ज्ञानार्णव - श्लोक 963: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
यस्यैव कर्मणो नाशाज्जन्मदाह: प्रशाम्यति।
तच्चेभ्द्भुक्तिसमायातं सिद्धं तर्ह्यद्य वांछितम्।।963।।
किसी के द्वारा उपसर्ग होने पर कर्मनिर्जरण का अवसर जानकर वांछितसिद्धि का चिंतन― क्रोध कषाय के विजय के प्रकरण में यह भली भाँति बताया जा चुका कि अपने अविकार ज्ञानस्वभाव का स्मरण करके मुझमें क्रोध स्वभाव ही नहीं है, ऐसा केवल ज्ञातृत्व मात्र ध्यान में लाकर क्रोध के प्रसंगों में भी क्रोध पर विजय करना चाहिए। और, बाहर में कुछ विकल्प हो तो ऐसा विकल्प हो कि जिससे क्रोध के विजय के लिए उत्साह हो। जैसे किसी ने निंदा की तो क्या किया? अपना ही तो भाव बनाया, अपना ही तो परिणमन किया। कोर्इ पीटे तो क्या किया? उसने शरीर पर ही तो कुछ आक्रमण किया। मेरे आत्मा पर तो कुछ नहीं किया। कोई प्राण ले ले तब भी मेरे आत्मा का तो कुछ नहीं किया। ऐसा ठीक-ठीक भाव बनाकर क्रोध पर विजय करना चाहिए। और फिर देखिये है मुमुक्षु जो पहिले कर्म कमा आये हैं जिससे बंधन हुआ है, जो सत्ता में मौजूद हैं वे उदय में आकर दु:ख देने के हेतु बनेंगे। तो जो दु:ख देने के हेतुभूत कर्म हैं, यदि किसी उपाय से बहुत ही जल्दी वे कर्म आगे आये और हम समता परिणाम रखकर उनको निकाल दें तो यह तो हमारे लाभ की ही बात होगी। जिस कर्म के नष्ट होने से संसार में आताप नष्ट हो जाता है उस कर्म का उदय अगर अभी भोगने में आ गया तो भोगने का अर्थ है कर्म का विनाश होना। तो यह तो मेरा वांछित कार्य हुआ। मेरे लिए इष्ट कार्य हुआ, भली बात हुई। देखिये उदय का अर्थ है निकलना, जैसे कोई कहता है कि पुण्य के उदय से ऐसा वैभव मिला है तो उसका अर्थ यह होगा कि पुण्य के नाश से ऐसा वैभव मिला है इसे। पर इस नाश में यह फर्क है कि होकर नाश हो रहा। उदय होने के मायने निर्जरा है। जहाँ कर्म के 10 करणों का वर्णन आया है वहाँ उदय नाम नहीं लिया। वह तो निर्जरा में गर्भित है। पुण्य का उदय आया मायने पुण्य अब यहाँ से निकल रहा। तो जो पुण्य बसा हुआ है वह जब यहाँ से निकलता है तब पुण्य वैभव मिला। पुण्य कर्म की सत्ता के रहते हुए पुण्य वैभव नहीं मिला करता, किंतु पुण्य वैभव के निकालने से, दूर होने से यह वैभव मिलता है। इसी तरह पापकर्म का बंध हुआ, सत्ता में पड़े हैं तो पापकर्म इसकी सत्ता में हैं तो सत्ता मात्र से इसको क्लेश नहीं होता। किंतु वह कर्म जब निकलता है तो इसे क्लेश होता है। कोई क्लेश के दु:ख के कारण उपस्थित होते हैं तो जब उदीरणा हुई, कर्म खिरने लगे तो भला हुआ। जो कर्म मेरे साथ रहते, जिनसे कि मैं आगे तक परतंत्र रहता वे अभी ही निकल रहे हैं, यह मुझे इष्ट ही है। ऐसा यह ज्ञानी पुरुष चिंतन कर रहा है। उसका यह विचार है कि कर्मों का नाश तो करना ही था, तपश्चरण करके मैं जल्दी ही उन कर्मों को टालता, खिराता और वे ही कर्म किसी भी घटना में ये पहिले आ गए हैं, ये टल रहे हैं, दूर हो रहे हैं यह तो मेरे लिए इष्ट की सिद्धि कहलायी। किसी दूसरे प्राणी के प्रति विरोधभाव न हो, ईर्ष्याभाव न जगे, दूसरों को बरबाद करने का भाव न आये, ऐसी सम्हाल वह अपनी सम्हाल कहलायी। उसी संबंध में यह सब चिंतन चल रहा है।