पंचास्तिकाय - गाथा 49: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
ण हि सो समवायादो अत्थंतरिदो दु णाणदो ण।णी ।
अण्णाणीति च वयणं एगत्तप्पसाधगं होदि ।।49।।
समवाय संबंध―कोई दार्शनिक आत्मा और ज्ञान को भिन्न-भिन्न मानकर उसमें समवाय संबंध बताकर जानन क्रिया की सिद्धि करते हैं । समवाय संबंध का लक्षण संयोग से गंभीर है, संयोग में भिन्न क्षेत्रपना है, किंतु समवाय में भिन्न क्षेत्रपना नहीं किया जाता । और यों समझ लीजिए―कथंचित् तादात्म्य कहा जा सकता है । इस प्रकार का संबंध माना है, लेकिन समवाय संबंध मानकर भी वह द्रव्य दो माने गए हैं जहाँ मूल में ही द्वैत चल देगा । अब समवाय संबंध करके कितनी ही घनिष्टता उसकी बतायी जाय तो भी स्वरूप नहीं बन सकता ।
तादात्म्य के विपरीत समवाय की असिद्धि―ज्ञान से भिन्न आत्मा है, वह ज्ञान के समवाय से ज्ञानी कहलाता है, ऐसा कहना युक्त यों नहीं है कि यह तो बतावो कि इस ज्ञान का आत्मा में जब समवाय न हुआ था, संबंध न हुआ था तब क्या यह आत्मा ज्ञानी था या अज्ञानी था? यदि यह कहें कि ज्ञान का समवाय समाप्त होने से पहिले भी यह आत्मा ज्ञानी था तो ज्ञानी तो था ही । अब ज्ञान का समवाय संबंध जोड़ने की आवश्यकता क्या रही? यह संबंध निष्फल ही रहा । यदि यह भेद किया गया कि ज्ञान का समवाय संबंध होने से पहिले यह आत्मा ज्ञानी न था तो वह अज्ञानी भी कैसे रहा? क्या अज्ञान का समवाय होने से अज्ञानी रहा या अज्ञान के साथ एकत्व मानने के कारण, अज्ञानमय होने के कारण यह आत्मा अज्ञानी रहा? यदि कहेंगे कि अज्ञान के समवाय से यह आत्मा अज्ञानी रहा तो वहाँ पर भी प्रश्न करें कि इस अज्ञान का समवाय संबंध होने से पहिले यह आत्मा अज्ञानी था या नहीं? अगर अज्ञानी था तो अज्ञान का समवाय करना निष्फल है और यदि न था, तो अज्ञान का समवाय आत्मा में ही कैसे हो गया । दूसरी बात यह है कि अज्ञान के समवाय से पहिले अज्ञानी न था तो इसका अर्थ यह हुआ कि वह ज्ञानी था । तो ज्ञानी स्वयं ही रहा, फिर ज्ञान के समवाय करने की क्या जरूरत है? आत्मा ही ज्ञानस्वरूप प्रसिद्ध हो गया । अब तो कुछ भी समवाय की पद्धति नहीं रही ।
ज्ञानहीन आत्मा के साथ ज्ञान के समवाय होने के कारण की असिद्धि―आत्मा की ज्ञानरूपता सिद्ध होने पर भी यदि हठ करोगे कि ज्ञान का समवाय होने से पहिले आत्मा ज्ञानी नहीं है तो इसका कुछ कारण तो बतलावो कि यह ज्ञान इस आत्मा से ही क्यों समवाय संबंध रखता है? भीत, ईट, दरी से यह ज्ञान अपना समवाय क्यों नहीं जोड़ देता? कौन-सी खास विशेषता रही, जो यह ज्ञान आत्मा से तो जुड़े और पुद्गल आदिक से न जुड़े । जैसे ज्ञान से भिन्न चीज पुद्गल है, ऐसे ही ज्ञान से भिन्न आत्मा है, और जैसे यह पुद्गल ज्ञानरहित है ऐसे तो यह आत्मा ज्ञान के समवाय के पहिले अज्ञानी कहलाता है । तो आत्मा में और पुद्गल आदिक में जब ज्ञान के लिए सब बातें बराबर हैं तो यह ज्ञान आत्मा में ही जुड़े, पुद्गल आदिक में न जुड़े इसका क्या कारण होगा? तो शंका के उत्तर में प्रति शंका में रूप रखकर जो यह बात कही गयी है कि अज्ञानी आत्मा अज्ञान के समवाय से पहिले ज्ञानी था या न था? यदि था तो अज्ञान का समवाय निष्फल है और यदि न था तो इसका अर्थ है कि ज्ञानी हो गया । ज्ञानी वैसे भी नहीं कहा है, क्योंकि समवाय से पहिले ज्ञान कहाँ रहा? आखिर तुम्हें यह मानना पड़ेगा कि यह आत्मा ज्ञानी है तो ज्ञान के साथ एकत्व है । जो पदार्थ जैसा है वह अपने में एकत्व को लिए हुए है, अपने स्वभाव में तन्मय है और उसही एकत्व से उस वस्तु की सिद्धि होती है तो इसके लिए जैसे अज्ञान के साथ एकता होने के कारण आत्मा को ज्ञान से रहित मानना पड़ा है, इस ही प्रकार यह आत्मा ज्ञानी है तो ज्ञान के साथ एकता रखने के कारण ज्ञान है । ज्ञान जुदा हो, आत्मा जुदा हो, ऐसी बात त्रिकाल भी नहीं है । यह आत्मा ही एक ज्ञानस्वरूप को लिए हुए है । कभी भी यह आत्मा ज्ञान से भिन्न नहीं हो सकता ।
व्यक्तरूप में भी ज्ञानहीनता का अभाव―संसार अवस्था में यद्यपि यह ज्ञान बहुत अधिक ढका हुआ है, अव्यक्त है, प्रकट नहीं हो रहा है और ऐसे भी जीव हैं जिनकी दशा निरखकर आप यह कह बैठेंगे कि आत्मा तो ज्ञान का कुछ नहीं है । ये पत्थर, मिट्टी आदि पृथ्वीकायिक जीव हैं । क्या इनमें यह कल्पना दौड़ती है कि यह जीव है, इसमें ज्ञान है, यह जानता है । कोई ही सिद्धांतवेदी ऐसा कहते हैं कि इनमें जीव है, ज्ञान है, जानते हैं, पर प्राय: लोग इन्हें ज्ञानरहित बताते हैं । कदाचित् जीव भी मान लो तो भी कहेंगे कि है तो जीव, मगर ज्ञानरहित है, ऐसी भी निकृष्ट दशायें हो जाती हैं । उससे भी निम्न दशायें निगोद जीव की हैं, ज्ञानरहित मालूम होते हैं लेकिन जीव है तो कोई ज्ञानरहित नहीं है । कितना भी ज्ञान ढका हो फिर भी कुछ न कुछ निरावरण होने से ज्ञान रहता ही है । पूर्ण ज्ञान पर आवरण नहीं है । जितने अंशों तक यह ज्ञान निरावरण रहता है, कैसी भी निम्नतम स्थिति हो तो भी प्रकट ही रहा करता है । उसके अतिरिक्त जो आवरण योग्य है उसमें भेद चला करता है कि इसका ज्ञान आवृत है, इसका व्यक्त है ।
ज्ञानस्वभाव की प्रतीति का शिक्षण―यह ज्ञान आत्मा का स्वरूप है, इसमें भिन्नता नहीं की जा सकती है । इस कथन से अपने को क्या ग्रहण करना है कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ । ज्ञान के अतिरिक्त मेरा कोई और स्वरूप नहीं है । वैभव आदिक ये मुझसे प्रकट निराले हैं । इनके साथ मेरा कुछ संबंध नहीं है । मैं तो मात्र ज्ञानस्वरूप हूँ । यह सब मोह का अंधेरा है कि जो मैं नहीं हूँ जिसका मुझसे रच संबंध नहीं है ऐसे परिजन वैभव आदिक परपदार्थों में आत्मीयता जगती है । यह खुश होने की बात नहीं है, बड़े कष्ट की बात है । कोई चीज सुहावनी लगी, किसी के प्रति राग जगा और वह अपने अधिकार में हो गया, अपना बन गया, बड़े-बड़े प्रेम से मिल जुलकर रहने लगे तो यह स्थिति संतोष करने लायक नहीं है । यह महान क्लेश का कारण बनेगा, यह संसार ही महागर्त है । आत्मा का जो स्वभाव है स्थिर प्रतिभास, उस स्वभाव से चिगे कि सारी की सारी आपत्ति ही आपत्ति है ।
ज्ञानभाव में निरापदता―भैया ! निरापद तो ज्ञानस्वभाव है । इसको छोड़कर बाकी समस्त चीजें तो आपदा ही हैं । अनुभव करके देख लो । जब अपना उपयोग एक इस ज्ञानस्वभाव के स्वरूप के जानने में रहता है, निकट रहता है, इस ज्ञानभाव को अंगीकार करता हुआ जब हमारा उपयोग चलता है उस समय कितनी निर्विकल्पता रहती है, कितनी निराकुलता और शांति रहती है? जहाँ मेरा तेरा ऐसा विकल्प उठा और जिसे माना कि यह मेरा वैभव है, वैभव में संतोष किया, उसका ही संग्रह बनाये रहने की वासना बनाई, ये सारे उपयोग आपत्ति हैं, समृद्धियां नहीं हैं, ये जीव के स्वरूप नहीं हैं, ये जीव के कलंक हैं । जिन बातों में बढ़कर हम अपने को चतुर मानते हैं वे सब चतुराई-चतुराई नहीं हैं, किंतु जीव का कलंक हैं । चतुराई तो इस जीव की अपने स्वरूप का परिचय बनाये रहना है । एक ही निर्णय रखिये―एक निज शुद्ध आत्मतत्त्व का अनुभव ही हमारे लिए शरण है, सारभूत है, उसमें ही हमारा कल्याण निहित है । अन्य तो सब पर भाव हैं । इस प्रकरण से हमें यह शिक्षा लेनी है कि मे ज्ञानस्वरूप हूँ ज्ञान के सिवाय अन्य कुछ भी मेरे में नहीं है, ऐसा ही दृढ़ निर्णय बनाएँ जिससे मोह का विनाश हो और अपने अंत: प्रभु के दर्शन हों ।