पंचास्तिकाय - गाथा 134: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
मुत्तो फासदि मुत्तं मुत्तो मुत्तेण बंधमणुहवदि ।
जीवो मुत्तिविरहिदो गाहदि तं तेहिं उग्गहदि ।।134।।
बंधन―यह मूर्त कर्म मूर्तिक कर्मों से स्पर्श करता है । मूर्तिक कर्मों के बंधन से बँधा हुआ जीव बंधन में होने पर भी मूर्त नहीं बन गया । कहीं वह स्वयं रूप, रस, गंध, स्पर्शमय नहीं हो गया, जब हम इस जीव की ऐसी पराधीनता देख रहे है कि शरीर का बंध है। शरीर चले तो जीव चले, शरीर की कुछ अवस्था बने तो यह जीव उस अवस्था का भोगने वाला हो जाता है । ऐसी विकट मिश्रता देख कर के इस जीव को भी मूर्त कहा जाता है । तो जब संसारी जीव में अनादि संतान से चला आया उदयागत मूर्त कर्म आगामी कर्म का स्पर्शन करता है तो यह मूर्त कर्म मूर्त से परस्पर बंध अवस्था को प्राप्त' हो जाता है और यह मूर्त भावों से रहित जीव उन कर्मों का ग्रहण करता है, उनके साथ भी बँध जाता है । इस ही अर्थ में यह भी अर्थ समझो कि यह मूर्तिक कर्म मूर्तिक कर्म से ही स्पर्श करता है और उन दोनों के बंधन में यह जीव अमूर्त होकर मूर्त जैसा बनकर एक परतंत्र हो जाया करता है ।
बंधन का उदाहरण―बंधन के मर्म का एक उदाहरण देखिये-जैसे लोग गाय बांधते हैं गिरमा के द्वारा, रस्सी के द्वारा बाँधते हैं तो क्या रस्सी और गाय ये दोनों मुकाबले में आकर परस्पर में बंधता हैं? नहीं । रस्सी का एक छोर रस्सी के दूसरे छोर के मुकाबले में आकर परस्पर में बँधता है, तो बंधनरूप स्पर्श गाँठ रस्सी-रस्सी में ही लगी, किंतु इस गाँठ के अनुसार यह गाय पराधीन हो गयी, अब बाहर कहाँ जाय? गाय का गला पकड़कर और रस्सी का एक छोर पकड़कर क्या गाय बाँधी जाती है? तो जैसे रस्सी में रस्सी ही बँधती है, फिर भी वह प्रसंग ऐसा है कि उस स्थिति में यह गाय बँधी हो जाती है । इसी प्रकार जहाँ तक स्पर्श की बात है कर्म का कर्म के साथ स्पर्श है और उस स्थिति में जीव-जीव का ही वह सब बिगाड़ है, कर्तव्य है । इसने विभाव किया है, अपराध है, इस कारण से यह जीव बँध जाता है । जैसे थोड़ी देर को समझ लीजिए कोई गाय बहुत सीधी है । उसे एक बार जहाँ खड़ी कर दो वहाँ से हिले नहीं । तो ऐसी गाय को कोई बाँधता नहीं है, जहाँ खड़ी है, खड़ी है । यह मोटी बात कह रहे हैं । जो गाय चंचल है, यहाँ से वहाँ भागती है उस गाय को लोग बाँधते हैं । तो यद्यपि वह बंधन रस्सी का रस्सी से हुआ है, मगर गाय की करतूत गाय की आदत के कारण हो तो वह बंधन पड़ा हुआ है । ऐसे ही यद्यपि कर्म का कर्म में बंधन है, पर उस बंधन का कारण तो जीव का विकार अपराध है ।
कर्मबंधनों में जीवबंधन―इस संसारी जीव में अनादि संतान से ये मूर्तिक कर्म प्रवर्तित चले आ रहे हैं और वे कर्म स्वयं स्पर्श, रस, गंध, वर्ण वाले हैं, सो वे आगामी काल के मूर्तिक कर्मों को भी छूते हैं, वे अमूर्तिक कर्म उनके साथ स्नेह गुण के संबंध से बंधन का अनुभव करते हैं । यह है मूर्तिक कर्मो का बंधन का विकार । ये कर्म-कर्म से यों बँध जाते हैं । निश्चय से यह आत्मा अमूर्त है, फिर भी अनादिकाल से मूर्तिक कर्मों का निमित्त पाकर इसमें जो रागादिक परिणाम हुए हैं उनसे चिकना बनकर विशेष-विशेष रूप से मूर्तिक कर्मों को अवगाहता है अर्थात् अपने प्रदेशों में मूर्तिक कर्मों का बंधन दे देता है और यों एक क्षेत्रावगाही बनकर यह विकट बंधन डाल देता है फिर उन कर्मों का जब उदयकाल आता है तो उस काल में यह जीव फिर रागद्वेष करता है । उस रागद्वेष का निमित्त पाकर उदय में आये हुए कर्मों में नवीन कर्मों के बँधने की फिर प्रकृति हो जाती है और उससे यह लड़ाई, यह भिड़ंत इस जीव के साथ तब तक चलती रहती है जब तक इस भिड़ंत का कारणभूत कषाय शिथिल न हो जाय ।
अंत:क्रिया―देखो भैया ! कितना सा तो अपराध है और विडंबनाएँ इतनी अनेक हैं । अपराध जड़ में इतना ही है जीव का कि इस जीव ने अपने सहजस्वरूप को आपा न समझकर किसी परभाव को 'यह मैं हूं' इतना मान लिया है । देखिये सुनने में अपराध न कुछ जैसा है, किसी का क्या बिगाड़ा? किसी का न अनर्थ किया, न चोट पहुँचाई, न कोई क्रिया की । इस जीव ने अपने आप में ही आराम से भीतर ही भीतर बिना कोई अपने स्वरूप से बाहर उत्पात मचाये सिर्फ पर में यह मैं हूँ, इस प्रकार का श्रद्धान बनाता है, इतनीसी अपराध वृत्ति का फल यह जगजाल बन गया है, और जब यह जगजाल मिटेगा भी तो उसके उपाय में इतना ही छोटासा कार्य करना होगा । अपने आपके स्वरूप में अंत: ही बना हुआ कुछ बाहर में क्रिया श्रम न करके अंत: यही एक भाव कर लेना है चित्प्रकाश को द्दष्टि में निरखकर कि यह मैं हूँ, ऐसी दृढ़तापूर्वक एक भाव बनाना है, फिर देखो यह सारा जगजाल भी बिखर जायगा और मिट जायगा ।
जीवक्षेत्र में कर्मों का अवगाह―इस बंधन के प्रसंग में इस जीव ने कर्मों को अवगाह दिया, और जब जीव ने कर्मों को अवगाह दिया, स्थान दिया तो मानो निशंक होकर अपनी ही बड़ी मजबूत स्थिति को रखते हुए इन मूर्त कर्मों ने भी वहाँ अपना अवगाह कर लिया । जैसे कोई नया पुरुष आता है आपके पास तो आप उसे अच्छे स्वभाव से बुलाते हैं, आइये साहब ! तो आपके इतना कहने से आने वाला निःशंक होकर बड़े ढंग से वहाँ आ जाता है । तो जब इस मूर्त जीव ने इस पराधीन जीव ने इन कर्मों को अवगाह दिया कहकर नहीं, किंतु एक प्रेक्टिकल अपनी वृत्ति बनाकर जब अवगाह दिया तो ये कर्म भी निशंक होकर बड़ी मजबूत स्थिति के साथ इस जीव में अवगाह को प्राप्त हो गए । यह है जीव और मूर्त कर्म का परस्पर में अवगाहरूप बंध की पद्धति ।
अमूर्त जीव का मूर्तकर्म से बंधन पर प्रकाश―यह प्रकरण इस शंका का भी समाधान देता है कि जीव तो अमूर्तिक है और कर्म मूर्तिक है तो अमूर्तिक जीव के साथ कर्म का बंधन कैसे हो जाता है? इस शंका के समाधान में भी यहाँ काफी प्रकाश आया हुआ है । यह मूर्तकर्म-मूर्तकर्म से ही बँधता है और उनके इस प्रकार के बंधन में कारण है जीव का अपराध । यह जीव का अपराध उनके बंधन का निमित्त हुआ । यों यह त्रिगड्ड कर्मबंध का प्रसंग बन गया । आगामी कर्म के बंधन का सीधा कारण है उदय में आये हुए कर्म और उदय में आये हुए कर्म इन मूर्त कर्मों को बाँध ले ऐसा उनमें निमित्तपने का कारण है जीव का अपराध । यों यह जीव अपराधवश मूर्त कर्मों से बँध जाता है ।
स्नेहबंधन―भैया ! एक व्यवहारिक मोटी मिसाल ले लीजिए । यह तो कर्म की बात कही । कभी आपका किसी मित्र से तीव्र स्नेह हो जाय तो आप उसके साथ बँधे-बँधे फिरते हैं या नहीं? उस मित्र से बँध जाने का कारण क्या है? आपका पुत्र से स्त्री से जो मोह है वहाँ आप उससे बँधे-बँधे रहते हैं या नहीं? इस बंधन का कारण क्या है? आपके चित्त में मोहपरिणाम आया, एक अपराध बना वहो अपराध उस बंधन का कारण है । हालांकि यह एक क्षेत्रावगाह बंधन नहीं है । यह दृष्टांत अन्य किस्म का है । वहाँ एक क्षेत्रावगाह बंधन हो जाता है, पर बंधन में कारण यहाँ भी मोह रागद्वेष भाव है और वहाँ भी मोह रागद्वेष भाव है । यों यह जीव अपराधवश इन मूर्त कर्मों से बँध जाता है और ये कर्म जीव के अपराध के अनुसार पुण्य अथवा पाप दो रूप में निश्चित हो जाते हैं । यदि जीव का शुभ रागरूप अपराध है तो यह कर्म पुण्यरूप हो जाता है । जीव का अशुभ रागरूप अपराध है तो वह कर्म पापरूप हो जाता है । इस प्रकार जीव के साथ जो पुण्य पाप नामक दो पदार्थ लगे हैं इनका वर्णन इन चार गाथावों में किया गया है, और इस वर्णन के साथ पुण्य पाप नामक पदार्थ का व्याख्यान समाप्त हो जाता है ।