वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 985
From जैनकोष
छाद्यमानमपि प्राय: कुकर्म स्फुटति स्वयम्।
अलं मायाप्रपंचेन लोकद्वयविरोधिना।।985।।
छिपाने की कोशिश करने पर भी मायाचार की प्रकटता―मायाकषाय को करने वाला पुरुष अपनी माया की कितने ही ढंग से ढाकने की कोशिश करे, लेकिन उसका मायाचार स्वयं प्रकट हो जाता है। यह मायाचार इहलोक का और परलोक का दोनों का विरोधी है। दुनिया में अहित करने वाला है यह मायाचार, इस मायाचार को वश करना चाहिए।जैसे कोई किसी कपटधारी से ऊब जाय तो वह कहने लगता है कि बस करो, अब मुझे जरूरत नहीं है, ऐसा यह मायाप्रपंच जो सुहावना लग रहा है, जिसका अनुराग जग रहा है, लेकिन स्वयं दु:ख में पडा हैऔर दूसरों को दु:ख में डालता है ऐसे मायाचारी पुरुष से अपना कुछ प्रयोजन न रखें मायाचार कुछ दिन तक तो छुपा रह सकता है लेकिन कोई मायाचार की प्रकृति रखें तो वह छुप पाता और बल्कि उसी से स्वयं जाहिर हो जाता है। एक बार विद्यार्थी अवस्था में किसी ने किसी की चीज चुरा ली उसने अध्यापक से शिकायत की कि हमारी यह चीज गुम गई अध्यापक ने क्या किया कि एक अलग कमरे में एक डंडे में थोड़ा कपड़ा बाँधकर उसमें कोई दुर्गंधित तेल लगाकर सब लड़कों से कहा कि देखो तुम सभी विद्यार्थी बारी-बारी से इस डंडे को छूते जावो। जिस लड़के ने उस चीज को चुराया होगा उस लड़के का हाथ इस डंडे में चिपक जायगा, याने यह डंडा उस चोरी करने वाले का हाथ पकड़ लेगा। तो सभी विद्यार्थी बारी-बारी से आकर उस डंडे को छूने लगे। अध्यापक देख रहा था तो जिस विद्यार्थी ने उस चीज को चुराया था उसने उस डंडे को छुवा ही नहीं, यों ही डंडे के पास हाथ ले जाकर वापिस कर लिया। बस अध्यापक ने चोरी करने वाले को पकड़ लिया। और भी अनेक ऐसी घटनायें हैं जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह मायाचारी छिप नहीं सकती, कभी न कभी प्रकट हो जाती है।
मायाचार से मूढ़ होकर स्वयं के द्वारा भी मायाचार की प्रकटता― एक ऐसी ही कथानक है कि एक राजा अपने ही बाग में घूमता हुआ सेब के पेड़ के नीचे पहुँच गया। वहाँ गोबर से भिड़ा हुआ एक बड़ा ही सुंदर सेब नीचे पडा हुआ था, उसे राजा ने उठाकर पोंछ कर खा लिया, पर उसे वह शल्य लगी रही कि कहीं कोर्इ हमें इस तरह से खाता हुआ देख न ले। राजा लोगों को इस तरह से खाना शोभनीय थोड़े ही हैं, उन्हें तो सजी सजाई सुंदर थाली में विधिपूर्वक भोजन करना चाहिए। राजा महाराजाओं का जिस ढंग से भोजन करना योग्य है उस ढंग से भोजन करना चाहिए। खैर राजा अपने दरबार में आया, उसे कई दिनों तक यह शल्य लगी रही कि कहीं किसीने हमें सेब उठाकर खाते हुए देख तो नहीं लिया। वह अपनी इस बात को छिपाये हुए था, पर एक दिन हुआ क्या कि उस दरबार में एक नर्तकी नृत्य गायन कर रही थी। उसने बहुत से अच्छे-अच्छे गीत गाये, पर राजा ने कोई इनाम न दिया। एक बार नटनी ने ऐसा गीत गाया जिसकी टेक थी ‘‘कहि देहौं ललन की बतियाँ’’इस टेक को सुनकर राजा ने सोचा कि शायद इसने मुझे बागमें सेब उठाकर खाते हुए देख लिया है इसलिए कह रही है कि मैं ललन की उस बात को लोगों को बता दूँगी। सो इस बात को छिपाने के लिए उसने नर्तकी को एक गहना उतारकर दे दिया। उसका प्रयोजन व संकेत यह था कि मेरी उस बात को लोगों के सामने कहना नहीं, नहीं तो हमारी हँसी होगी। उधर नर्तकी ने सोचा कि मेरे इस गीत पर राजा बहुत प्रसन्न हुआ हैइसलिए बारबार वही गीत गाये ‘‘कहि देहौंललन की बतियाँ’’ राजा बार-बार अपना कोई न कोर्इ गहना उतारकर देता गया। सभी गहने उतर जाने के बाद भी जब उसने यही गाया तो राजा परेशान होकर झुंझलाकर कह उठा अरे जा, कह देगी तो कह दे, यही तो कहेगी कि राजा ने बगीचे में गोबर से भिड़ा हुआ सेब उठाकर खाया था। लो राजा की मायाचारी प्रकट हो गई। तो मायाचारी कोई कितनी ही करे, पर प्रकट हुए बिना नहीं रह सकती। आखिर सभी लोगों के पास ज्ञान है, समझ है पर सज्जनता वश कुछ कहते नहीं। इससे क्या, लेकिन अपने सुधार के लिए अपने हृदय को इतना सरल सीधा बनायें कि यहाँ मायाचार मत करें। क्या जरूरत पड़ी है मायाचार की। जब सारी संपदा मुझसे भिन्न है, और मेरे किसी काम आने की नहीं है, ये धन, संपदा, कुटुंब, परिवार ये सब भी मेरे काम आने के नहीं हैं अथवा इंद्रिय के विषय साधन ये आत्मा के काम तो क्या आये, उल्टा बरबादी के ही कारण बनते हैं। तब फिर मुझे क्या पड़ी है किसी बात के लिए मायाचारी करने की? ऐसा विवेक करके इस मायाचार को हृदय से निकाल दें।