वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 69
From जैनकोष
जा रायादिणियत्ती मणस्स जाणीहि तन्मणोगुत्ती।
अलियादिणियत्तिं वा मोणं वा होइ वदिगुत्ती।।69।।
मनोगुप्ति―मन से रागादिक दूर हो जाना, इसका नाम है मनोगुप्ति। यद्यपि रागादिक आत्मा से दूर होते हैं, लेकिन मनोगुप्ति के प्रकरण में इस भावमय को जो कि आत्मा का एक परिणमन है, उससे रागादिक का हटाना बताया गया है। इससे यह तत्त्व भी निकलता है कि आत्मा तो एक शुद्ध ज्ञायकस्वरूप है, उसमें राग है कहां जो हटाया जाए। आत्मा के परिणमन में राग है, पर्याय में राग है, स्वभाव में राग नहीं है, इसलिये पर्याय भूत भावमन से रागादिक को हटा देने को मनोगुप्ति कहते हैं। यहाँ निश्चय मनोगुप्ति का लक्षण कहा जा रहा है। समस्त मोह रागद्वेषों का अभाव होने से जो अखंड अद्वैत परमचित्स्वरूप में स्थिरता के साथ स्थिति होती है, उसका नाम है निश्चयमनोगुप्ति।
निश्चयमनोगुप्ति का प्रताप―जो पर्यायें होती हैं वे ही हटायी जा सकती हैं। द्रव्य स्वभाव गुण―ये निकाले से कभी हटते नहीं हैं। मोह रागादिक―ये विभावपर्यायें हैं। यद्यपि इनका हटाना इनके निमित्तभूत कर्मों के हटाने के अनुसार है, तथापि कर्मों पर दृष्टि देकर कर्मों को हटाने का प्रयत्न करके ये विभाव नहीं हटाये जाते है। एक आत्म प्रयत्न से ही, ज्ञानरूप पुरुषार्थ से ही अपने आपमें से विभाव हटाया जाता है और इस प्रयत्न का निमित्त पाकर ये द्रव्यकर्म स्वयं अपनी परिणति से हट जाया करते हैं। जो साधु संत ऐसी निश्चयमनोगुप्ति का पालन करते हैं, वास्तव में मन का वश होना उनके ही हो सकता है अन्यथा मन को वश करना जिंदा मेंढकों को तौलने के बराबर है। जैसे कि जिंदा मेंढक तौले नहीं जा सकते हैं―जरा 5 सेर जिंदा मेंढक बड़ी तराजू के एक पलड़े पर रखकर तौल दो तो क्या कोई उन्हें तौल सकता है? नहीं तौल सकता है, एक रक्खेगा तो एक उचक जायेगा, फिर एक रक्खेगा तो एक दो उचक जायेंगे, वे तराजू में रक्खे ही नहीं रह सकते हैं, यों ही यह मन वश नहीं किया जा सकता है। यदि निश्चयमनोगुप्ति की छाया इसमें उज्ज्वल हो जाय तो यह मन वश में किया जा सकता है। अन्यथा एक जगह मनोरोध करोगे तो संभव है कि उस जगह मन न आये पर दूसरी जगह मन चला जायेगा।
मन की नपुंसकता―यह मन चंचल है और साथ ही यह मन होने को तो बड़ा हामी है, छाया हुआ है लेकिन मन नपुंसक है, यह किसी भी विषय को भोगने में समर्थ नहीं है। यह तो खेल देखता है और उस खेल को देख-देखकर खुश होता है। जैसे कोई नपुंसक किसी प्रकार से विषयभोग के योग्य नहीं है लेकिन यह नपुंसक केवल खेल देखता है और वहाँ ही बात बनाकर, बातूनी होकर अपने मन को राज़ी करता है। यों ही यह मन शब्दों से भी नपुंसक है और कार्य में भी नपुंसक है, इंद्रियां विषयों में प्रवृत्त होती हैं वहाँ कुछ काम नजर आता है। वह यद्यपि खोटा काम है लेकिन समझ में तो आता है कि हाँ कुछ स्वाद लिया, हाँ कुछ सूंघा, हाँ कुछ छुवा, हाँ कुछ देखा, पर मन क्या करता है? उसकी बात कुछ ग्रहण में ही नहीं आती है। और ऊधम ऐसा मचा रक्खा है कि इस प्रभु का इस मन ने बिगाड़ कर दिया है, और है वहाँ कुछ भी नहीं। यों जैसे कोई मजाकिया पुरुष किसी को दवा बता दे―देखो भाई धुंवा की तो कोपल लाना, बादल की छाल लाना और अंधेरे के फूल लाना, इन सबको मिलाकर घोटकर पी लेना, तुम्हारा रोग मिट जायेगा। अब लावो धुंवा की कोपल, बादल की छाल और अंधेरे का फूल। जैसे ये कुछ नहीं है ऐसे ही मन की बात भी कहीं कुछ नहीं है। केवल ख्याल ही ख्याल है। पर यह तो इंद्रिय से भी अधिक उद्दंड और हामी हो रहा है।
मन का वशीकरण―इस उद्दंड मन का वश में करना उनके ही संभव है जो भेदविज्ञान के द्वारा अपने परमार्थ शरणभूत आत्मतत्त्व में पहुंचे हैं। उनके आगे मन कुछ नहीं कर सकता है। बाकी संसार के समस्त जीवों को यह मन मानों स्वच्छंद होकर बेरोकटोक सता रहा है। सर्व प्रकार के रागद्वेष मोह जहां नहीं रहे उसी आत्मा में वह सामर्थ्य प्रकट होती है कि निज अखंड अद्वैत चित् प्रकाशमात्र स्वरूप में उपयोगी हो सकता है अपने इस शाश्वत स्वभाव में स्थिर होने का नाम है निश्चयमनोगुप्ति। ऐसी स्थिति में भावमन से ये रागादिक भाव निकल जाते हैं और फिर यह मन वश में हो जाता है। वश होने का अर्थ यह है कि फिर हम इसे उत्तम कार्य में लगा सकते हैं। उत्तम कार्य में किसी को लगा देने का नाम है वश करना।
कुपथ से निवृत्ति का नाम वशीकरण―जैसे कोई पुत्र कुपूत हो गया है, उद्दंड हो गया है अर्थात् गंदे कुपथ के कार्यों में लग गया है। अब उसे कहते हैं कि यह वश नहीं रहा। अरे वश करने का अर्थ बांधना नहीं है कि यह रस्सी से बंध नहीं पाता। यह वश नहीं रहा अर्थात् कुपथ में भागा-भागा फिर रहा है। जब कभी ज्ञान उपदेश शिक्षा देकर किसी उपाय से उसका आचरण ठीक हो जाय तो कहते हैं कि मेरा पुत्र मेरे वश हो गया है। अरे पुत्रादिक कोई भी तेरे वश न था, न है, न होगा, किंतु कुपथ से हटकर सुपथ में लग गया है, इसी के मायने हैं वश में हो गया है। यों ही वह मन कुपथ में भागा-भागा फिर रहा था, अब ज्ञानबल से इस मन से उन रागादिक भावों को हटा दिया अब इसका कुपथ दूर हो गया। अब यह सुपथ में आने लगा। इसका नाम है मन वश में हो गया। वह सुपथ क्या है?वह एकरूप है। निज सहजस्वभाव के अवलोकन को ही सुपथ कहते हैं। अब यह मन, यह विचार, यह ज्ञानधारा सहज स्वरूप की ओर उन्मुख होने लगी है, ऐसी स्थिति को कहते हैं निश्चयमनोगुप्ति।
कुपथगमन के प्रारंभ में ही सावधानी की आवश्यकता―भैया ! प्रारंभ में ही कुपथ में जाना बहुत बड़े अहित को लिए हुए है। कुपथ को मान लेना एक रिपटने वाली जगह में चलने के बराबर है। जैसे बरसात में चिकनी जमीन पर जहां कि पैर रिपट जाते हैं उस पर चलना बड़ी सावधानी का काम है। यदि थोड़ा भी पैर वहाँ रिपटे तो वहाँ अपने को संभालना बहुत कठिन है। संभाला तो संभला, नहीं तो नीचे धड़ाम से गिर जाता है। ऐसे ही यह मन जब प्रारंभ में थोड़ा कुपथ में चलता है उसही समय ज्ञान की सावधानी से इलाज कर सको तो कर लो। यदि वहाँ मन को कुपथ से न रोका जा सका तो कुछ समय के बाद उस मन को कुपथ में रोकना कठिन हो जाता है। कोई भी मनुष्य आरंभ में इतना बिगड़ा हुआ नहीं होता है। किसी भी पुरुष को कोई व्यसन लग जाय तो ऐसा नहीं है कि मानो वह 30 वर्ष, 3 महीने, 3 दिन, 3 घंटे तक तो वह बिल्कुल साफ था और इसके बाद जहां दूसरा मिनट लगा तो वह महान् वेश्यागामी बन गया, ऐसा नहीं होता है। आरंभ में मन थोड़ा ही बिगड़ता है। बस, उस थोड़े बिगड़े मन की जब हम परवाह नहीं रखते, सावधानी नहीं रखते तो मन का धीरे-धीरे बिगड़ना बढ़ता जाता है और वह बहुत बड़ा भयंकर विडंबना का रूप रख लेता है। इस कारण विवेकी पुरुषों को भी सावधानी रखना चाहिए कि थोड़ा भी चलित मन हो जा यतो उसको हटा दें, शुद्ध कर लें।
मन की विशेष शुद्धि के लिये तीन बार सामायिक―मन की शुद्धि के लिये दिन में तीन बार सामायिक बतायी गई है और प्रत्येक सामायिक 5।। अथवा 6 घंटे के बाद में होती है। सुबह की सामायिक, दोपहर की सामायिक और शाम की सामायिक होती है। सुबह की 5।। बजे की सामायिक के 6 घंटे बाद दुपहर की, उसके 6 घंटे बाद शाम की, उसके 6 घंटे बाद फिर सुबह की सामायिक होती है। बाकी टाइम सोने में आ गया। सभी सामायिकों के बीच 6 घंटे का समय रहता है। सोने पर क्या वश है? 6 घंटे जान बूझकर जो दोष आ गये हैं। मन को हिलाया डुलाया है, कुपथ का मुख तका है तो उसको शुद्ध कर लें। इसके लिए वह सामायिक का काल आता है। जैसे नीति में कहते हैं कि शत्रु का बालक भी रह जाना बुरा है। शत्रु को तो मूल से साफ करो, यह एक राजनीति की बात है। यहाँ अध्यात्मनीति में यह लगावो कि इस मन का थोड़ा भी बिगड़ना बुरा है, इसको तो समूल वश करें।
आवश्यकता के विषय में लोगों की गलत धारणा―लोग कहते हैं कि मुझे बहुत बड़ा आवश्यक काम है आज। आज मुझे रंच भी फुरसत नहीं है। आप लोग माफ करें मुझे जरा भी अवकाश नहीं है क्योंकि आज अत्यंत आवश्यक काम है। लोगों के आवश्यक काम को तो देखो―किस काम को ये आवश्यक बता रहे हैं? वह काम मिलेगा इंद्रिय का या भोग का या मन को खुश बनाये रहने के उपाय करने का। अन्य कोई काम न मिलेगा, किंतु बोलेंगे गलत बात कि इतना आवश्यक काम है। अरे आवश्यक काम कहते किसे हैं? पहिले आप इस ही का निर्णय कर लो। आवश्यक शब्द ही यह बता देगा कि आवश्यक काम मेरा क्या है? आवश्यक शब्द में मूल वर्ण है वश। वश का नाम वश है। किसी के आधीन होने का नाम वश है और न वश: इति अवश:। जो वश में न हो उस पुरुष का नाम है अवश। जो इंद्रिय के विषयों के आधीन न हो, जो किसी भी प्रकार परवस्तुवों के आधीन न हो ऐसे स्वाधीन पुरुष का नाम है अवश। अवशस्य कर्म इति आवश्यम्। जो अवश पुरुष का काम है उसका नाम है आवश्यक अर्थात् जिस परिणाम से, जिस ज्ञान से यह आत्मा अपने आपके आधीन रहे, निज सहज ज्ञानप्रकाश के अनुभवन से, पूर्ण प्रसन्न रहकर स्वतंत्र रहे उस परिणाम के करने का नाम है आवश्यक। अभी क्या कह रहे थे मुझे आज अत्यंत आवश्यक काम है और काम किया अनावश्यक। ऐसे हैं वे काम जो पराधीन विषयकषाय हैं, जिनमें अनेक आपत्तियां हैं, अनेक कष्ट हैं।
वास्तविक आवश्यक―अपने आपमें यह श्रद्धा लावो कि मुझे यदि कोई आवश्यक काम है तो यह ही एक आवश्यक है कि अपने स्वरूप का अनुभवन करूं और संसार के सारे संकट मेटूं। किस पदार्थ में मोह ममता करके अपने को बरबाद किया जाय? यह घर न अभी काम दे रहा है न आगे काम देगा, यह तो छूट ही जायेगा। कहां के मरे कहां गये जिसका कुछ पता भी नहीं। दुनिया है 343 घन राजू प्रमाण। अच्छा घर का न सही तो समाज का तो हमें ख्याल करना ही चाहिए। यह समाज जो मायामय असमानजातीय पुरुषों का समूह है यह भी न अब शरण है न आगे शरण है और पता नहीं यहाँ के मरे कहां गिरे? यहाँ कौन मदद देने आयेगा? अच्छा देश की बात तो सोचना चाहिए। तुम्हारा देश कौनसा है? आज इस जगह उत्पन्न हुए हैं, यहाँ की कथा गा रहे हैं और दूसरे अन्य देशों के लोगों को गैर, विरोधी, न कुछ जैसा समझ रहे हैं। और कोई यहाँ से मरण करके उन्हीं देशों में पैदा हो गया तब क्या सोचेगा? तब तो वह ही राष्ट्र अपने लिए सर्व कुछ हो जायेगा। अरे सोचो उसकी बात जिससे सदा काम पड़ता है। सदा काम पड़ेगा अपने आपके आत्मा से।
आत्मा की पवित्रता से परोपकार की संभवता―भैया !जो अपने आपके आत्मा की बात सोच सकता है और उस आत्मचिंतन से अपनी स्वच्छता पवित्रता ला सकता है ऐसे पुरुष के राष्ट्र का हित भी सहज स्वयमेव हो जाता है। ऐसे संत से समाज का हित भी स्वयमेव सहज हो सकता है। ऐसे ज्ञानी गृहस्थ से, जिस घर में वह बस रहा हो उस घर का हित सहज स्वयमेव हो सकता है। अत: पुरुषार्थ करना चाहिए परमार्थ आवश्यक काम के लिए। इस आवश्यक कार्य में उपयोग को बनाने का नाम ही निश्चयमनोगुप्ति है। हे शिष्य ! तू इस निश्चयमनोगुप्ति का अचलित रूप से अर्थात् स्थिर रूप से कर।
मन के रोध का अनुरोध―मन, वचन, काय इन तीनों का जो निसर्ग है, प्रवर्तन है उसमें सूक्ष्म प्रवर्तन तो है मन का, उससे स्थूल वचन का, उससे स्थूल काय का है। काय का कायपना बड़ी जल्दी सामने आता है, वचन की बात उससे कुछ सूक्ष्म है, लेकिन जीव पर संकट डालने के लिए काय की बात इतनी अधिक क्लेशकारी नहीं है, उससे अधिक वचन की बात है और वचन से भी अधिक मन की बात है। किसी पुरुष को एक दो थप्पड़ लगा दो तो इतना बड़ा रूप नहीं रखता जितना कि कटुक गाली गलौज का शब्द कह देना कटुक रूप रखता है और मन की बात तो यद्यपि दूसरे व्यक्तरूप से नहीं समझ पाते हैं, फिर भी खोटे मन वाले का असर पड़ौस में उत्तम होता ही नहीं है। किसी ने पूछा कि तुम मुझे कितना चाहते हो?तो उसका उत्तर मिला कि तुम अपने ही दिल से पूछ लो। जैसी तुम अन्य जीवों पर दृष्टि रक्खोगे अन्य जीवों का भी करीब-करीब वैसा ही उसके प्रति मन बनेगा और मन को बिगाड़ कर रखने से स्वयं में निरंतर संक्लेश बने रहते हैं। इस तरह मन के दुरुपयोग को दूर करके हे कल्याणार्थी पुरुषों ! इस मन को एक आत्मतत्त्व के अनुभवन में ही लगावो, यह ही निश्चयमनोगुप्ति का उपाय है।
वचनगुप्ति―अब वचनगुप्ति का वर्णन किया जा रहा है। असत्य आदिक वचनों की निवृत्ति होना इसका नाम है वचनगुप्ति, अथवा मौन व्रत होना इसका नाम है वचनगुप्ति। वचनगुप्ति का उत्कृष्ट रूप तो पूर्ण मौन है और अनुत्कृष्ट रूप सर्व प्रकार की असत्य भाषा का परिहार कर देना है।
मौन शब्द का अर्थ―मौन शब्द का अर्थ रूढ़ि में चुप रहना है, किंतु मौन का अर्थ चुप रहना नहीं है। मुनि के परिणाम को मौन कहते हैं। वचनों के बंद कर देने का नाम मौन नहीं है किंतु मुनि के परिणामों को प्रकट कर देने में प्रमुख बाह्यरूप मौन कहो, चुप रहना कहो, वचनालाप का बंद कर देना है। इस कारण मौन शब्द की रूढ़ि वचनव्यवहार बंद करने में हो गई है। जैसे जब लोगों को यह विदित होता है कि फलाने साहब का मौन है, आज तो यह चार बजे तब न बोलेंगे अथवा कोई साधुजन रोज मौन रहते हैं, आजन्म मौन रहते हैं तो लोगों को विश्वास हो जाता है कि इनका परिणाम बड़ा उज्ज्वल है। दूसरी बात यह है कि जैसे मुनि को शुद्ध आशय में रुचि है वहाँ ही जिसकी वृत्ति है ऐसा पुरुष उस शुद्ध वृत्ति के परिणाम में मौन रहा करता है, चुप रहा करता है। इस कारण मौन शब्द की रूढ़ि वचनव्यवहार बंद करने में आ गयी। सीधा अर्थ तो यह है कि मुनि के परिणाम को मौन कहते हैं। जो कुछ भी मुनि करे वह सब भी मौन है, जो कुछ भी मुनि विचारे वह सब भी मौन है।
किससे बोला जाय―इस ज्ञानी पुरुष के वचनव्यवहार की प्रवृत्ति क्यों नहीं होती है? बताते है। अच्छा आप ही बतावो कि किससे वचन बोलें, व्यवहार करने योग्य दो जाति के पदार्थ हैं―जीव और पुद्गल। उनमें पुद्गल तो समझते ही नहीं हैं, अचेतन हैं। उनसे बोलकर क्या करना? वहाँ से न कुछ उत्तर मिलता है, न उनमें कोई अभिप्राय है, न वे प्रसन्न होते हैं, न वे रुष्ट होते हैं। पुद्गल तो, ये स्कंध तो जैसे हैं, पड़े हुए हैं इनसे वचन बोलकर क्या करना, अचेतनों से कौन बोलता है वचन? अज्ञानीजन भले ही इन पुद्गलों से वचन बोल दें अथवा पुद्गल से कुछ बोल दें तो बच्चे राज़ी हों तो हो जायें। किसी बच्चे के सिर में भींत लग जाय, रोने लगे तो भींत में दो चार थप्पड़ जमा दो तो बच्चा राज़ी हो जाता है। तो अज्ञानीजन पुद्गलों से बोलकर राज़ी हों तो हो जायें, पर बोलने का वहाँ कुछ काम नहीं है। भींत से बोलें? घड़ी से बोलें? चौकी से बोलें? किससे बोले? अब रहा दूसरी जाति का चेतन पदार्थ। वह अमूर्त द्रव्य है, उसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं। वह भावात्मक है, उसमें शब्द भी नहीं आते। चेतनों से भी कौन बोलता है अथवा बोला भी नहीं जा सकता।
शुद्ध दृष्टि से देखो तो यह आत्मा शब्द सुनता भी नहीं है। जैसे कि कार्यपरमात्मा शब्द सुनते नहीं हैं। केवली भगवान् जानते तो सब हैं, पर वे सुनते नहीं हैं, देखते नहीं हैं, सूंघते नहीं हैं, छूते नहीं हैं, स्वाद लेते नहीं हैं। अब अपनी कल्पना में लावो कि बिना सुने, बिना देखे, बिना छुवे, बिना स्वादे, वह ज्ञान किस प्रकार का होता होगा? न भगवान् सुनते हैं और न यह आत्मतत्त्व सुनता है। भगवान् में और आत्मतत्त्व में अंतर नहीं है। कार्यसमयसार में और कारणसमयसार में स्वरूप का अंतर नहीं है। जैसे निर्मल जल और कीचड़ में पड़े हुए जल का स्वभाव इन दोनों का एक ही स्वरूप है और एक ही वर्णन मिलेगा। जरा गंदे जल और निर्मल जल का सामना करके आपसे हम पूछें कि आप निर्मल जल का वर्णन करो और इस जल के स्वभाव का वर्णन करो। तो दोनों का वर्णन स्वच्छ है, द्रव है और जो भी निर्मल जल में विशेषताएं हैं उतनी ही बात इस जल के स्वभाव में लगानी पड़ेगी। यों ही कारणसमयसार और कार्यसमयसार के वर्णन में अंतर नहीं है।
आत्मतत्त्व की अतींद्रियता―यह अमूर्तद्रव्य, यह अंतस्तत्त्व इंद्रियज्ञान के अगोचर है। यह खुद इंद्रियों द्वारा जानता भी नहीं है। यह अंतस्तत्त्व इसकी विषयप्रवृत्ति ही नहीं है। जो जानता है यों सुनता है इंद्रियों द्वारा वह अंतस्तत्त्व नहीं है। यह इस आत्मा से अत्यंत भिन्न नहीं है, किंतु अंतस्तत्त्व नहीं है। इस अमूर्तद्रव्य के इंद्रियज्ञान भी नहीं है और इंद्रिय ज्ञान का यह विषयभूत भी नहीं है। शुद्धनय की दृष्टि से देखियेगा तो यह विदित होगा कि अंतस्तत्त्व के इंद्रिय भी नहीं है और इंद्रियज्ञान भी नहीं है और कुछ अशुद्धनय की दृष्टि से देखिए तो इस जीव के इंद्रियज्ञान हो रहा है लेकिन अमूर्त बराबर है। इंद्रियज्ञान करने से कहीं, रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं आ जाते हैं। यों चैतन्यद्रव्य अमूर्त है, उससे वचनों की प्रवृत्ति संभव ही नहीं है।
उपासना का प्रयोजन स्वयं का उपासकत्व―भैया !20-40 वर्ष दसलाक्षणी में चिल्लाते हो गये, एक दिन भी भगवान् ने न सुनी और न वे कुछ कहने सुनने आये। कैसे कहने सुनने आये? वे सुनते ही नहीं हैं। पूजन तो अपने आपके प्रसाद के लिए है प्रभु को सुनाने के लिए नहीं है, न प्रभु को राज़ी करने के लिए है। हम अपने स्वभाव को परखे और उस शुद्ध स्वभाव की दृष्टि करके प्रसन्नता पायें, निर्मलता पायें इसके लिए प्रभुभक्ति है। किससे बोलें? चैतन्यद्रव्य अमूर्त है और जो मूर्त है उसमें चैतन्य नहीं है। तो किससे बोला जाय? ऐसा जानकर साधु संतों के वचनों की प्रवृत्ति नहीं होती है। यों सहज वचनव्यवहार को जानना, इसका नाम है निश्चयवचनगुप्ति। धन्य हैं वे योगी जो शुभ अथवा अशुभ मन और वचन प्रवृत्ति को छोड़कर आत्मतत्त्व के निरखने में निरत रहा करते हैं। ऐसे ये योगिराज समस्त पापकर्मों को जलाने में अग्नि की तरह तेजस्वी प्रगतिशील रहते है।
बाहर ठौर ठिकाने का अभाव―जैसे कोई पुरुष अपने घर को छोड़कर दूसरे के गांव में घुसता फिरे और सब जगह से ललकारा जाय तो अंत में विवश होकर अपने घर में आता है और विश्राम की सांस लेता है। कहीं ठौर ठिकाना नहीं मिलता। यों ही यह जीव बाहर में यत्र तत्र इंद्रिय विषयों में डोलता है। यह ही पर घर है, किंतु हर जगह से ललकारा गया। चारुदत्त सेठ कई करोड़ दीनारों का स्वामी था। उससे बसंतमाला, तब तक ही प्रीति वचनालाप करती रही जब तक उससे धन प्राप्त होता रहा। जब कुछ न बचा तो क्या दुर्दशा हुई कि जब वह घर से जाय ही नहीं तो संडास में पटकवा दिया। जब सूअरों ने चाटा, भंगियों को मालूम पड़ा तब वहाँ से निकाला गया। जीव की प्रकृति देखो कब कितनी बुरी हो जाती है? जब उसे विवेक आया तब उसका जीवनस्तर इतना पवित्र बना कि उसे क्या कहा जाय?
निवृत्तिभाव का यत्न―संसार में जो कुछ भी न्यौछावर है वह भावों का न्यौछावर है, वस्तु का नहीं। भले ही कुछ स्वप्न में नगरी में पदार्थों का न्यौछावर बन गया, पर उसमें भी मूलस्रोत निहारो तो वह सब भावों का ही न्यौछावर है। मनुष्य की आवश्यकता और मनुष्यभव―यह सर्वपदार्थों का मूल्य है। इसलिये अपने भावों की स्वच्छता बनाये रहने का निरंतर यत्न करना चाहिए। कभी कोई कषायभाव जगे तो उस काल में भी इतना विवेक रखें कि यह कषाय आयी है तो यह नाश के लिए आयी है। अभी जाने वाली है किंतु इसका ग्रहण करके, अपना अपमान करके हम बहुत काल तक बरबाद होते रहेंगे। इसलिए जैसे किसी दुष्ट से पाला पड़ जाय तो जो भी सही राज होता है, उपाय होता है, उस उपाय से उससे दूर हो जाता है। ऐसे ही इन विषय-कषायों के परिणाम से पाला पड़ गया है तो जिस सुंदर उपाय से ये विषयकषायों के परिणाम हट जायें उसे करे। ये सीधे नहीं हटते हैं तो थोड़े रूप से उन्हें ऊपर से रुचि करके हटा डालें।
निर्नय का निर्णय―ज्ञानी पुरुष अपने शुद्ध अंतस्तत्त्व की निष्ठा में रहते हैं। यह अंतस्तत्त्व शुद्धनय और अशुद्धनय दोनों नयों से परे है। प्राक् पदवी में यद्यपि इन जीवों को व्यवहार का हस्तावलंबन है, किंतु अंतस्तत्त्व में कदम रखने पर यह व्यवहारनयमात्र ज्ञेय रहता है और निश्चयनय का आश्रय होता है। पश्चात् व्यवहारनय और निश्चयनय दोनों का आश्रय टूट जाता है और दोनों नयों से, दोनों पक्षों से रहित शुद्धचिन्मात्र का संचेतन रह जाता है। जीव के स्वरूप के संबंध में ऐसा पूछा जाय कि बतावो क्या जीव का स्वरूप राग है? तो यह समझ में झट आयेगा कि जीव का स्वरूप राग तो नहीं है और जब पूछा जाय कि जीव का स्वरूप क्या रागरहित है? तो उत्तर यही है कि आत्मतत्त्व रागरहित भी नहीं है, रागसहित भी नहीं है, वह तो ज्ञानमात्र है।
वस्तुस्वरूप की परानपेक्षता―वस्तुस्वरूप के दिग्दर्शन के लिये एक मोटा दृष्टांत ले लो। यह बताओ अच्छा कि इस चौकी का स्वरूप क्या पुस्तक सहित रहना है, तो आप कहेंगे कि पुस्तक सहित रहना चौकी का स्वरूप नहीं है। चौकी में मोटाई है, लंबाई है, रंग है, वह स्वरूप है। और जब पूछा जाय कि इस चौकी का स्वरूप क्या पुस्तकरहित है? अजी यह भी स्वरूप नहीं है। लंबाई है, चौड़ाई है, मोटाई है, रंगरूप है, यह भी स्वरूप नहीं है। यों ही आत्मा में देखो क्या विषयों का स्वरूप रागसहित होता है? नहीं जी। तो क्या रागरहित होता है? नहीं जी। मेरा स्वरूप तो ज्ञानानंदस्वभावमात्र है, ऐसा यह शुद्धनय और अशुद्धनय से परे है।
चिन्मात्र चिंतामणि―यह चिन्मात्र आत्मतत्त्व जो चिंतामणि की तरह है उसकी उपासना इन ज्ञानियों की रहती है। लोग कहते हैं कि चिंतामणि रत्न ऐसा होता है कि जिसके निकट रहते हुए जो आप विचारें वही मिल जाता है। अब दिमाग लगावो कि ऐसा चिंतामणि रत्न कहां होगा? वह काला है कि लाल है कि सफेद है कि वह कोई पत्थर है जो हाथ में आ जाय और जो भी चित्त में विचार करो वह चीज मिल जाय? ऐसी कोई चिंतामणि जैसी चीज संगति में तो नहीं बैठती। हाँ यों संगति लगा लो कि बड़ा कीमती रत्न है, बेचकर हलुवा पूड़ी खाना है तो उसको बेच लिया, बढ़िया सामग्री आ गयी और उससे हलुवा पूड़ी बनाकर खा लिया, ऐसा तो हो सकता है पर जो विचारो सो बन जाय ऐसा कभी नहीं होता। विचार से विवाह हो जाय, पुत्र हो जाय, क्या यों हो जायेगा? चिंतामणि से प्रार्थना करने से विचार करने से कुछ भी बन जाय ऐसा नहीं होता है। यों खर्च करने से लाभ हो तो यों फिर धन वैभव भी चिंतामणि बन गये। यह मकान महल है, अच्छा किराया दुकान का आता हो तो वह भी चिंतामणि है, उन्हीं की वजह से विवाह हो जाय और लड़के बच्चे पढ़ जायें, जो-जो विचारें सारे काम कर लें, पर वहाँ भी अंतर पड़ता है, विघ्न पड़ता है, बहुत काल के बाद सिद्धि होती है। वह तो नहीं होता चिंतामणि। ऐसा कोई चिंतामणि नहीं होता, कोई पत्थर ऐसा नहीं है कि उसे हाथ में ले लो तो जो विचारों सो सिद्ध हो जाय। पर हाँ यह चैतन्यस्वरूप ऐसा चिंतामणि है कि जो विचारो वही सिद्ध हो जाय।
चिन्मात्र चिंतामणि से इच्छा पूर्ति की विधि―आत्मा के उस सहज चैतन्यस्वभाव की दृष्टि ऐसा रत्न है कि आपकी प्रत्येक कामनाएं पूरी होंगी। आप अगर करोड़पति बनना चाहेंगे तो वह भी सिद्ध हो जायेगा। आप उस रत्न को पावें तो सर्वसिद्धि हो जायेगी। कोई लोग सोचते हैं कि यह भी बहकाने की बात होगी। अरे आत्मा का अंतरंग स्वरूप पहिचानो फिर जो चाहोगे सो सामने खड़ा हो जायेगा। अरे आवो तो निकट तुम्हारी कोई भी इच्छा यदि खाली रह जाय तो फिर प्रश्न करना। अरे भाई तो युक्ति से तो समझावो। लो युक्ति से समझ लो। तुम्हें आम खाने से काम है या गुठली गिनने से काम है? अगर गुठली गिनने से काम है तो आप जावो दूसरी जगह और आम खाने से काम है तो यहाँ रहो। तुम्हें आनंद पाने से काम है या इस महल दुकान से काम है? अगर महल दुकान से काम है तो जावो और अगर आनंद पाने से काम है तो बैठो। यह सहज चैतन्यस्वरूप इस प्रकार का स्वभाव वाला है कि उस मेरे स्वरूप में जब उपयोग का प्रवेश होता है तब वहाँ कोई इच्छा ही नहीं रहती। और देखो इच्छा के न रहने का नाम है इच्छा की पूर्ति।
इच्छा के अभाव का नाम इच्छा की पूर्ति―जैसे बोरी में गेहूं भरते हैं तो वह बोरा खूब भर जाय इसको आप कहेंगे कि बोरा भर गया, ऐसे ही जीव में इच्छा आती है और इच्छा खूब भर दी जाय तो इसको इच्छा की पूर्ति कहते हैं क्या? आप भोजन करते हैं, पेट भर खा लेते हैं तो आप कहते हैं कि हमारी इच्छा की पूर्ति हो गयी, क्योंकि अब खाने की इच्छा नहीं रही। इच्छा के न रहने का नाम ही इच्छा की पूर्ति है। यह चैतन्यस्वभाव चिंतामणि ऐसा विलक्षण रत्न है कि इसके पा लेने पर समस्त इच्छावों की पूर्ति हो जाती है। तो यों चिंतामणि कहलाया चित्स्वभाव का अवलोकन।
भोग के अभाव में सहज योग―भैया ! इतनी सुगम सुविधा सहज प्राप्त होने पर भी कोई न माने और चित्त समर्थन न करे कि हाँ वास्तव में यही सर्वस्व रत्न है और इसके पाने से ही हमें समस्त सुख होंगे, न कोई श्रद्धान् करे और अपने स्वरूप से चिग-चिगकर बाहर की ओर दौड़ा करे तो उसके लिए क्या किया जाय? किसी भिखारी से कोई सेठ कहे कि ऐ भिखारी ! ये 5-7 दिन की बासी रोटी तू झोले में भरे रक्खे है, इन्हें फेंक दे, मैं तुझे चार छ: दिन को खाने के लिए ताजी पूड़ियां दूंगा। उसे विश्वास नहीं होता है। और वह सेठ इस बात पर अड़ जाय कि तू इन रोटियों को फेंक दे तब मैं पूड़ियां दूंगा। तो उस सेठ में और भिखारी में झर नहीं मिलती है। ऐसे ही यह इंद्रियविषयों का भिखारी विषय भोगों को अपने उपयोग के झोले में भरे रक्खे है, ये कुंदकुंदाचार्य, अमृतचंद्र जी सूरि आदि सेठ लोग इससे कह रहे हैं कि तू इन बासी रोटियों को फेंक दे, ये सब भव-भव के भोगे हुए जूठे हैं, तुझे हम बढ़िया आनंद देंगे, लेकिन वास्तविकता इस बात पर अड़ लगाये हैं कि तू इन्हें फेंक तो दें फिर आनंद ले। मगर यों भी मामला सेटिल हो जाय कि तुम हमें आनंद तो दो हम फेंक देंगे तो भी बात बनेगी, किंतु ऐसी कुछ बात होती ही नहीं है। ऐसे उस चिन्मात्र चिंतामणि रत्न के उपासक योगी पुरुषों के समस्त वचनव्यवहार रुक जाते हैं।
समृद्धिलाभ का उपाय―निश्चयमनोगुप्ति का पालन करते हैं वे निकट भव्य भविष्य में अनंतचतुष्टयात्मक परिणमन के साथ जीवन्मुक्ति को प्राप्त होते हैं। योगीजन चार घातिया कर्मों का विनाश करके प्रथम तो शरीरसहित स्थिति में ही परमात्मा हो जाते हैं और फिर समय पाकर चार अघातिया कर्म भी दूर होते हैं। उस समय वे सिद्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं। आत्मा का हित अनाकुलता में है और सर्वथा अनाकुलता मोक्ष अवस्था में है। मोक्ष अवस्था के होने के कारण सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र है, और इस रत्नत्रय की साधना का कारण अभेदस्वरूप आत्मतत्त्व की दृष्टि है। अभेद आत्मतत्त्व की दृष्टि में सहायक भेदविज्ञान है और भेदविज्ञान में सहायक वस्तु के स्वरूप की परख है। इस कारण परमहित चाहने वाले परमजनों के वस्तुस्वरूप परिज्ञान में प्रयत्नशील होना चाहिए। उसही के प्रताप से क्रमश: इस ज्ञानस्वरूप के उपयोग की स्थिरता बढ़कर वह अवस्था मिलती है जिसमें सदा के लिए यह आत्मा द्रव्यकर्म भावकर्म, नोकर्मरहित होकर धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य की नाई विशुद्ध हो जाता है।
साधना, प्रयोजन और उपाय―विशुद्ध होने पर इस आत्मतत्त्व के अनंतगुणों का परम विकास होता है। उन सब गुणों के विकास के प्रयोजन की बात इतनी ही है कि वे अनंत आनंदमय होते हैं। किसी से कहा जाय कि तुम्हें अनंतज्ञान हो जायेगा पर आनंद न आयेगा तो वह ऐसे अनंतज्ञान को भी पसंद न करेगा। कितनी ही और बातें हो जायें, एक अनाकुलता की बात न हो तो वे सारी ऋद्धियां, समृद्धियां इस आत्मा को उपादेय नहीं है। आत्मा का उपादेय तत्त्व सहज आनंदमय अवस्था है। वह अवस्था कैसे प्रकट होती है? उसके उपाय को जानकर अंत में प्राथमिक उपाय यह बनेगा कि वस्तुस्वरूप का निरंतर परिज्ञान यथार्थ बनाये रहें। प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है, अपने-अपने स्वरूप को लिए हुए है, किसी पदार्थ का अन्य पदार्थ कुछ नहीं है ऐसा जो उनका मौलिक स्वरूप है वह स्वरूप दृष्टि में रहे तो निश्चयमनोगुप्ति और निश्चयवचनगुप्ति की सिद्धि होती है। यहाँ तक निश्चयमनोगुप्ति और निश्चयवचनगुप्ति का स्वरूप कहा है। अब निश्चयशरीरगुप्ति का स्वरूप कह रहे हैं।