वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 962
From जैनकोष
य: श्वभ्रान्मां समाकृष्य क्षिप्यत्मानमस्तधी:।
बधबंधनिमित्तेऽपि कस्तस्मै विप्रियं चरेत्।।962।।
उपसर्ग करने वालों के उपकार का चिंतन― कोई मूर्ख बध बंध आदिक का उपसर्ग देकर, क्रोध का निमित्त मिलाकर मुझे तो नरक जाने से बचाता है और पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा का कारण बनता है, और, अपने को नरक में ढकेलता है, बताओ उसके समान उपकारी कौन होगा? कोई पुरुष अपनी हानि सहकर क्या पर का उपकार करता है? वह तो उससे भी अधिक उपकारी हुआ जो अपने को नरक आदिक गतियों में ढकेलकर दूसरों को नरक आदिक गतियों से बचाता है। जैसे उपकार करने वाला पुरुष प्रशंसनीय है ऐसे ही निंदा करने वाला, दुर्वचन बोलने वाला भी मेरे लिए प्रशंसनीय है, क्योंकि वह अपना सारा बिगाड़ करके भी मुझे सावधान बना रहा है। उसके निंदा करने से, दुर्वचन बोलने से तो मेरे पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा हो रही है। मैं मोक्षमार्ग में अपने को प्रगति से लगा रहा हूँ। जो पुरुष अपनी हानि करके मुझे उत्तम पद में पहुँचा दे उसका ही हमें उपकार मानना चाहिए। उसके दुर्वचन बोलने से मेरा बिगाड़ कुछ नहीं है, मेरा कल्याण ही हो रहा है, मेरा मोक्षमार्ग ही चल रहा है। यों भले-भले वातावरण में रहकर मुझे क्रोध न आये, शांति बनी रहे तो उससे नियमित लाभ नहीं होता, किंतु वह मौज है, शांति नहीं है, अच्छे सुख के साधन मिलने पर शांति सी प्राप्त होती है उसे शांति न कहना चाहिए, वह तो मौज है, इंद्रियसुख है, हाँ प्रतिकूल वातावरण मिले, उपसर्ग परीषह आयें तिस पर भी मेरे में शांति रहे तो समझना चाहिए कि हमने अपने आपको कुछ बनाया है, कुछ कमाई की है। अब लो प्रतिकूल कारणों के मिलने पर भी मेरी शांति का विघात नहीं होता है, जब ऐसा उपसर्ग आता है कि जहाँ क्रोध बनना प्राकृतिक बन जायगा उस समय तो एक तत्त्वज्ञान तो जगता है ज्ञानी पुरुष के, उसके क्रोध नहीं आता और शांतिभाव बना रहता है। उसके सिलसिले में एक यह भी झलक दी गई है कि उपकार करने वाले का तो उपकार मानना चाहिए। जो अपना सारा बिगाड़ करके हमें सावधान बना रहा है उसका तो बहुत बड़ा उपकार मानना चाहिए। ऐसी भावना से ज्ञानी संत पुरुष क्रोध भाव पर विजय प्राप्त करते हैं और अपने को प्रशमभाव में बढ़ाकर मुक्ति के निकट अपने को बना लेते हैं। ऐसे पुरुषों को निकटकाल में ही मोक्ष प्राप्त होगा, इसमें कोई संदेह की बात नहीं है।