मोक्षशास्त्र - सूत्र 8-25: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ।।8-25।।
(325) पुण्यप्रकृतियों के नाम का निर्देश―सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नामकर्म, शुभगोत्र कर्म ये पुण्य प्रकृतियां कहलाती हैं । शुभ का अर्थ है, जिनका फल संसार में अच्छा माना जाता है । शुभ आयु तीन प्रकार की है―(1) तिर्यंचायु (2) मनुष्यायु और (3) देवायु । यहाँ कुछ संदेह हो सकता है कि मनुष्य और देव इन दो आयु को शुभ कहना तो ठीक था, पर तिर्यंचायु को शुभ क्यों कहा गया? साथ ही गतियों में तिर्यंचगति को अशुभ कहा गया है । तो जब गति अशुभ हैं तो यह आयु भी अशुभ होना चाहिए । पर यह संदेह इसलिए न करना कि आयु का कार्य दूसरा है, गति का कार्य दूसरा है । आयु का कार्य है उस शरीर में जीव को रोके रखना, और गति का कार्य है कि उस भव के अनुरूप परिणामों का होना । तो कोई भी तिर्यंच पशु, पक्षी, कीड़ा मकोड़ा यह नहीं चाहता कि मेरा मरण हो जायें । मरण होता हो तो बचने का भरसक उद्यम करते हैं । इससे सिद्ध है कि तिर्यंच को आयु इष्ट है, किंतु तिर्यंच भव में दुःख विशेष है और वे दुःख सहे नहीं जाते उन्हें दुःख इष्ट नहीं हैं इस कारण तिर्यक् गति अशुभ प्रकृति में शामिल की गई है और तिर्यंचायु शुभ प्रकृति में शामिल की गई है । शुभ नामकर्म में 37 प्रकार की कर्मप्रकृतियां हैं । मनुष्यगति, देवगति, पंचेंद्रियजाति, पाँचों शरीर, तीनों अंगोपांग, पहला संस्थान, पहला संहनन, प्रशस्त वर्ण, प्रशस्त गंध, प्रशस्त रस प्रशस्त स्पर्श, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु परघात । उच्छवास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, वादर, पर्याप्ति, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशस्कीर्ति, निर्माण, और तीर्थंकर नामकर्म । शुभगोत्र एक उच्चगोत्र ही है । सातावेदनीय का पूरा नाम अब सूत्र में दिया हुआ ही है । इस प्रकार ये सब 42 प्रकृतियां पुण्य प्रकृति कहलाती हैं । अब पाप प्रकृतियां कौन सी हैं इसके लिए सूत्र कहते हैं ।