह एक संक्षेप में बात है कि जीव और पुद्गल का स्वरूप विस्तार जान जाय और साथ ही यह समझ ले कि जीव और पुद्गल न्यारे-न्यारे तत्त्व हैं। पुद्गल से जीव जुदा है, इसके लिए शास्त्रज्ञान और भेदविज्ञान इस विशुद्ध सहज स्वरूप आत्मतत्त्व के अनुभव के लिए है यह बात पायी जाती है तो शास्त्र का फल पाया। यही एक सर्वोत्कृष्ट पुरुषार्थ है। यह सारा संसार स्वप्नवत् है, मायाजाल है, यहाँ केवल निज आत्मतत्त्व का ज्ञान बने, उसकी ही धुन बन जाय, वह ही चित्त में समा जाय, इसकी ओर ही झुकाव बना रहे ऐसी बात यदि बन सकती है तो भले ही लौकिक जन इसे मूर्ख कहें, अथवा यों कहें कि यह बड़े कष्टों में है पर वह तो निराकुलता का अनुभव किया करता है, यही आत्मतत्त्व का अनुभव सर्वोत्कृष्ट पुरुषार्थ है।