रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 11: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p | <div class="PravachanText"><p><strong>इदमेवेदृशं चैव तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा ।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>इत्यकंपायसांभोवत्सन्मार्गेऽसंशया रुचि: ।।11।।</strong></p> | ||
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<p | <p><strong> देव के देवत्व के प्रति ज्ञानी की प्रखर श्रद्धा</strong>―देव शास्त्र गुरु का जो ज्ञान श्रद्धान पाया, आत्मा के सहज स्वरूप का जो ज्ञान श्रद्धान मिला, उसमें ऐसी दृढ़ता होना कि तत्त्व यही है, तत्त्व इसी प्रकार है, अन्य नहीं है, अन्य प्रकार नहीं है, इस तरह के अकंप जरा भी न कंपे ऐसी रुचि होना सन्मार्ग में उसका नाम है नि:शंकित अंग । जैसे कि तलवार की धार पर पानी चढ़ाया जाता है तो और पानी तो ढुलमुल होता है, पर तलवार पर जो पानी चढ़ चुका वह पानी चलित नहीं होता, जहाँ का तहां ठहरा हुआ है । बर्फ भी बनता है पानी का, पर वह चलित हो जाता, पिघल जाता, बिखर जाता, पर तलवार की धार पर चढ़ा हुआ पानी बिखरता नहीं । उस पानी के चढ़ाने की कोई विधि है तब ही तो कहते हैं कि भाई यह अपने विचार से न हटेगा, इस पर पानी अच्छा चढ़ा हुआ हैं । तो वह चढ़ा हुआ पानी क्या कहलाता? वह एक दृष्टांत है कि जैसे तलवार की धार पर चढ़ा हुआ पानी अचलित है ऐसे ही अचलित श्रद्धा जिसकी है, जिसमें रंच भी कंपन नहीं चलायमानपना नहीं उसे कहते है नि:शंकित अंग । जिसके सम्यग्दर्शन प्रकट हुआ है वह सिद्धांत विरुद्ध भेष और क्रिया निरखकर वहाँ आकर्षित नहीं होता अपनी श्रद्धा से विचलित नहीं होता । देवों का स्वरूप देखिये―अनेक लोगों ने अनेक प्रकार का माना है । अनेक प्रकार के शस्त्र हाथ में लिए है, कोई गदा लिए, कोई चक्र लिए, त्रिशूल लिए, तलवार लिए, धनुष बाण लिए, यों कितने ही प्रकार के शस्त्र लिए है, और इतना ही नहीं, कितने ही देव तो स्त्रीसहित हैं और भक्तजन उनका बड़ा आदर भी करते । और वह स्त्री साथ ही बैठी हो, ऐसा उसका चित्र रखते हैं । उसमें लोग देवत्व की श्रद्धा करते हैं तो कारण क्या है कि देव का जो स्वरूप है वास्तविक कि जो वीतराग हो, सर्वज्ञ हो वह होता है देव, यह लक्ष्य में नहीं है या इस ओर उनकी दृष्टि नहीं है, यहाँ तो किसी ऐसे ब्रह्मचारी को भी नहीं माना जा सकता जो कि घर के दोनों ही स्त्री पुरुष एक साथ बैठे हों ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी रूप में और उनका साथ फोटो खिंचे । तो जैसे भगवान और भगवती हैं ऐसे ही ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी हो जाय यह भी स्वीकार नहीं किया गया । तब फिर जो शस्त्र लिए हो, स्त्री में आसक्त हो जिसका चारित्र ऐसा बना हो कि जरा-जरासी बात में क्रोध आये घमंड बगराये, मायाचारी करे, लोभ करे और जिसके ऐसी वांछा रहती हो कि मैं लोगों को कुछ अपना करतब दिखाऊं तो ऐसा रागसहित, परिग्रह सहित आत्मा देव नहीं कहा जा सकता है । देव के स्वरूप पर सम्यग्दृष्टि की प्रखर श्रद्धा है।</p> | ||
<p | <p><strong> आगम व गुरु के प्रति ज्ञानी की प्रखर श्रद्धा</strong>―आगम में ज्ञानी की प्रखर श्रद्धा है । समीचीन आगम वह है कि जिसमें लिखे हुए उपदेश विषयों से हटायें और आत्मस्वरूप में लगायें । वह है आगम । अब कोई भी जीव विषयों से तब ही हट सकता और अपने स्वरूप में तब ही लग सकता जब उसको तत्त्वज्ञान हो । वस्तु का स्वरूप कैसा है, इस संबंध में यथार्थ ज्ञान हो तो मोह हटेगा । तो जिसमें वस्तुस्वरूप का परिचय कराया गया हो, हिंसा, काम, क्रोधादिक में जिसको वैराग्य कराया गया हो उसे आगम कहते हैं । ज्ञानी जीव को गुरु के विषय में भी दृढ़ श्रद्धा है । अनेक पाखंडी, लोभी, कामी, अभिमानी लोगों को लोगों ने गुरु मान रखा सो सम्यग्दृष्टि के चित्त में यह पूर्ण निर्णय है कि जो कुछ ग्रहण करता है वह गुरु नहीं है । छोड़ना-छोड़ना ही काम होता है गुरुवों का । वस्त्र छोड़ा, घर छोड़ा, आरंभ छोड़ा, परिग्रह छोड़ा, ममत्व छोड़ा, यों छोड़ने-छोड़ने की बात हो होकर जहाँ एक ऐसी मुद्रा रह गई कि वह अब छोड़ी कैसे जा सके? निर्ग्रंथ दिगंबर मुद्रा है तो ऐसे ही आत्मस्वरूप की उन्मुखता रखने वाले पुरुष निर्ग्रंथ दिगंबर गुरु कहला सकते हैं । गुरु का अन्य प्रकार नहीं, ऐसी देव शास्त्र गुरु के विषय में दृढ़ श्रद्धा होना, उसमें शंका न होना सो नि:शंकित अंग कहलाता है ।</p> | ||
<p | <p> <strong>सम्यग्दृष्टि ज्ञानी के इहलोक भय का व परलोक भय का अभाव</strong>―जिसको अपने आत्मा के सही स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, उसको दुनिया में फिर कोई शंका नहीं रहती । शंका कहो, भय कहो, शंका से भय होता है । भय से शंका बनती है, जगत के जीवों को इस लोक का भय लगा हुआ है कि इस जीवन में मेरी आजीविका सही रहेगी या नहीं । इस प्रकार इस लोक संबंधी शंका बनी रहती है, मेरी इज्जत सही रहेगी या नहीं, पता नहीं कैसे-कैसे कानून बनेंगे । मेरा कैसे गुजारा होगा, ऐसा इस जीवन की शंकायें रखा करते है अज्ञानी, किंतु ज्ञानी पुरुष की यह कोई शंका नहीं रहती, क्योंकि वह जानता है कि मेरा आत्मा पूरा है, इसमें दूसरे का कोई प्रवेश नहीं । मेरी कोई चीज मेरे से अलग होती नहीं, बाहर की चीजें हैं । जैसा परिणमें परिणमें, उससे मेरे में क्या हानि होती है, यह निर्णय है ज्ञानी का, जिसने आत्मा के सही स्वरूप का ज्ञान किया, इस कारण इसे इस लोक संबंधी शंका नहीं रहती । कभी यह जीव यदि परलोक की बात कुछ समझी है या चर्चा की है तो उसे परलोक संबंधी भी भय बन जाता है । मरकर मैं कहां जाऊंगा? किस गति में जन्म लूंगा, वहाँ मेरी क्या हालत होगी, ऐसी परलोक की शंका रखते हैं अज्ञानी, किंतु जो ज्ञानी जीव है, जिसको आत्मा के स्वरूप का परिचय है वह जानता है कि मैं हूँ, मेरा स्वरूप है, मेरे स्वरूप में मेरी सारी बात है । परलोक जाऊंगा तो यह मैं पूरा का पूरा परलोक में रहूंगा, मेरा लोक और परलोक तो मेरा चह चैतन्य स्वरूप है । बाहरी चीजों से ज्ञानी अपना लोक परलोक नहीं मानता । अपने आत्म का बोध है इस कारण ज्ञानी को परलोक का भय नहीं रहता ।</p> | ||
<p | <p><strong> सम्यग्ज्ञानी जीव के मरणभय का व वेदनाभय का अभाव</strong>―जीव को मरण का भय बहुत रहता है । मरणभय से सभी जीव दुःखी रहा करते हैं । नारकी जीव तो मरण चाहते हैं पर उनका मरण नहीं होता । जितनी आयु बची है उतनी आयु तक ही रहेंगे नरक में । इनके शरीर के खंड-खंड टुकड़े भी कर दिए जाते हैं, क्योंकि वे नारकी सब परस्पर लड़ते हैं लेकिन वे टुकड़े भी इकट्ठे हो जाते हैं और ज्यों का त्यों शरीर भर जाता है । फिर लड़ते हैं । जो वे नारकी चाहते हैं कि मेरा मरण हो जाय । नरक की वेदना बड़ी कठिन है और उनका मरण बीच में नहीं होता, क्योंकि उनका वैक्रियक शरीर हैं, बाकी तीन गतियों के जीव कोई मरण नहीं चाहते कैसी ही हालत हो जाय, वृद्ध हो गए, कुछ तकलीफ में हो गए, कैसी ही स्थिति हो जाय पर मरण किसी को प्यारा नहीं, कोई मरण नहीं चाहता । पशु-पक्षी, कीड़ा मकोड़ा किसी को मरण इष्ट नहीं है । तो मरण का भय संसारी जीवों को लगा है किंतु ज्ञानी जीव जिसने आत्मा के स्वरूप का परिचय किया है वह जानता है कि मैं तो अमर हूँ । मेरा जो अस्तित्व है वह कभी नष्ट नहीं होता । मैं तो सदा ही रहता हूँ, मेरा मरण नहीं होता । जैसे कोई पुरुष किसी घर में रहता है और घरों में चलता फिरता है, दूसरे घर में पहुंच जाता है तो आदमी तो जिंदा है वही, ऐसे ही आत्मा आज इस शरीर में है कल दूसरे शरीर में है, भले ही कई गतियों में यह जन्म लेता रहा मगर आत्मा तो मूल में वही है, वह कष्ट नहीं होता । ऐसा जानने वाले ज्ञानी को मरण की शंका नहीं हुआ करती । भले ही रोग का रहता है । मेरे शरीर में कोई रोग न हो जाय, अथवा थोड़ा रोग हुआ हो तो यह न बढ़ जाय, तब क्या होगा? यह कठिन रोग लग गया है ऐसी चिंता और शंका रहती है, पर इतनी जानता है कि रोग है किसका । शरीर में कोई परिवर्तनसा हुआ है । वात पित्त कफ नसाजाल मांस आदिक में कुछ परिवर्तन हुआ है, इस ही का नाम रोग कहते है । तो शरीर तो मेरे आत्मस्वरूप से अत्यंत भिन्न हैं, मैं शरीर से अत्यंत निराला हूँ । मेरे आत्मा को रोग नहीं होता । वह बाहर शरीर में इस रोग को निरख रहा है, उसे रोग की शंका नहीं है।</p> | ||
<p | <p><strong> सम्यग्दृष्टि जीव के अरक्षाभय का अगुप्तिभय का व आकस्मिकभय का अभाव</strong>―जीवों को अरक्षा का भय रहता है । मेरा कोई रक्षक नहीं, मेरा कोई समर्थक नहीं, इस प्रकार की शंका रहती हैं । ज्ञानी जीवा को यह शंका नहीं रहती । वह जानता है कि मेरा सहाय करने वाला मेरा भगवान आत्मा है । दूसरा कोई मेरा मददगार नहीं । जब मैं अपने भगवान आत्मस्वरूप की सुध करूँ तो सारे संकट टल जायेंगे । जब निज भगवान आत्म की सुध नहीं रखते, बाहरी पदार्थों में चित्त रमाया करते, तब फिर कौन सहाय बनेगा जिन बाहरी पदार्थो में रम रहे है वे भिन्न हैं, विनाशीक हैं, वे मेरे मददगार कैसे होंगे तो ज्ञानी जीव जानता है कि मैं परिपूर्ण हूँ, मेरा विनाश ही नहीं हैं, फिर रक्षा का प्रश्न क्या । सदा सुरक्षित हूँ । ज्ञानी जीव को अरक्षा की शंका नहीं रहती । अनेक जीवों को अगुप्तिभय रहता है कि मेरा मकान सुरक्षित नहीं हैं, किसी भी ओर से चोर आ सकते है, डाकू आ सकते हैं, चीजें चुरा ले जा सकते है, किवाड़ भी ठीक नहीं है, ऐसी अनेक प्रकार की कल्पनायें करके वे अपनी अगुप्ति का भय बनाये रखते हैं, किंतु ज्ञानी जीव जानता हैं किं मेरे में अगुप्ति कहाँ है । मैं पूरा एक दृढ किले की तरह हूँ, जैसे मजबूत किले के अंदर दुश्मन का प्रवेश नहीं हो सकता, ऐसे ही मेरे स्वरूप में किसी दूसरे का स्वरूप नहीं आ सकता । मैं परिपूर्ण हूँ अधूरा सत् नहीं होता, मेरी अगुप्ति कहाँ? पूरा मैं अपने प्रदेशों में चारों ओर से दृढ़ हूँ । ज्ञानी जीव को अगुप्ति का भय नहीं होता ।</p> | ||
<p | <p> अनेक जीवों को अकस्माद्भय सताता है । न जाने अकस्माद् ही क्या से क्या हो जाय? कहीं से बिजली गिर जाय, छत गिर जाय, और-और भी कल्पनायें करके बहुतसी शंकायें बन जाती हैं, पर ज्ञानी जीव को अकस्माद्भय भी नहीं हैं, क्योंकि वह जानता है कि मेरे में किसी दूसरे से कुछ होता ही नहीं । जो अपने ज्ञानमात्र स्वरूप को देखे और उस ही रूप अपना अनुभव बनाये रहे तो उसे काहे का कष्ट है पर अपने स्वरूप में रह नहीं पाता । बाहरी पदार्थों में अपने सुधार बिगाड़ की कल्पनायें करके दुःखी होते हैं और भय मानते हैं । तो ज्ञानी जीव को अपने आप में कोई शंका नहीं होती ।</p> | ||
<p | <p><strong> दुर्लभ मनुष्यजन्म का सदुपयोग करने का संदेश</strong>―देखिये यह मनुष्यजन्म बड़ी कठिनाई से मिला है । संसार में कितनी ही तरह के जीव हैं―एकेंद्रिय, दो इंद्रिय, चौइंद्रिय आदिक, इन सब भवों में भी हम रहे । इन सब भवों में रुलते-रुलते अनंतकाल व्यतीत हो गया । आज एक दुर्लभ मानव जीवन मिला तो इस जीवन में मेरे साथ क्या रहने का है जो भी समागम है वे सब मेरे से अत्यंत भिन्न हैं, मेरे अब भी नहीं हैं, मरण होने पर तो तिनका भी साथ नहीं जाता । तब फिर बाहरी पदार्थों की कल्पना में क्यों अपना जीवन खोया जा रहा है जिस भाग्य के उदय से मनुष्य जन्म मिला हैं उसमें इतना भाग्य तो कम से कम है ही कि गुजारा चले, पर इतनी हिम्मत करना चाहिए कि जो भी साधन भाग्य से मिले उनमें ही गुजारा कर लूंगा । और किसी भी वाह्य पदार्थ से अपनी रक्षा न मानना, सुख न मानना, अपने ही स्वरूप को आनंदमय निरखकर उस ही में तृप्त रहना, यह कला सीख लेना चाहिए इस जीवन में, इसे कहते हैं अध्यात्मकला । बाहर चित्त दे देकर अब दुःखी हो रहे है । शरीर, धन, वैभव, कुटुंब, परिजन, इज्जत प्रतिष्ठा आदि बाहरी बातों में चित्त दे देकर दु:खी हो रहे हैं । वे पुरुष धन्य हैं जो इस जीवन में अपने कल्याण को प्रमुखता देते है, बाकी सब चीजों को गौण रखते हैं । आत्मकल्याण करने के लिए ही यह मानव जीवन है, ऐसा निर्णय रखना चाहिये । ज्ञानी जीव के यह निर्णय है इस कारण उसके ये कोई भय नहीं होते ।</p> | ||
<p | <p> <strong>बाह्य पदार्थों के लगाव की व्यर्थता व अनर्थता</strong>―ज्ञानी जानता है कि मेरा वास्तविक वैभव क्या है? शरीर निराला हैं, मैं आत्मज्योति निराला हूँ । वही मेरा वास्तविक वैभव है । यह शरीर तो बाह्य पदार्थ है । जैसे तार और बिजली का करेन्ट, ये दोनों अलग चीजें हैं ऐसे ही शरीर और आत्मज्योति ये भी अलग-अलग चीजें है । जैसे तार के अंदर वह बिजली रह रही है ऐसे ही इस शरीर के अंदर वह आत्मज्योति रह रही है । तो यह शरीर तो तार की तरह है और आत्मज्योति बिजली की तरह है । शरीर निराला है, आत्मा निराला है, पर रह रहा है शरीर में । तो यह शरीर प्रमाण जो एक आत्मज्योति है वह ज्ञान स्वरूप है । मेरा धन ज्ञान स्वरूप है, अन्य तो परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है । यह देह मैं नहीं और देह के संबंधी स्त्री पुत्रादिक भी मेरे नहीं । ये भी अपनी स्वतंत्र सत्ता रखते हैं । ये सब भिन्न द्रव्य हैं । यह तो एक संयोग बन गया है । जैसे दिन भर विचरने वाले पक्षी रात्रि में किसी पेड़ पर इकट्ठे होते हैं, संयोग बन गया है, पर रात्रि व्यतीत होते ही अपने-अपने निर्दिष्ट स्थान को चले जाते हैं, ऐसे ही कोई किसी भव से आया कोई किसी भव से, किसी एक कुटी में कुछ जीव इकट्ठे हो गये और अपनी-अपनी आयु पूर्ण होते ही वे सब बिछुड़ जायेंगे । तो मेरे आत्मा के ज्ञानस्वरूप को छोड़कर कुछ भी मेरा नहीं है । सब मुझ से भिन्न हैं । जिनका संयोग हुआ उनका वियोग नियम से होगा और जगत में ऐसे संबंध अनंतबार हुए, अनंत बार बिछुड़े, फिर इन समागमों की शंका क्यों, वांछा क्यों? जिनका संयोग हुआ उनका वियोग जरूर होगा । मैं तो ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ, अमर हूँ, मैं नष्ट न होऊंगा । जिन जिनका संयोग हुआ है वे सब बिछुड़ जायेंगे, पर मेरा तो ज्ञानस्वरूप है, वह मेरे से बिछुड़कर कहीं जायगा? वही तो मैं हूँ । ऐसा दृढ़ निर्णय है ज्ञानी जीव के तो उसको बाह्य परिग्रहों के बिछुड़ने का भय नहीं रहता ।</p> | ||
<p | <p><strong> बाह्यार्थविषयक विकल्प छोड़कर अंत:प्रकाश में संतुष्ट होने का कर्तव्य</strong>―भैया, जितने समागम मिले हैं वे सब बिछुड़ेंगे जरूर । चाहे अपने जीते जी ये सब बिछुड़ जायें और चाहे हमारे सामने खुद बिछुड़ जाये, पर बिछुड़ेंगे जरूर । तो अभी से अगर आत्मा के ज्ञान की बात न सीखी, आत्मज्ञान न समाया तो जीवन में ठिकाना नहीं है । दुःखी होकर मरना पड़ता है । यदि आत्मा का कुछ बोध है तो वह मरते समय दुःखी न होगा । वह तो अपने स्वरूप में उपयोग लगाकर प्रसन्नता के साथ जायगा । क्या है मेरा यहाँ, इसका उसे कुछ विकल्प नहीं । तो देखिये―मूल तो विपत्ति अज्ञान है । मगर जितना ये बाहरी समागम मिल जाते है उतना ही उसको दुःख उठाना पड़ता हैं, क्योंकि यह तो निश्चित है कि वियोग जरूर होगा और संयोग की चीज में प्रेम बहुत कर डाला, मोह बहुत कर डाला, तो जब वियोग होगा तब कष्ट होगा ही । ज्ञानी जानता है कि ये खेत मकान धन दौलत आदिक जो 10 प्रकार के बाहरी परिग्रह हैं ये मेरे कुछ नहीं है । यह मैं जीव हूँ । ज्ञानस्वरूप हूँ । मुझ में बाह्य पदार्थ झलकते रहते हैं, उसका स्वरूप है, स्वभाव है । वास्तव में तो मैं किसी बाह्य पदार्थ को जानता भी नहीं हूँ । तो फिर किसको जानता हूँ? बाह्य पदार्थों का जो झलक हो रहा है यहाँ, बस उस झलकने वाली नित्य आत्मा को मैं जानता हूँ, जब मेरा इन बाहरी पदार्थों से जानने तक का सीधा संबंध नहीं तब किसी अन्य परमाणु मात्र से भी मेरा संबंध क्या हो सकता? सो यह सम्यग्दृष्टि जीव सर्व भयों से दूर हैं, और वह जानता है कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ । केवल ज्ञान-ज्ञान ही रहे जाननहार ही रहे तो मेरे सहज आनंद रहेगा और जैसे ही इन बाहरी पदार्थो में कुछ भी ध्यान लगाया, ख्याल किया तो कष्ट होने लगता है । तो मेरा सहाय मेरा धर्म है, अन्य कुछ सहाय नहीं । धर्म के मायने मुझ आत्मा का स्वभाव केवल जाननहार रहे, इष्ट अनिष्ट कल्पनायें जगे, वहाँ कोई कष्ट नहीं रहता । इस प्रकार नि:शंकित अंग का वर्णन किया, अब नि:कांक्षित अंग का वर्णन करते हैं ।</p> | ||
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
इदमेवेदृशं चैव तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा ।
इत्यकंपायसांभोवत्सन्मार्गेऽसंशया रुचि: ।।11।।
देव के देवत्व के प्रति ज्ञानी की प्रखर श्रद्धा―देव शास्त्र गुरु का जो ज्ञान श्रद्धान पाया, आत्मा के सहज स्वरूप का जो ज्ञान श्रद्धान मिला, उसमें ऐसी दृढ़ता होना कि तत्त्व यही है, तत्त्व इसी प्रकार है, अन्य नहीं है, अन्य प्रकार नहीं है, इस तरह के अकंप जरा भी न कंपे ऐसी रुचि होना सन्मार्ग में उसका नाम है नि:शंकित अंग । जैसे कि तलवार की धार पर पानी चढ़ाया जाता है तो और पानी तो ढुलमुल होता है, पर तलवार पर जो पानी चढ़ चुका वह पानी चलित नहीं होता, जहाँ का तहां ठहरा हुआ है । बर्फ भी बनता है पानी का, पर वह चलित हो जाता, पिघल जाता, बिखर जाता, पर तलवार की धार पर चढ़ा हुआ पानी बिखरता नहीं । उस पानी के चढ़ाने की कोई विधि है तब ही तो कहते हैं कि भाई यह अपने विचार से न हटेगा, इस पर पानी अच्छा चढ़ा हुआ हैं । तो वह चढ़ा हुआ पानी क्या कहलाता? वह एक दृष्टांत है कि जैसे तलवार की धार पर चढ़ा हुआ पानी अचलित है ऐसे ही अचलित श्रद्धा जिसकी है, जिसमें रंच भी कंपन नहीं चलायमानपना नहीं उसे कहते है नि:शंकित अंग । जिसके सम्यग्दर्शन प्रकट हुआ है वह सिद्धांत विरुद्ध भेष और क्रिया निरखकर वहाँ आकर्षित नहीं होता अपनी श्रद्धा से विचलित नहीं होता । देवों का स्वरूप देखिये―अनेक लोगों ने अनेक प्रकार का माना है । अनेक प्रकार के शस्त्र हाथ में लिए है, कोई गदा लिए, कोई चक्र लिए, त्रिशूल लिए, तलवार लिए, धनुष बाण लिए, यों कितने ही प्रकार के शस्त्र लिए है, और इतना ही नहीं, कितने ही देव तो स्त्रीसहित हैं और भक्तजन उनका बड़ा आदर भी करते । और वह स्त्री साथ ही बैठी हो, ऐसा उसका चित्र रखते हैं । उसमें लोग देवत्व की श्रद्धा करते हैं तो कारण क्या है कि देव का जो स्वरूप है वास्तविक कि जो वीतराग हो, सर्वज्ञ हो वह होता है देव, यह लक्ष्य में नहीं है या इस ओर उनकी दृष्टि नहीं है, यहाँ तो किसी ऐसे ब्रह्मचारी को भी नहीं माना जा सकता जो कि घर के दोनों ही स्त्री पुरुष एक साथ बैठे हों ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी रूप में और उनका साथ फोटो खिंचे । तो जैसे भगवान और भगवती हैं ऐसे ही ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी हो जाय यह भी स्वीकार नहीं किया गया । तब फिर जो शस्त्र लिए हो, स्त्री में आसक्त हो जिसका चारित्र ऐसा बना हो कि जरा-जरासी बात में क्रोध आये घमंड बगराये, मायाचारी करे, लोभ करे और जिसके ऐसी वांछा रहती हो कि मैं लोगों को कुछ अपना करतब दिखाऊं तो ऐसा रागसहित, परिग्रह सहित आत्मा देव नहीं कहा जा सकता है । देव के स्वरूप पर सम्यग्दृष्टि की प्रखर श्रद्धा है।
आगम व गुरु के प्रति ज्ञानी की प्रखर श्रद्धा―आगम में ज्ञानी की प्रखर श्रद्धा है । समीचीन आगम वह है कि जिसमें लिखे हुए उपदेश विषयों से हटायें और आत्मस्वरूप में लगायें । वह है आगम । अब कोई भी जीव विषयों से तब ही हट सकता और अपने स्वरूप में तब ही लग सकता जब उसको तत्त्वज्ञान हो । वस्तु का स्वरूप कैसा है, इस संबंध में यथार्थ ज्ञान हो तो मोह हटेगा । तो जिसमें वस्तुस्वरूप का परिचय कराया गया हो, हिंसा, काम, क्रोधादिक में जिसको वैराग्य कराया गया हो उसे आगम कहते हैं । ज्ञानी जीव को गुरु के विषय में भी दृढ़ श्रद्धा है । अनेक पाखंडी, लोभी, कामी, अभिमानी लोगों को लोगों ने गुरु मान रखा सो सम्यग्दृष्टि के चित्त में यह पूर्ण निर्णय है कि जो कुछ ग्रहण करता है वह गुरु नहीं है । छोड़ना-छोड़ना ही काम होता है गुरुवों का । वस्त्र छोड़ा, घर छोड़ा, आरंभ छोड़ा, परिग्रह छोड़ा, ममत्व छोड़ा, यों छोड़ने-छोड़ने की बात हो होकर जहाँ एक ऐसी मुद्रा रह गई कि वह अब छोड़ी कैसे जा सके? निर्ग्रंथ दिगंबर मुद्रा है तो ऐसे ही आत्मस्वरूप की उन्मुखता रखने वाले पुरुष निर्ग्रंथ दिगंबर गुरु कहला सकते हैं । गुरु का अन्य प्रकार नहीं, ऐसी देव शास्त्र गुरु के विषय में दृढ़ श्रद्धा होना, उसमें शंका न होना सो नि:शंकित अंग कहलाता है ।
सम्यग्दृष्टि ज्ञानी के इहलोक भय का व परलोक भय का अभाव―जिसको अपने आत्मा के सही स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, उसको दुनिया में फिर कोई शंका नहीं रहती । शंका कहो, भय कहो, शंका से भय होता है । भय से शंका बनती है, जगत के जीवों को इस लोक का भय लगा हुआ है कि इस जीवन में मेरी आजीविका सही रहेगी या नहीं । इस प्रकार इस लोक संबंधी शंका बनी रहती है, मेरी इज्जत सही रहेगी या नहीं, पता नहीं कैसे-कैसे कानून बनेंगे । मेरा कैसे गुजारा होगा, ऐसा इस जीवन की शंकायें रखा करते है अज्ञानी, किंतु ज्ञानी पुरुष की यह कोई शंका नहीं रहती, क्योंकि वह जानता है कि मेरा आत्मा पूरा है, इसमें दूसरे का कोई प्रवेश नहीं । मेरी कोई चीज मेरे से अलग होती नहीं, बाहर की चीजें हैं । जैसा परिणमें परिणमें, उससे मेरे में क्या हानि होती है, यह निर्णय है ज्ञानी का, जिसने आत्मा के सही स्वरूप का ज्ञान किया, इस कारण इसे इस लोक संबंधी शंका नहीं रहती । कभी यह जीव यदि परलोक की बात कुछ समझी है या चर्चा की है तो उसे परलोक संबंधी भी भय बन जाता है । मरकर मैं कहां जाऊंगा? किस गति में जन्म लूंगा, वहाँ मेरी क्या हालत होगी, ऐसी परलोक की शंका रखते हैं अज्ञानी, किंतु जो ज्ञानी जीव है, जिसको आत्मा के स्वरूप का परिचय है वह जानता है कि मैं हूँ, मेरा स्वरूप है, मेरे स्वरूप में मेरी सारी बात है । परलोक जाऊंगा तो यह मैं पूरा का पूरा परलोक में रहूंगा, मेरा लोक और परलोक तो मेरा चह चैतन्य स्वरूप है । बाहरी चीजों से ज्ञानी अपना लोक परलोक नहीं मानता । अपने आत्म का बोध है इस कारण ज्ञानी को परलोक का भय नहीं रहता ।
सम्यग्ज्ञानी जीव के मरणभय का व वेदनाभय का अभाव―जीव को मरण का भय बहुत रहता है । मरणभय से सभी जीव दुःखी रहा करते हैं । नारकी जीव तो मरण चाहते हैं पर उनका मरण नहीं होता । जितनी आयु बची है उतनी आयु तक ही रहेंगे नरक में । इनके शरीर के खंड-खंड टुकड़े भी कर दिए जाते हैं, क्योंकि वे नारकी सब परस्पर लड़ते हैं लेकिन वे टुकड़े भी इकट्ठे हो जाते हैं और ज्यों का त्यों शरीर भर जाता है । फिर लड़ते हैं । जो वे नारकी चाहते हैं कि मेरा मरण हो जाय । नरक की वेदना बड़ी कठिन है और उनका मरण बीच में नहीं होता, क्योंकि उनका वैक्रियक शरीर हैं, बाकी तीन गतियों के जीव कोई मरण नहीं चाहते कैसी ही हालत हो जाय, वृद्ध हो गए, कुछ तकलीफ में हो गए, कैसी ही स्थिति हो जाय पर मरण किसी को प्यारा नहीं, कोई मरण नहीं चाहता । पशु-पक्षी, कीड़ा मकोड़ा किसी को मरण इष्ट नहीं है । तो मरण का भय संसारी जीवों को लगा है किंतु ज्ञानी जीव जिसने आत्मा के स्वरूप का परिचय किया है वह जानता है कि मैं तो अमर हूँ । मेरा जो अस्तित्व है वह कभी नष्ट नहीं होता । मैं तो सदा ही रहता हूँ, मेरा मरण नहीं होता । जैसे कोई पुरुष किसी घर में रहता है और घरों में चलता फिरता है, दूसरे घर में पहुंच जाता है तो आदमी तो जिंदा है वही, ऐसे ही आत्मा आज इस शरीर में है कल दूसरे शरीर में है, भले ही कई गतियों में यह जन्म लेता रहा मगर आत्मा तो मूल में वही है, वह कष्ट नहीं होता । ऐसा जानने वाले ज्ञानी को मरण की शंका नहीं हुआ करती । भले ही रोग का रहता है । मेरे शरीर में कोई रोग न हो जाय, अथवा थोड़ा रोग हुआ हो तो यह न बढ़ जाय, तब क्या होगा? यह कठिन रोग लग गया है ऐसी चिंता और शंका रहती है, पर इतनी जानता है कि रोग है किसका । शरीर में कोई परिवर्तनसा हुआ है । वात पित्त कफ नसाजाल मांस आदिक में कुछ परिवर्तन हुआ है, इस ही का नाम रोग कहते है । तो शरीर तो मेरे आत्मस्वरूप से अत्यंत भिन्न हैं, मैं शरीर से अत्यंत निराला हूँ । मेरे आत्मा को रोग नहीं होता । वह बाहर शरीर में इस रोग को निरख रहा है, उसे रोग की शंका नहीं है।
सम्यग्दृष्टि जीव के अरक्षाभय का अगुप्तिभय का व आकस्मिकभय का अभाव―जीवों को अरक्षा का भय रहता है । मेरा कोई रक्षक नहीं, मेरा कोई समर्थक नहीं, इस प्रकार की शंका रहती हैं । ज्ञानी जीवा को यह शंका नहीं रहती । वह जानता है कि मेरा सहाय करने वाला मेरा भगवान आत्मा है । दूसरा कोई मेरा मददगार नहीं । जब मैं अपने भगवान आत्मस्वरूप की सुध करूँ तो सारे संकट टल जायेंगे । जब निज भगवान आत्म की सुध नहीं रखते, बाहरी पदार्थों में चित्त रमाया करते, तब फिर कौन सहाय बनेगा जिन बाहरी पदार्थो में रम रहे है वे भिन्न हैं, विनाशीक हैं, वे मेरे मददगार कैसे होंगे तो ज्ञानी जीव जानता है कि मैं परिपूर्ण हूँ, मेरा विनाश ही नहीं हैं, फिर रक्षा का प्रश्न क्या । सदा सुरक्षित हूँ । ज्ञानी जीव को अरक्षा की शंका नहीं रहती । अनेक जीवों को अगुप्तिभय रहता है कि मेरा मकान सुरक्षित नहीं हैं, किसी भी ओर से चोर आ सकते है, डाकू आ सकते हैं, चीजें चुरा ले जा सकते है, किवाड़ भी ठीक नहीं है, ऐसी अनेक प्रकार की कल्पनायें करके वे अपनी अगुप्ति का भय बनाये रखते हैं, किंतु ज्ञानी जीव जानता हैं किं मेरे में अगुप्ति कहाँ है । मैं पूरा एक दृढ किले की तरह हूँ, जैसे मजबूत किले के अंदर दुश्मन का प्रवेश नहीं हो सकता, ऐसे ही मेरे स्वरूप में किसी दूसरे का स्वरूप नहीं आ सकता । मैं परिपूर्ण हूँ अधूरा सत् नहीं होता, मेरी अगुप्ति कहाँ? पूरा मैं अपने प्रदेशों में चारों ओर से दृढ़ हूँ । ज्ञानी जीव को अगुप्ति का भय नहीं होता ।
अनेक जीवों को अकस्माद्भय सताता है । न जाने अकस्माद् ही क्या से क्या हो जाय? कहीं से बिजली गिर जाय, छत गिर जाय, और-और भी कल्पनायें करके बहुतसी शंकायें बन जाती हैं, पर ज्ञानी जीव को अकस्माद्भय भी नहीं हैं, क्योंकि वह जानता है कि मेरे में किसी दूसरे से कुछ होता ही नहीं । जो अपने ज्ञानमात्र स्वरूप को देखे और उस ही रूप अपना अनुभव बनाये रहे तो उसे काहे का कष्ट है पर अपने स्वरूप में रह नहीं पाता । बाहरी पदार्थों में अपने सुधार बिगाड़ की कल्पनायें करके दुःखी होते हैं और भय मानते हैं । तो ज्ञानी जीव को अपने आप में कोई शंका नहीं होती ।
दुर्लभ मनुष्यजन्म का सदुपयोग करने का संदेश―देखिये यह मनुष्यजन्म बड़ी कठिनाई से मिला है । संसार में कितनी ही तरह के जीव हैं―एकेंद्रिय, दो इंद्रिय, चौइंद्रिय आदिक, इन सब भवों में भी हम रहे । इन सब भवों में रुलते-रुलते अनंतकाल व्यतीत हो गया । आज एक दुर्लभ मानव जीवन मिला तो इस जीवन में मेरे साथ क्या रहने का है जो भी समागम है वे सब मेरे से अत्यंत भिन्न हैं, मेरे अब भी नहीं हैं, मरण होने पर तो तिनका भी साथ नहीं जाता । तब फिर बाहरी पदार्थों की कल्पना में क्यों अपना जीवन खोया जा रहा है जिस भाग्य के उदय से मनुष्य जन्म मिला हैं उसमें इतना भाग्य तो कम से कम है ही कि गुजारा चले, पर इतनी हिम्मत करना चाहिए कि जो भी साधन भाग्य से मिले उनमें ही गुजारा कर लूंगा । और किसी भी वाह्य पदार्थ से अपनी रक्षा न मानना, सुख न मानना, अपने ही स्वरूप को आनंदमय निरखकर उस ही में तृप्त रहना, यह कला सीख लेना चाहिए इस जीवन में, इसे कहते हैं अध्यात्मकला । बाहर चित्त दे देकर अब दुःखी हो रहे है । शरीर, धन, वैभव, कुटुंब, परिजन, इज्जत प्रतिष्ठा आदि बाहरी बातों में चित्त दे देकर दु:खी हो रहे हैं । वे पुरुष धन्य हैं जो इस जीवन में अपने कल्याण को प्रमुखता देते है, बाकी सब चीजों को गौण रखते हैं । आत्मकल्याण करने के लिए ही यह मानव जीवन है, ऐसा निर्णय रखना चाहिये । ज्ञानी जीव के यह निर्णय है इस कारण उसके ये कोई भय नहीं होते ।
बाह्य पदार्थों के लगाव की व्यर्थता व अनर्थता―ज्ञानी जानता है कि मेरा वास्तविक वैभव क्या है? शरीर निराला हैं, मैं आत्मज्योति निराला हूँ । वही मेरा वास्तविक वैभव है । यह शरीर तो बाह्य पदार्थ है । जैसे तार और बिजली का करेन्ट, ये दोनों अलग चीजें हैं ऐसे ही शरीर और आत्मज्योति ये भी अलग-अलग चीजें है । जैसे तार के अंदर वह बिजली रह रही है ऐसे ही इस शरीर के अंदर वह आत्मज्योति रह रही है । तो यह शरीर तो तार की तरह है और आत्मज्योति बिजली की तरह है । शरीर निराला है, आत्मा निराला है, पर रह रहा है शरीर में । तो यह शरीर प्रमाण जो एक आत्मज्योति है वह ज्ञान स्वरूप है । मेरा धन ज्ञान स्वरूप है, अन्य तो परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है । यह देह मैं नहीं और देह के संबंधी स्त्री पुत्रादिक भी मेरे नहीं । ये भी अपनी स्वतंत्र सत्ता रखते हैं । ये सब भिन्न द्रव्य हैं । यह तो एक संयोग बन गया है । जैसे दिन भर विचरने वाले पक्षी रात्रि में किसी पेड़ पर इकट्ठे होते हैं, संयोग बन गया है, पर रात्रि व्यतीत होते ही अपने-अपने निर्दिष्ट स्थान को चले जाते हैं, ऐसे ही कोई किसी भव से आया कोई किसी भव से, किसी एक कुटी में कुछ जीव इकट्ठे हो गये और अपनी-अपनी आयु पूर्ण होते ही वे सब बिछुड़ जायेंगे । तो मेरे आत्मा के ज्ञानस्वरूप को छोड़कर कुछ भी मेरा नहीं है । सब मुझ से भिन्न हैं । जिनका संयोग हुआ उनका वियोग नियम से होगा और जगत में ऐसे संबंध अनंतबार हुए, अनंत बार बिछुड़े, फिर इन समागमों की शंका क्यों, वांछा क्यों? जिनका संयोग हुआ उनका वियोग जरूर होगा । मैं तो ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ, अमर हूँ, मैं नष्ट न होऊंगा । जिन जिनका संयोग हुआ है वे सब बिछुड़ जायेंगे, पर मेरा तो ज्ञानस्वरूप है, वह मेरे से बिछुड़कर कहीं जायगा? वही तो मैं हूँ । ऐसा दृढ़ निर्णय है ज्ञानी जीव के तो उसको बाह्य परिग्रहों के बिछुड़ने का भय नहीं रहता ।
बाह्यार्थविषयक विकल्प छोड़कर अंत:प्रकाश में संतुष्ट होने का कर्तव्य―भैया, जितने समागम मिले हैं वे सब बिछुड़ेंगे जरूर । चाहे अपने जीते जी ये सब बिछुड़ जायें और चाहे हमारे सामने खुद बिछुड़ जाये, पर बिछुड़ेंगे जरूर । तो अभी से अगर आत्मा के ज्ञान की बात न सीखी, आत्मज्ञान न समाया तो जीवन में ठिकाना नहीं है । दुःखी होकर मरना पड़ता है । यदि आत्मा का कुछ बोध है तो वह मरते समय दुःखी न होगा । वह तो अपने स्वरूप में उपयोग लगाकर प्रसन्नता के साथ जायगा । क्या है मेरा यहाँ, इसका उसे कुछ विकल्प नहीं । तो देखिये―मूल तो विपत्ति अज्ञान है । मगर जितना ये बाहरी समागम मिल जाते है उतना ही उसको दुःख उठाना पड़ता हैं, क्योंकि यह तो निश्चित है कि वियोग जरूर होगा और संयोग की चीज में प्रेम बहुत कर डाला, मोह बहुत कर डाला, तो जब वियोग होगा तब कष्ट होगा ही । ज्ञानी जानता है कि ये खेत मकान धन दौलत आदिक जो 10 प्रकार के बाहरी परिग्रह हैं ये मेरे कुछ नहीं है । यह मैं जीव हूँ । ज्ञानस्वरूप हूँ । मुझ में बाह्य पदार्थ झलकते रहते हैं, उसका स्वरूप है, स्वभाव है । वास्तव में तो मैं किसी बाह्य पदार्थ को जानता भी नहीं हूँ । तो फिर किसको जानता हूँ? बाह्य पदार्थों का जो झलक हो रहा है यहाँ, बस उस झलकने वाली नित्य आत्मा को मैं जानता हूँ, जब मेरा इन बाहरी पदार्थों से जानने तक का सीधा संबंध नहीं तब किसी अन्य परमाणु मात्र से भी मेरा संबंध क्या हो सकता? सो यह सम्यग्दृष्टि जीव सर्व भयों से दूर हैं, और वह जानता है कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ । केवल ज्ञान-ज्ञान ही रहे जाननहार ही रहे तो मेरे सहज आनंद रहेगा और जैसे ही इन बाहरी पदार्थो में कुछ भी ध्यान लगाया, ख्याल किया तो कष्ट होने लगता है । तो मेरा सहाय मेरा धर्म है, अन्य कुछ सहाय नहीं । धर्म के मायने मुझ आत्मा का स्वभाव केवल जाननहार रहे, इष्ट अनिष्ट कल्पनायें जगे, वहाँ कोई कष्ट नहीं रहता । इस प्रकार नि:शंकित अंग का वर्णन किया, अब नि:कांक्षित अंग का वर्णन करते हैं ।