वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 135
From जैनकोष
रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो ।
चित्ते णत्थि कलुस्सं पुण्णं जीवस्स आसवदि ।।135।।
पुण्यास्रव का वर्णन―पुण्य पाप पदार्थ का व्याख्यान करके अब आस्रव पदार्थ का व्याख्यान किया जा रहा है । जिस जीव के प्रशस्त राग है, अनुकंपा से सहित परिणाम है, चित्त में कलुषता नहीं है उस जीव के पुण्य कर्म का आस्रव होता है । आस्रवों में यहाँ पुण्यास्रव का वर्णन किया है, पुण्यपाप नामक दो पदार्थ होते हैं । वे दो पदार्थ पुण्यास्रव और पापास्रव के माध्यम से ही निकले हैं । उनमें से पुण्य पदार्थ का आस्रव कैसे होता है? उसका इसमें वर्णन है।
आस्रव और बंध का विश्लेषण―आस्रव और बंध में एक भाव का अंतर है । कार्माणवर्गणा में कर्मत्वपरिणमन आना इसका नाम आस्रव है और वह कर्मत्व परिणमन चिरकाल तक बना रहे इसका नाम है बंध । आस्रव और बंध में से आस्रव पहिले होता है और बंध पीछे होता है, यह एक समझ में क्रम है तथा दो समय की स्थिति पाये तो उसका नाम बंध है और एक ही समय का कर्मत्व परिणमन हो तो उसका नाम आस्रव है । ऐसे आस्रव और बंध के स्वरूप होने से भी आस्रव पहिले और बंध पीछे होता है । यह भी समझ में रहता है किंतु यह विभाग नहीं है कि कोई भी कर्मत्व परिणमन पहिले समय में बंध न कहलाये और दूसरे समय से बंध कहलाये । यद्यपि बंध का यह लक्षण है कि एक से अधिक समय तक स्थिति हो तो उसका नाम बंध है, लेकिन अनेक समय की स्थिति होने पर भी बंध प्रारंभ से ही कहलायेगा । यदि दो समयों की स्थिति न हो तो वह बंध नहीं है । जब बँध होता है तो वह पहिले समय से ही बंध कहलाता है । कोई कर्म पहिले समय में आये और हजारों समय तक रहेगा तो क्या पहिले समय में जीव के साथ बंधन नहीं है? जिसका बंधन है उसका पहिले समय से ही बंधन है, और जिसको दूसरे समय की स्थिति नहीं मिलती । जैसे 11वें, 12वें और 13वें गुणस्थान में जो सातावेदनीय का आसव होता है उसकी रसमय स्थिति नहीं होती । उसे ईर्यापथ आस्रव कहते हैं, वह बंध नहीं है ।
आस्रव और बंध का संबंध―कोई मनुष्य किसी रास्ते से दौड़ता हुआ गेट को पार करके आगे तक चला गया तो वह चला गया, उसका आना ही आना रहा, बंध नहीं रहा, किंतु वह 2 मिनट को भी उस गेट में खड़ा होता है तो उसका ठहरना कहलाता है । ठहरने का ही नाम बंध है । तो वह दो मिनट ठहरा तो क्या उसे यह न कहेंगे कि वह पहिले मिनट में भी ठहरा हुआ था? ठहरता है तो वह प्रारंभ से ही ठहरा है और नहीं ठहरता है तो ठहरा हुआ ही नहीं । इसी प्रकार आस्रव और बंध दोनों का प्रारंभ उस समय, फिर भी कर्मत्वपरिणमन का आना और उसका चिरकाल तक रहना―इन दोनों के स्वरूप पर दृष्टि डालते हैं तो समझ में क्रम हो जाता है कि आस्रव पहिले हुआ और बंध उसके बाद हुआ ।
आस्रव का अर्थ―आस्रव का अर्थ है कार्माणवर्गणा में कर्मत्व की अवस्था आना । कहीं कर्म बाहर से नहीं आता । जैसे कि लक्षण सुगमतया बोला जाता है, कर्मों के आने का नाम आस्रव है । इस जीव में कर्म आ जाये इसका नाम आसव है, तो क्या कर्म बाहर से जीव में आते हैं और फिर आकर बँधते हैं? ऐसा नहीं है । इस जीव के प्रदेशों में ही एक क्षेत्रावगाहरूप से विस्रसोपचित अनंत कार्माणवर्गणायें मौजूद हैं जो कर्मरूप तो नहीं हुई, किंतु कर्मरूप जो हुई हैं उनकी भांति ये भी कार्माणवर्गणायें जीव के साथ रहती हैं । भवमरण होने के बाद भी जीव के साथ जैसे बँधे हुए कर्म जाते हैं तैसे ही न बँधे हुए उम्मीदवार विस्रसोपचय, ये कार्माणवर्गणायें भी साथ जाती हैं । इस जीव में अनंत कार्माणवर्गणायें पहिले से ही मौजूद हैं । उन वर्गणावों में कर्मत्वपरिणमन होना इसका नाम आस्रव है ।
प्रशस्त अनुराग का परिणाम―जिस जीव के प्रशस्त राग है वह प्रशस्त राग यद्यपि वीतराग परमात्मतत्त्व से तो भिन्न चीज है, लेकिन पंचपरमेष्ठियों में, उनके अतिशय में, गुणों में अनुराग होना यही है अनुराग की प्रशस्तता । जिसके यह होता है उसके पुण्यकर्म का आस्रव होता है । प्रभुभक्ति, गुरुसेवा, ज्ञानार्जन, परोपकार आदिक विषयों के लगाव से रहित जो भाव हुआ करते हैं वे सब प्रशस्त अनुराग हैं । प्रशस्त अनुराग होने पर जीव के जो कर्म बँधते हैं वे पुण्य कर्म बंधते हैं। यद्यपि जहाँ तक बंधन होता है वहाँ तक अर्थात् 1॰वें गुणस्थान तक ऐसा नहीं है कि किसी जीव के पुण्यकर्म ही बँधता हो और पापकर्म बिल्कुल न बँधता हो और सकषायतात्मक जिसके पुण्य का बंधन हो रहा है उसके पाप का बंधन भी चलता है। साधु के 1॰वें गुणस्थान तक भी पापकर्म बंध है, लेकिन जिसके प्रशस्त अनुराग है उसके पुण्यकर्म का अनुभाग विशेष होता है और पुण्यबंध की वहाँ विशेषता रहती है।
पुण्यास्रव का अघातियाकर्म से संबंध―देखिये घातियाकर्म 47 हैं, वे सभी के सभी पापकर्म कहलाते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव के, क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव के, 7 पाप प्रकृतियों का नाश हो गया है―अनंतानुबंधी 4, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक् प्रकृति। इनमें सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक्प्रकृति इन दो का बंध नहीं हुआ करता। सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक्प्रकृति ये बंध योग्य नहीं बताये। 5 का बंध होता है। इन दो की सत्ता कब आती है? जब उपशम सम्यक्त्व होता है, तब मिथ्यात्व के 3 खंड हो जाते हैं। उनमें 2 खंड सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति हैं। तो यद्यपि सम्यग्दृष्टि जीव के सम्यक्त्व का घातक पापप्रकृतियों का आस्रव नहीं होता, किंतु शेष घातिया कर्मों का आस्रव चलता रहता है। हाँ, अघातिया कर्मों में पुण्यप्रकृति का बंध होना और पापप्रकृति का बंध न होना, इस दृष्टि से पुण्यबंध की विशेषता आती है और घातिया कर्मों का भी अति शिथिल बंध चलता है।
अनुकंपा का परिणाम―जिस जीव के दयासहित परिणाम है, अंतरंग में करुणा का भाव है और बाहर में मन, वचन, काय का दया के अनुरूप व्यापार है, ऐसा जो दयासहित परिणाम है उससे भी पुण्यकर्म का आस्रव होता है। किसी पुरुष को अपने पुत्र स्त्री की तकलीफ में बहुत बड़ी दया आती है। स्त्री पुत्र का दु:ख देखा नहीं जाता, रोना आ जाता है और उसके दु:ख का यथाशीघ्र दूर करने का अधिकाधिक यत्न किया जाता है, फिर भी उसे दयासहित परिणाम नहीं कहा है। वे जो कुछ क्रियाएँ हो रही हैं वे मोह की ठेस के कारण हो रही है। उसे मोहपरिणाम में सम्मिलित किया है। जिस जीव से हम अपनी विषमसाधना का कुछ ख्याल नहीं रखते ऐसे दु:खी जीवों को देखकर दया का परिणाम होना सो वास्तव में अनुकंपा है। अनुकंपा सहित परिणाम पुण्य के आस्रव का हेतुभूत है।
चित्त की अकलुषता का परिणाम―चित्त में कलुषता न होना, क्रोध, मान, माया, लोभ ये परिणाम भी न होना, ऐसी अकलुषता से जीव के पुण्यकर्म का आस्रव होता है। मंदकषाय हो, शांति की ओर झुकाव हो, क्रोध को हटाने का यत्न हो, मान कषाय को अहित समझे, नम्रता की वृत्ति बनाये, छल कपट को एक भयंकर दाह समझकर कौन इनमें उलझे और अपने उपयोग को भूलभुलैया में डाले, छल से दूर रहने और सरल वृत्ति रखने का यत्न करना, तृष्णा में न बढ़ना, पाये हुए समागम को ही आवश्यकता से अधिक समझकर प्रसन्नता से गुजारा करना और धर्मपालन के लिए अपनी जीवन मानना, इस प्रकार के जो मंद कषाय के परिणाम होते हैं उन परिणामों से पुण्यकर्म का आस्रव होता है ।
पुण्यास्रव के तीन मूल हेतु―इस गाथा में तीन शुभ भावों का निर्देश किया है । प्रशस्तराग, अनुकंपा परिणाम और चित्त में कलुषता का अभाव-इन तीन प्रकार के शुभ परिणामो से जीव के पुण्यकर्म का आस्रव होता है । ये तीन प्रकार के भाव द्रव्यपुण्य के आस्रव के निमित्तमात्र हैं और उन द्रव्यकर्मों के आस्रव से ऊपर भाव पुण्यास्रव होता है । अर्थात् भाव पुण्य का निमित्त पाकर द्रव्यपुण्य प्रकृतियों का आस्रव हुआ करता है । उन परिणामों के निमित्त से और योग के द्वार से प्रवेश करने वाले पुद्गल के जो शुभकर्म का परिणमन होता है वह द्रव्यपुण्यास्रव कहलाता है । अब इस गाथा में जो तीन भाव कहे गए हैं उनका क्रम से स्वरूप कहेंगे । प्रथम प्रशस्त राग का स्वरूप बतला रहे हैं ।