ज्ञानार्णव - श्लोक 984: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
इहाकीर्तिं समादत्ते मृतो यात्येव दुर्गतिम्।
मायाप्रपंचदोषेण जनोऽयं जिहीमताशय:।।984।।
मायाप्रपंच से इस लोक में अकीर्ति व पर लोक में दुर्गति― इस माया कषाय के दोष से खोटे अभिप्राय वाले मनुष्य इस लोक में तो अपयश को प्राप्त होते हैं और मृत्यु होने पर दुर्गति को प्राप्त होते हैं। मायाचारों की माया बहुत काल तक छिपी नहीं रहती। लोगों को कुछ न कुछ प्रकट हो जाती है। और माया प्रकट हुई एक बार कि बस उसका सारा यश धूल में मिल जाता है और उसका अपयश होता है। कपटी पुरुष से तो लोग बचकर रहा करते हैं, इससे अधिक संबंध न रखो, न जाने कब कैसी विपत्ति इससे आ जाय। तो मायावी पुरुषों को इस लोक में तो अपयश प्राप्त होता है और मरण करने पर उसे दुर्गति प्राप्त होती है। अपनी सृष्टि अपनी दृष्टि के आधार पर है। भीतर में जैसा भाव चल रहा है तत्काल भी वैसी सृष्टि होती रहती है और जो कर्मबंध हो रहा है उसके अनुसार आगे की सृष्टि भी इसकी चलेगी। तो जब हम केवल भाव के अधिकारी हैं, भावना ही कर पाते हैं, और कुछ तो कर ही नहीं सकते। बाकी यह तो भ्रम है कि मैं यह भी कर देता हूँ, मैं यह भी कर देता हूँ, मैं तो अपने आपमें भावना बनाता हूँ। जब भावना पर ही मेरा अधिकार है तो फिर ऐसा प्रयत्न करें कि अपनी शुद्ध भावनायें बनायें। ऐसा संग बनायें कि जिसमें शुद्ध भाव रहे, ऐसा अपना सहवास बनायें कि जिससे अपने खोटे भाव न बनें, अन्य समस्त बाह्य आलंबनों का त्याग करें। जिसमें हमारी भावना शुद्ध बने ऐसा ही करना हमें उचित है और उसमें ही हमें लाभ है। माया करके किसी को अगर ठग लिया तो उसे क्या ठगा? खुद को ठगा। उसका तो कोई थोड़ा ही नुकसान होगा, पर खुद का तो ऐसा कर्मबंध कर लिया किजिससे दुर्गति के पात्र बने। तो इस माया के फल में इस लोक में अपयश होता और मरने के बाद दुर्गति प्राप्त होती।