नियमसार - गाथा 70: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
कायकिरियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती।
हिंसाइणियत्ती वा सरीरगुत्तित्ति णिद्दिट्ठा।।70।।
निश्चयकायगुप्ति―काय की क्रियावों की निवृत्ति होना, काय का व्युत्सर्ग होना कायगुप्ति है अथवा हिंसा आदिक सर्वपापों की निवृत्ति होना सो कायगुप्ति है। जैसे जब कभी आश्चर्य वाली बात जानने में आती है तो शरीर कैसा स्तब्ध हो जाता है, कैसा दृढ़ स्थिर हो जाता है, इसमें किसी प्रकार का भाव कारण पड़ता है। यों ही कायगुप्ति की सिद्धि में आत्मा में शुद्ध भावों का होना पहिला प्रमुख कारण है। बड़े-बड़े उपसर्गों में कायगुप्ति निभाने का यत्न होता है, तब कठिनता से कायगुप्ति सिद्ध होती है। जैसे एक साधु ने स्वयं बताया था कि मुझे कायगुप्ति यों नहीं हुई है कि मृतकासन से ध्यान करते हुए की स्थिति में किसी मंत्रसाधक ने हमारी इस खोपड़ी को मरी हुई खोपड़ी समझकर इस पर खिचड़ी पकायी थी। बहुत देर तक मैं सहता रहा, पर बाद में मेरा शरीर हिल गया। तो ऐसा कठिन जो कायगोपन है वह कायगोपन आत्मा में ज्ञानस्वभाव की दृष्टि की स्थिरता बिना होना कठिन है। जान बूझकर शरीर को कोई न हिलाये डुलाये, स्थिर रखे यह अस्थायी काम है और ऐसा करने पर भी कायगुप्ति का जो प्रयोजन है, निर्विकल्प तत्त्व की साधना है उससे तो वह दूर है। किंतु जब अंतरंग में भाव विशुद्धि हो, इस निष्क्रिय चित्स्वभाव की उपासना हो वहाँ जो कायगुप्ति बनती है वह मूल में हित का प्रसार करती हुई दृढ़ता से बनती है।
कायगुप्ति का विवरण―सभी लोगों के प्राय: कायसंबंधी बहुत सी क्रियाएं होती हैं। उठना बैठना हिलना संकेत करना अनेक कार्य होते हैं। खोटे प्रणिधान वाली और भले प्रणिधान वाली क्रियाएं होती है। उन सबकी निवृत्ति होना इस ही का नाम है कायोत्सर्ग। कायोत्सर्ग मायने त्याग के हैं। शरीर का त्याग क्या है कि क्रियावों की निवृत्ति होना और शरीर का लक्ष्य भी न रखना, मानो शरीर है ही नहीं। शरीर का कुछ ख्याल भी न रखना, केवल एक ज्ञानस्वरूप में अपना उपयोग रखे इसे परमार्थ से कायोत्सर्ग कहते हैं। कायोत्सर्ग जहां है वहाँ ही कायगुप्ति है। अथवा 5 प्रकार के स्थावर और त्रस, इन 6 काय के जीवों की हिंसा का सर्वथा त्याग होना सो कायगुप्ति है। यह आत्मा इस कायगुप्ति से सर्वथा भिन्न है। व्यवहारदृष्टि में यह आत्मा बंधन को प्राप्त है, परस्वरूप दृष्टि से पूर्ण बंधनरहित है। किंतु देखो हाय कितनी प्रकार के जीव यहाँ नजर आ रहे हैं? कैसी-कैसी कुयोनियां, कैसे-कैसे खोटे कुल नजर आ रहे हैं? ये सब काय की ओर दृष्टि रखने के फल हैं। अपने आत्मा की भावना से चिगकर शरीर में आत्मदृष्टि करने के फल हैं। जो महाभाग इस शरीर को अपने से भिन्न आत्मदृष्टि करने के फल हैं। जो महाभाग इस शरीर को अपने से भिन्न पहिचानकर इसके ख्याल और वासना का परित्याग करता है, अपने आपमें स्थिर होता है, आत्मस्वभाव में ही रुचि बढ़ाता है उस पुरुष के कायगुप्ति होती है। यह आत्मा स्वयं आनंदस्वरूप है, इसकी ओर प्रवृत्ति न करे, काय की ओर दृष्टि दे, प्रवृत्ति करे तो उसका फल यह है कि संसार के इन भवों में ही यह प्राणी भ्रमण करता रहता है।
आत्मा और काय में अंतर―भैया ! कितना अंतर है इस आत्मा में और काय में? आत्मा तो जाननहार वस्तु है और यह काय जड़ है। आत्मा तो भावात्मक मूर्त पदार्थ है और यह शरीरग्रहण विसर्गात्मक अमूर्त पदार्थ है। आत्मा तो ज्ञान ज्योतिर्मय होने से पवित्र है, सारे विश्व का ज्ञाता है, ज्ञानानंदस्वरूप है और यह काय हाड़ मांस रुधिर आदि अपवित्र वस्तुवों से निर्मित है। यह आत्मतत्त्व आनंदमय है, आनंद का कारण है और यह शरीर स्वयं तो सुख दु:ख का अनुभव कर ही नहीं सकता क्योंकि यह अचेतन है, लेकिन यह दूसरों के लिए दु:ख का ही कारण होता है। किसी बात में यह सुख भी मान ले तो यह उसकी कल्पना की बात है, आनंद है ऐसी बात नहीं है। इस शरीर के कारण भूख का कष्ट, प्यास का कष्ट, ठंडी गर्मी का कष्ट तथा और भी ऐसे व्यर्थ के कष्ट हैं जिनका कोई संबंध नहीं है और बना डाला है। जैसे अपमान का दु:ख।
अपमान के क्लेश में शरीर की कारणता―शरीर न हो तो यह अमूर्त आत्मा किस बात का अपमान माने? ये व्यवहारीजन इस मुझ अमूर्त आत्मतत्त्व को लक्ष्य में लेकर गाली गलौज नहीं देते, किंतु इस मूर्तिक शरीर को ही ध्यान में रखकर यह ही फलाने हैं ऐसा ध्यान देकर गालियां देते हैं, अपमान करते हैं। तब अपमान भी शरीर के कारण ही तो हुआ और भी अनेक मानसिक दु:ख होते हैं, जैसे कुटुंब की चिंता, वैभव की चिंता ये सब विडंबनाएं भी इस शरीर के संबंध के कारण होती हैं। शरीररहित अमूर्त केवल ज्ञानमात्र इस आत्मा को क्या विडंबना है? कहां अपमान हैं? जितने उपद्रव हैं, विडंबनाएं हैं ये इस शरीर के कारण हैं किंतु ये मोहीजन दु:ख के वास्तविक कारणों से इतना प्रेम करते है कि उसे ही अपना सर्वस्व मान लेते हैं।
आत्मस्वभावावलोकनवल―साधु संत जन किस बात पर शरीर से उपेक्षित रहते हैं? वह है बात एक आत्मस्वभाव के दर्शन की। जिससे इस शरीर से परम उपेक्षा हो जाती है। समाधिमरण में समाधि धारण करने वाले तीन प्रकार के पुरुष होते हैं। एक तो वे जो इस शरीर की दूसरों से सेवा नहीं कराते। उठना बैठना कुछ भी करना वे स्वयं ही करते हैं। एक तो ऐसे साधक होते हैं। एक ऐसे साधक होते हैं कि दूसरों से योग्य धर्मानुकूल वैयावृत्ति भी करा लेते हैं और एक ऐसे साधक होते हैं कि न शरीर की खुद सेवा करते हैं और न किसी दूसरे से करवाते हैं। एक मोटे लक्कड़ की भांति पड़े रहते हैं। इतनी उत्कृष्ट साधना किसके बल पर होती है?वह बल है आत्मतत्त्व के अनुभव का बल। इस शरीर से कुछ प्रयोजन ही नहीं है। ऐसी स्थिति साधुवों के योग्य होती है और साधुवों के उपासक गृहस्थों के भी ऐसी चाह रहा करती है। ऐसे अहितमय शरीर से परम उपेक्षा धारण करके स्थिर रहे, इसे कायगुप्ति कहते हैं।
योगीश्वरों की अंतर्वृत्ति―परम संयम के धारी योगीश्वर अपने ही वास्तविक शरीर को अपने वास्तविक शरीर के साथ जोड़ते हैं अर्थात् ज्ञानमय शरीर को ज्ञान में ही जोड़ते हैं, उनके निश्चयकायगुप्ति होती है। यद्यपि ज्ञान को शरीर की उपमा देना कोई भली बात नहीं है लेकिन शरीर का परिचय रखने वाले जीवों का प्रतिबोधन करने के लिए आत्मा के स्वरूप को शरीर की उपमा दी जाया करती है। शरीर का वाचक जो बौडी शब्द है वह शब्द बहुत व्यापक है, उसका प्रयोजन केवल शरीर से नहीं है किंतु जिस स्वरूप से वस्तु का निर्माण होता है उस स्वरूप का नाम बौडी है। ऐसी ही भावभासना रखकर यदि यह कहा जाय कि ज्ञान ही जिसका शरीर है तो उस शरीर का अर्थ स्वरूप लेना अथवा एक शब्द आता है कलेवर। वह शब्द शरीर और काय से भी व्यापक शब्द है। चाहे यों कहो कि बौडी का यदि कोई अन्वयार्थकपर्याय शब्द हो सकता है तो वह शब्द है कलेवर। जैसे लोग कहते हैं कि इसका कलेवर क्या है? इस मामले की जान क्या है? यों ही ज्ञान भी एक शरीर है परमार्थत:। उसमें ही अपने ज्ञान को जोड़ो, ज्ञानमात्र ही अपनी काय का उत्सर्ग कहा जाता है।
निश्चय कायगुप्ति―कायगुप्ति अंतरात्मा की अपरिस्पंद मूर्ति हो जाती है। वह योगरहित,, हलन चलन रहित हो जाता है। यहाँ उत्कृष्ट अयोग की बात नहीं कह रहे हैं, किंतु यहाँ वहाँ हिलना डुलना रूप जो स्थूल योग है इन सब परिस्पंदों से रहित उसकी मूर्ति है ऐसी स्थिति का नाम है निश्चयकायगुप्ति। कायोत्सर्ग कहो अथवा कायगुप्ति कहो दोनों का भाव प्राय: एक है। जो पुरुष शरीर की समस्त क्रियावों का परिहार कर देता है और शरीर की क्रियावों के कारणभूत अथवा भवभ्रमण के कारणभूत इन वैभवों का भी परिहार कर देता है उस पुरुष के निश्चयकायगुप्ति होती है। उसकी स्थिति अपने स्वरूप में स्थिर रहने की हो जाती है। जो अंतरात्मा अपने आपमें उत्पन्न होने वाले रागादिक भावों से पृथक् अथवा रागादिक भावों से नीचे तह में अंतर में अपने आपका अनुभव करते हैं, रागादिक भावों को नहीं छूते हैं अपने उपयोग से ऐसे महात्मावों के काय का उत्सर्ग कहा जाता है।
काय की परम उपेक्षारूप गुप्ति―भैया ! काय के त्याग का नाम कायोत्सर्ग नहीं, काय तो लगा है, इसे कहां छोड़ा जाय? यदि कोई आवेश में आकर इस शरीर का त्याग कर दे अर्थात् फांसी लगा ले, मर जाय या श्वास रोक ले, यों सोचकर कि इन समस्त पापों की जड़ यह शरीर है इसलिए शरीर को हटावो, तो उसकी स्थिति तो और भयंकर हो जायेगी, उसका असमय में मरण हुआ संक्लेश सहित मरण हुआ, अर्थात् अपने संयम पर अधिकार न पाकर अविवेक दशा में मरण हुआ तो वह आगे किसी कुयोनि में उत्पन्न होगा। वह क्या लाभ वहाँ उठा लेगा? इसलिए काय का परिहार नहीं करना है। किंतु इस काय से परम उपेक्षा ग्रहण करना है। यह काय ऐसी पृथक् जंचने लगे जैसी कि बाह्य वस्तुवें जँचती हैं।
कायगुप्ति का प्रयोजन निश्चयचारित्र―सुकुमार मुनीश्वर के शरीर को स्याल नोच-नोचकर खाते थे पर वे जरा भी विचलित नहीं हुए। क्या वे उन स्यालों को भगा नहीं सकते थे? जरासा खांस देने पर भाग जाया करते हैं, लेकिन उन्होंने अपने आत्मा के उत्तम ध्यान से च्युत होना उत्तम नहीं समझा। यह काय जाय तो जाय इससे इस आत्मा का कुछ भी बिगाड़ नहीं है, किंतु यह आत्मा कुछ भी नहीं है, किंतु यह आत्मा अपने स्वरूप से चिगकर किन्हीं बाह्य विकल्पों में उलझ जाय तो अनेक जन्मों में भटकना पड़ेगा, यह कितना बड़ा बिगाड़ है। उन मुनीश्वर ने इस काय से अपने को भिन्न जाना और अपने आपकी रक्षा की। सुकौशल मुनिराज का चारित्र देखो, गजकुमार मुनि का चारित्र देखो। सबको विदित ही है कि उनके सिर पर उनके ही स्वसुर ने अँगीठी जलायी थी क्योंकि विवाह होने के दो-एक दिन बाद ही वे साधु हो गये, किंतु उनके लिए तो जैसे बाहर अँगीठी जल रही है वैसे ही यह सर पर अँगीठी जल रही है। शरीर को उन्होंने अपनाया नहीं, ऐसी परम उपेक्षा धारण करने वाले साधु संतों के निश्चयकायगुप्ति होती है। मन, वचन, काय में सबसे आसान और परमार्थ में सुगमता कर ली जाने वाली गुप्ति कायगुप्ति है। लेकिन जब तक भावों की पूर्ण निर्मलता नहीं बनती तब तक कायगुप्ति का पूर्णरूप आ नहीं सकता है। इससे कायक्रियावों के कारणभूत विभावों का भी त्याग करें। जो व्यग्रतारहित आत्मस्वरूप में स्थित होता है उसके ही निश्चयकायगुप्ति कही गई है।
गुप्तिसाधना में मूलभावना―जितने भी अवगुण हैं उनके विजय का उपाय उन अवगुणों के विपरीत गुणों पर दृष्टि करना है। जैसे इंद्रिय विजय में जड़ द्रव्येंद्रिय का विजय चैतन्यस्वरूप की दृष्टि से होता है। मैं चैतन्यस्वरूप हूं, ये द्रव्येंद्रिय अचेतन हैं। खंडज्ञानरूप भावेंद्रिय का विजय अखंडज्ञानस्वरूप निज की प्रवृत्ति से होता है और संगरूप विषयों का विजय असंग आकिंचन निज अंतस्तत्त्व के अवलोकन से होता है, यों कायगुप्ति का विजय यह ज्ञानी संत इस भावना में कर रहा है कि मेरा तो अपरिस्पंद स्वरूप है, योगरहित स्वरूप है, निष्क्रिय धर्मद्रव्य की तरह जहां के तहां स्पंदरहित होकर अवस्थित रहना ही मेरा स्वरूप है। जैसे मेरे स्वरूप में ज्ञान दर्शन आनंद आदि गुण हैं तैसे मैं परिस्पंदरहित निष्क्रिय ज्ञानमात्र हूं। ऐसे इस योगरहित अंतस्तत्त्व के योग कहां से होगा? हलन चलन ही नहीं होता। यों भावना रखने वाले साधु के कायगुप्ति होती है और कायगुप्ति ही क्या तीनों गुप्तियां होती हैं।
योगरहित व योगसाधनरहित आत्मतत्त्व की भावना―ये समस्त योग मूल में तीन प्रकार के हैं―मनोयोग, वचनयोग, काययोग और इसके उत्तरभेद 15 प्रकार के हैं, चार मनोयोग हैं, सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग। वचनयोग हैं―सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग, अनुभयवचनयोग और औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रियक काययोग, वैक्रियक मिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारक मिश्रकाययोग और कामार्णकाययोग―ये 7 प्रकार के काययोग हैं। ये योग होते क्यों हैं? उन योगों की उत्पत्ति होने में कौनसा कर्मोदय कारण है? इस पर विचार करें तो यद्यपि सामान्यतया प्राय: सभी कर्मोदय सहायक होते हैं, फिर भी सामान्यतया योग के होने का कारण नामकर्म का उदय है। मन और काय ये दोनों शरीर के अंग हैं। मन से प्रयोजन द्रव्यकर्म का है और वचन सुस्वर अथवा दुस्वर नामकर्म के उदय से होते हैं। यों शरीर नामकर्म के उदय से काययोग हुआ, मनोयोग हुआ और स्वर नामकर्म के उदय से यह वचनयोग चलता है, इसके साथ-साथ विहायोगगति है, नाना प्रक्रियाएं हैं, इनके उदय का निमित्त पाकर ये योग हो जाया करते हैं। योग होना मेरा स्वभाव नहीं है, मैं अयोग हूं ऐसे अपने स्वभाव की भावना के बल से उनके गुप्ति में बहुत दृढ़ता आती है।
अष्टप्रवचन मातृका का प्रसाधन―यहाँ प्रकरण में तीन गुप्ति हैं, इससे पहिले 5 समितियों का वर्णन चला था। 5 समिति, 3 गुप्ति मिलकर अष्टप्रवचन मातृका कहलाती हैं। जैसे जीव की रक्षा में पुत्रादिक की रक्षा में माता का निश्छल अवलंबन होता है इसी प्रकार संसारसंकटों से बचकर आनंद पद में निवास करने में इन अष्टप्रवचन मातृकावों का बड़ा हस्तावलंबन है। जो जीव न भी विशेष ज्ञानी हो, किंतु प्रवचन मातृका का यथार्थ ज्ञान और आचरण करने वाला हो तो उसमें भी वही बल प्रकट होता है जिस बल के प्रकट होने से हमें समस्त द्वादशांग का ज्ञान हो जाता है और अंत में केवलज्ञान प्राप्त करके मुक्त हो जाता है।
व्यवहार का प्रयोजन―यह व्यवहारचारित्र का प्रकरण है, किंतु निश्चय की अपेक्षा छोड़कर कोरा व्यवहार करने से उस व्यवहारी को आत्मसंतोष न होगा, भले ही कल्पनाजन्य संतुष्टि हो जाय, पर परमार्थत: आत्मसंतोष न होगा और कर्मबंधन भी नहीं कट सकता। व्यवहार निश्चय की पात्रता बनाने के लिए हुआ करता है। व्यवहार ही सर्वस्व हो जाय, धर्म हो जाय ऐसा नहीं है। व्यवहार एक संकेत है, बाह्य प्रवर्तन है। लक्ष्य तो निश्चय का है। जैसे मां जब बच्चे को गोद में लेकर छत पर खड़ी होकर चंदा मामा को दिखाती है तो उस चंदा मामा को दिखाते हुए में वह क्या प्रयोग करती है? अंगुली से दिखाती है, बच्चा भी अंगुली को नहीं देखता है किंतु अंगुली के रास्ते से उस चंद्रमा को देखने का यत्न करता है। यदि वह अंगुली को ही देखता रहे तो चंद्र का क्या पता पड़ सकता है? ऐसे ही जितने व्यवहार ज्ञान हैं, व्यवहार आचरण हैं इन सबका लक्ष्य कोई निश्चय हुआ करता है। कोई उस संकेत को ही पकड़कर रह जाय तो उसे निश्चनय का अनुभव नहीं जग सकता है।
व्यवहार के आलंबन की पद्धति―कई वैद्यों की टोली किसी पहाड़ पर चली बूटियां तलाशने को। उनमें से एक प्रमुख है, वह एक सवा हाथ की लाठी लेकर लोगों को समझाता है―देखो एक जड़ी यह है, एक जड़ी यह है, उस समय उस जैसा मूढ़ कोई न होगा जो लाठी को ही ताकता रहे। वह लाठी जहां-जहां इशारा करती है उस-उस लक्ष्य को लोग देखते हैं, फिर हितमार्ग में भी सीधीसी बात है। व्यवहार में भी विवेकी लोग लक्ष्य छोड़कर व्यवहार पकड़ने की मूर्खता नहीं करते हैं, फिर व्यवहार वर्णन चलता है तो वहाँ व्यवहार को ही पकड़कर रह जायें ऐसा क्यों हो जाता है?यह सब मोह का प्रताप है। जैसे मां के द्वारा दिखाये जाने वाले चंदा को देखते समय यदि अंगुली का अवलंबन छोड़ दे तो भी काम नहीं बनता है, अथवा जैसे यह वैद्य अपनी लाठी का इशारा करके दिखाता है और कोई लाठी का भी अवलंबन अगर छोड़ दे तो वह तो पहिचान नहीं कर सकता, यदि उन दोनों व्यवहारों का आलंबन रखकर भी व्यवहार को छोड़कर आगे बढ़ने की प्रकृति उसमें पड़ी हुई है। ऐसे ही व्यवहार का आलंबन छोड़ दे तो काम नहीं बन सकता है। व्यवहार का आलंबन करता भी है ज्ञानी, फिर भी व्यवहार का आलंबन करता हुआ भी व्यवहार से आगे के लिए उन्मुख रहा करता है।
व्यवहार में रहकर भी व्यवहार से परे की दृष्टि―ऐसे साधनों के समय जिनका व्यवहार बढ़ जाता है जान बूझकर डटकर दृढ़ पकड़ना होता है ऐसी इसमें असहज वृत्ति तो व्यवहार को ही सर्वस्व मानने पर होती हे, किंतु जो निश्चयपथ का अनुगमन करना चाहते हैं उनको व्यवहार का आलंबन आगे बढ़ने के लिए होता है। जैसे नीचे से ऊपर यहाँ लोग आते हैं, किंतु इस जीने में कितनी सीढ़ियां हैं शायद किसी को मालूम नहीं होगा। आते हो रोज-रोज लेकिन किसी को पता हो तो बतावो। शायद किसी को न विदित होगा। आप सीढ़ियों से चढ़कर उनका आलंबन लेकर यहाँ तक आते हैं पर सीढ़ियों के आलंबन के समय भी क्या आपने किसी सीढ़ी से प्यार किया? क्या किसी ने कभी किसी सीढ़ी से कहा कि रे सीढ़ी ! तू बड़ी अच्छी है, हम तुम्हें नहीं छोड़ेंगे? अरे न छोड़ोगे तो पकड़े खड़े रहो। उन सीढ़ियों का ऊपर तक आने में आलंबन लिया जाता है। उनके आलंबन बिना हम आप ऊपर चढ़ नहीं पाते हैं। फिर भी उन सीढ़ियों से आंतरिक प्रेम किसी ने नहीं किया। जिस सीढ़ी पर पैर रख लिया उस सीढ़ी को आंखों से देखते भी नहीं, आगे की सीढ़ी को देखते हैं। ऐसे ही जो निश्चय तत्त्व के अभ्यासीजन हैं जिन्हें सुविदित है भली प्रकार की ऊपरी स्थान तो वह है जहां हम लोग कई बार जाते हैं, नि:शंक होकर सीढ़ियों का आलंबन करके उसका लक्ष्य रखकर ऊपर आ जाते हैं। यों ही निश्चयतत्त्व के अभ्यासी, अंतस्तत्त्व के रुचिया ज्ञानी पुरुष मार्ग में आये हुए व्यवहार का आलंबन करते हैं। उस आलंबन में भी निश्चय की ओर उन्मुखता होती है और निश्चय भावना में प्रवेश हो जाता है। इन अष्टप्रवचनमालिकावों का उन साधुवों के मार्मिक ज्ञान बना रहता है।
कल्याण का मूल भेदविज्ञान―एक साधु था। उन्होंने एक व्यक्ति को एक बात पढ़ा दी थी―मा तुष, मा रुष। इसका अर्थ है किसी भी पदार्थ में न संतोष करना और न रोष करना। वह न समझा ज्यादा, पर उसे याद कर लिया। जल्दी-जल्दी याद करते में उसकी तुषमाष ध्यान में रह गया माष के मायने हैं उड़द की दाल। इस ‘माष’शब्द में मूर्धन्य ‘ष’है। बहुत दिन के बाद जब वह व्यक्ति सड़क से जा रहा था तो एक महिला सड़क के किनारे बैठी हुई उड़द की दाल के छिलके निकाल रही थी। उसे बड़ा बनाना होगा। जब उसने देखा तो ज्ञान हो गया। ओह माष तुष, भिन्न-भिन्न जैसे यह उड़द का छिलका उड़द से बिल्कुल भिन्न है देखो रूप भी अलग है, यह छिलका काला है और दाल सफेद है तथा अलग भी हो रही है। इस ही तरह यह मैं आत्मा इस शरीर छिलके से अत्यंत भिन्न हूं―ऐसा वहाँ प्रतिबोध हुआ। जिसे समझ हो उसके लिए थोड़ी भी बात बहुत हैं और जिसे समझ नहीं है उसके लिए बहुत भी बकवाद व्यर्थ है। वक्ता हो अथवा श्रोता हो सबका लक्ष्य एक होना चाहिए कि मेरा कल्याण कैसे हो?
इस जगत् की असारता―यह मायामयी दुनिया जिसमें ये होने वाले सारे व्यवहार स्वप्नवत् असार हैं, यहाँ होने वाले इन व्यवहारों से मुझ आत्मा का कुछ भी पूरा न पड़ेगा। क्या है, आज मनुष्य है, पुण्योदय है, वैभव समागम है, कुटुंब का योग है, ये सारी बातें है और कल्पना करके खुश भी होते जा रहे हैं, किंतु क्या यह सदा रहेगा और जब तक साथ है तब तक भी सच तो बतावो इसके कारण तुम निरंतर शांत और सुखी रहते हो? सबकी अपनी-अपनी बातें न्यारी-न्यारी हैं, किसी को किसी तरह का क्लेश हैं, किसी को किसी तरह का क्लेश है, किसी को किसी तरह का विशाद है। इन समागमों में समागम के काल में भी आनंद नहीं है और जब समागम बिछुड़ेगा तब भी आनंद नहीं है, लेकिन मोही जीव इन समागमों को ही सर्व कुछ सर्वस्व जानता है, ओह मुझ जैसा पुण्यवान् कौन है? इतने मकान बना लिये हैं, वैभव बढ़ा लिया है, इतना कुटुंब बन गया है। मुझ समान पुण्योदय वाला कौन है? अरे यह नहीं जानते कि यों सब स्वप्नवत् हैं, असार हैं। बल्कि कल्पनाएं करके अपना बिगाड़ किए जा रहे हैं।
आत्मीय वैभव के अवलोकन का आनंद―अपने जो महापुरुष हुए जिनकी हम संतान हैं, उन महापुरुषों ने क्या किया था? उन्होंने धन संपदा में ही मरण नहीं किया था। कोई तो कुमार ब्रह्मचारी ही रहकर संन्यस्त हो गये थे और कोई कुछ थोड़ा घर में फंसकर अंत में त्याग कर साधु हो गये थे। उन्हें आनंद मिला निर्जन एकांत जंगल में, जहां दूसरा कोइ्र बात करने को भी नहीं था। खुद ही खुद से बात करते जाते थे और आनंदमय होते जाते थे। उस आत्मीय वैभव के अवलोकन में जो आनंद प्रकट होता है वह आनंद किसी भी विषय के प्रसंग में नहीं है। ऐसा जिसके दृढ़तम ज्ञान है ऐसा ही पुरुष इस आरंभ परिग्रह का त्याग करके सत्य शाश्वत आनंद का अनुभव किया करता है।
जैन प्रयोगों की सारता व निष्पक्षता―भैया ! सारे रूप बार-बार रक्खे जा सकते हैं किंतु यह साधुता रूप बार-बार नहीं रखा जा सकता है। एक बार रखा फिर उसका त्याग नहीं किया जा सकता क्योंकि साधुता के मिलने पर उसे ऐसा अतुल आनंद प्राप्त होता है कि वह फिर अन्यत्र कहीं जा ही नहीं सकता। जैसे कोई एक बार ही जैन मूर्तियों की मुद्रा का चाव से दर्शन कर ले अथवा जैन शास्त्रों का विधिवत् अध्ययन कर ले अथवा जैन गुरुवों का सहवास कर ले तो फिर वह वहीं का वहीं रह जायेगा, हट नहीं सकता। वहाँ से क्यों हटे? आखिर चाहिए तो आनंद ही ना। जब आनंद मिल गया फिर हटने की आवश्यकता क्या है? इसी कारण जो इस वीतराग धर्म के विद्वेषी होते हैं वे यह प्रचार कर डालते हैं कि चाहे मर जावो पर जैनदर्शन के निकट मत पहुंचों। इस पर विवेकी दृढ़तम उत्तर देते हैं कि क्यों न पहुंचे, जब कि जैन दर्शन खुले आम यह घोषणा करता है कि तुम सर्व दर्शनों की बात जानो, आत्मा की और अनात्मा की बात जानो। अरे तुम आत्महितैषी हो, तुम जहां हित जंचे वहाँ रम जावो। यों ही एक बार गृहस्थी का परित्याग करके साधुता अंगीकार की जाय तो फिर वह दूसरा रूप नहीं बदल सकता।
ब्रह्मगुलाल की साधुता―ब्रह्मगुलाल मुनि जो नाना भेष रखा करते थे उनसे एक बार किसी ब्रह्मगुलाल के द्वेषी ने ईर्ष्यावश राजा को यों समझाया कि महाराज जरा इससे सिंह का रूप तो रखावो। राजा ने कहा कि तुम कल सिंह का रूप रखकर आना। तो ब्रह्मगुलाल बोला, महाराज सिंह का रूप तो रख लूंगा, पर कहीं खून किसी का हो जाय तो माफ करना। हाँ-हाँ माफ। वह आया सिंह का रूप रखकर। वैसा ही शौर्य वैसा ही बल रखकर वह आया तो राजा के पुत्र ने उसे कुछ व्यंगात्मक शब्द कहे जैसे आ गया कुत्ता आदि तो उसके गुस्सा आया, जोश आया और पंजा मार दिया, वह राजपुत्र मर गया। सभा में हाहाकार मच गया, पर क्या किया जाय? राजा वचनबद्ध था। फिर उसी विद्वेषी ने राजा को सिखाया कि महाराज ! इससे मुनि का रूप दिखावो। राजा ने कहा कि हे ब्रह्मगुलाल ! तुम मुनि का रूप धरकर दिखावो, तो ब्रह्मगुलाल बोला कि इस रूप के तैयार करने में हमें 6 महीने लगेंगे। उसने 6 माह तक खूब ध्यान, मनन चिंतवन किया और 6 माह बाद दरबार के सामने से मुनि बनकर निकल गया। लोगों ने बहुत समझाया कि लौट आवो क्योंकि दरबार में आपका जैसा व्यक्ति मन को हरने वाला और कोई न मिलेगा तो ब्रह्मगुलाल मुनि ने कहा कि यह रूप एक बार रखकर फिर मिटाया नहीं जा सकता। इस व्यवहारचारित्र में जो लक्ष्य निश्चयचारित्र का रखता है वह साधुपुरुष धन्य हैं और ऐसे साधुपुरुषों की उपासना करने वाले श्रावकजन भी सराहनीय हैं।
अंतस्तत्त्व की साधना का फल―परमात्मतत्त्व के दर्शन में निरंतर मग्न रहने की धुन रखने वाला यह साधु पुरुष चिंतन कर रहा है कि मेरा स्वरूप तो योगरहित है, मैं अपरिस्पंद हूं और यह शरीर का परिस्पंद शरीर का विकार है, मैं अविनश्वर स्थिर आत्मतत्त्व को प्राप्त होता हूं और शरीर के विकार को छोड़ता हूं, मन, वचन, काय के विकार का त्याग करता हूं―इस प्रकार जो मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति में पूर्ण निष्णात हो गये हैं, निष्पन्न योगी हो गये हैं ऐसे पुरुष निज ज्ञायकस्वरूप के दर्शन से उत्पन्न होने वाला जो प्रसाद है उसके प्रताप से अरहंत अवस्था को प्राप्त होते हैं। उसही अवस्था के संबंध में कुंदकुंदाचार्यदेव अब व्याख्यान कर रहे हैं।