वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 12
From जैनकोष
कर्मपरवशे सांते दुखैरंतरितोदये ।
पापबीजे सुखेनास्था श्रद्धानाकङक्षणा स्मृता ।।12।।
पराधीन सुख में लगाव रखने के अपराध का ज्ञानी के अभाव―सम्यग्दृष्टि जीव के नि:कांक्षित अंग होता है । वह किसी वस्तु की चाह नहीं करता और धर्म के एवज में तो कभी कुछ चाह होती ही नहीं । अज्ञानी जीव किसमें चाह किये हुए हैं? हम मनचाही चीजें खा पी लेंगे अमुक-अमुक चीजें छू लेंगे, छूने का सुख मान लेंगे स्वाद का सुख मान लेंगे गंध का सुख मान लेंगे, सुंदर-सुंदर रूपावलोकन कर लेंगे, कर्णों से खूब राग रागनी के शब्द सुनकर मौज मान लेंगे, इस प्रकार की चाह अज्ञानी जीव किया करते हैं । अब जरा देखो तो सही कि ये सुख है कहां ? सर्वप्रथम तो ये कर्म के अधीन है । यदि कर्म का उदय हो तो वे चीजें भी मिल जायें जिनको इंद्रियों द्वारा भोगा जाता । तो सर्वप्रथम सर्व कुछ समागम सांसारिक सुख कर्माधीन हैं । और ये सब सांसारिक सुख मात्र कर्माधीन है इतना ही नहीं किंतु इनका विनाश होता है । कर्म के अधीन तो है पर पुण्यकर्म का उदय आये बिना करोड़ों उपाय कर लिये जायें फिर भी सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती । वे जीव तो पौद्गलिक है जो इस जीवन में सुख दुःख भोगने के लिए नाना प्रकार के विकल्प करते हैं नाना प्रकार की चिंतायें रखते है । जो उदय में है सो होगा । और फिर सांसारिक समागमों की अभिलाषा ही क्यों रखना । आत्मा के स्वरूप को देखें उसमें ही रमे और प्रसन्न रहें । यह काम करने को है वास्तव में पर जिसके अज्ञान छाया है वह बाह्य पदार्थो की आकांक्षा करता है । संसार के जितने सुख हैं वे सब कर्म के अधीन हैं । वे कर्म अंत करके सहित है जो कि पराधीन सुख है वे आखिर कितने दिनों तक भोगे जा सकते? वे सब विघट जायेंगे । तो इंद्रियजंय जितने सुख है वे अपने इष्ट विषय के अधीन है । इष्ट का समागम जो है वह जब नष्ट हो जायगा तब सुख भी नष्ट हो जायगा ।
विनश्वर और दुःखव्याप्त सांसारिक सुख के लगाव के अपराध की ज्ञानी में असंभवता―यहाँ का सुख क्षणभंगुर है । जैसे बिजली चमकती है और समाप्त हो जाती है ऐसे ही संसार का सुख क्षणभर को मिला और समाप्त हो जाता है । कुछ ही दिनों के लिए ये सब साधन मिल रहें हैं । तो आप यह सोचें कि इस अनंतकाल के सामने यह 10-20-50 वर्ष का जीवन क्या गिनती रखता है? इसकी क्या गिनती समुद्र के एक बूंद बराबर भी नहीं । यह इंद्रियसुख क्षणभर है पराधीन है पराधीन है । तो जिस सुख में इतनी पराधीनतायें हैं वे सब हेय हैं । ये सब सुख विनाशीक हैं । अच्छा तो दो बातें सांसारिक सुख में मिली―(1) ये सांसारिक सुख कर्मोदय के अधीन हैं और (2) विनाशीक हैं । अब तीसरी बात देखिये―जितने समय को ये सांसारिक सुख मिलें है उतने समय भी ये सुख नहीं रहते । बीच-बीच में अनेक दुःख आते रहते हैं । एक दिन तो क्या एक घंटा भी सुख से लगातार किसी का नहीं गुजरता । तो बीच-बीच में दुःख का उदय आता रहता है । कैसे? खूब धन है खाने पीने पहिनने ओढ़ने आदि के अच्छे साधन हैं बड़ा आराम है, मगर कोई रोग हो जाय तो उसका धन वैभव का आराम क्या रहा? तो एक तरह का सुख तो है कल्पना का किंतु उसमें दुःख अनेक भरे पड़े हैं । वैभव है खूब और स्त्री पुत्र मित्रादि किसी का मरण हो गया, वियोग हो गया तो जो बाहरी समागम का सुख मिला है उसकी क्या कीमत हुई? कभी अपमान हो जाता हैं । जो जितना बड़ा बन गया लोक में वह उतना ही अधिक जरा-जरा सी बात का अपमान महसूस करता है उसका ही दुःख लगा हुआ है । कभी धन की हानि हो गई । सुख तो था, आमदनी तो खूब थी मगर अचानक धन नष्ट हो गया तो लो वहीं एक दुःख आ गया । दुःख के कुछ नाम नहीं खुद की कल्पना से अनेक दुःख हैं मगर एक दुःख के बाद जब दूसरा दुःख आता है तो लोग यह कहने लगते हैं कि इससे तो वही दुःख अच्छा था । अब दूसरा दुःख उसे बिल्कुल हल्का लगने लगता । अब दूसरे दुःख के बाद कोई तीसरा दुःख आ जाय तो वह तीसरा दुःख दूसरे दुःख की अपेक्षा बड़ा मालूम होता है । याने पहले का दुःख उसके अंदर बना रहता पर नवीन दु:ख के आ जाने से पहले वाले दुःख का ध्यान नहीं रख पाता पर वह दु:ख निरंतर बना रहता है सांसारिक सुखों को भोगते हुए भी उनके बीच में निरंतर दु:ख बना रहता है । उन सांसारिक सुखों में यह जीव कल्पित मौज मानता है पर वे सब सुख दुःखों से भरे हुए हैं । सम्यग्दृष्टि जीव ऐसे सुखों में लीन नहीं होते वे अन्याय से अहित से दूर रहते हैं । अपने स्वरूप को जान लेने के कारण वे अपने आप में ही तृप्त रहते है । बाहरी पदार्थों में उनका चित्त नहीं रमता । सुखी होना है तो ज्ञानी बने, दूसरा कोई उपाय नहीं है सुखी शांत होने का । तो ज्ञान मायने क्या? अपने आत्मा के सहज स्वरूप का परिचय पा लेना । यदि यह काम कर लिया गया तो सारे संकट दूर हो जायेंगे ।
पराधीन विनश्वर दुःखव्याप्त पापबीज इंद्रियसुख में ज्ञानी का अनादर―सम्यग्दृष्टि के
नि:कांक्षित अंग का वर्णन चल रहा । सम्यग्दृष्टि जीव को संसार के सुखों में आकांक्षा नहीं रहती । सांसारिक सुखों में आदर रंच भी नहीं रहता, क्योंकि ये संसार के सुख पराधीन है, कर्म के अधीन हैं । और विषयसाधन मिलें उनके अधीन हैं । इंद्रियां अपनी सही रहें उसके अधीन हैं । शारीरिक सुख भोग के लायक हों उसके अधीन हैं । अनेक पराधीनतायें है संसार के सुखों में । सो उनको अधिक क्या समझाना आप सब समझ ही रहें है । थोड़ासा भी संसार का सुख लिया, तो उसके लिए कितना क्षोभ मचाना पड़ता एक भोजन का ही सुख ले लो । कितना भोजन तैयार करने में श्रम, कितने उसके सभी कामों में श्रम, तब 10 मिनट का स्वाद सुख मिलता है ऐसी ही सभी इंद्रियों के विषय की बात है । इन विषयों के सुखों में ज्ञानी जीव को आदर नहीं रहता और ये सुख पराधीन हैं इतनी ही खराबी नहीं किंतु ये विनाशीक है । किसका सुख सदा रह सकता है? जीवन में सुखदु:ख आरे की नाई घूमता रहता है । कभी सुख कभी दुख । दुःख में बड़ा सुख है । सुख के बाद दुःख है । और विनाशीक है इतनी ही बात नहीं किंतु जितने बाहरी सुख मिले है उसके बाहर में भी अनेक दु:ख भरे हुए हैं उस सुख के साथ । तो ऐसे सुखों में सम्यग्दृष्टि जीव को आदर नहीं रहता । और ये इंद्रियजंय सुख पाप के बीज है इन सुखों में आसक्त होने से ही पाप का बंध होता है । जिसका फल आगामी काल में दुःख भोगना है । इन इंद्रियजंय सुखों के वश होकर जीव संसार में चारों गतियों में परिभ्रमण करता है । नरक में कौन जीव जाता? जो विषयों में अधिक आसक्त हैं । जैसे परस्त्रीगामी वेश्यागामी मद्यमांस भक्षी चोर डाकू हत्यारे आदि ऐसे लोग पापकर्म का बंध करते हैं और नरकगति में जन्म लेते हैं । तो क्यों जन्म लेना पड़ा कि उनको संसार में विषयसुख प्यारे थे । जितने भी कुकर्म होते हैं वे विषय सुखों के लोभ से ही होते हैं । सम्यग्दृष्टि अपने आत्मीय सहज आनंद का परिचय है इस कारण विषयों में उसका आदर नहीं होता।
सहजपरमात्मतत्त्व के अनुभवी आत्मा के सहज आत्मीय आनंद का लाभ―सम्यग्दृष्टि का आनंद तो सहज है । आत्मा हूँ जो हूँ सो धीरता पूर्वक वैसाही जाननहार रहूँ, वहाँ आनंद ही आनंद बरषता है । जहाँ पर पदार्थ पर दृष्टि है किसी भी पर से सुख की आशा मान रखी है वहाँ ही बैचेनी होती है । बड़े-बड़े तीर्थंकरों ने जिनकी बड़ी विभूति थी उन्होंने भी विषय सुखों को त्यागकर आत्मा का ध्यान किया तब आनंद पाया । हम आप प्रभु के तो दर्शन करें रोज-रोज और विषयों से ही सुख है ऐसा भाव बनाये रहें तो दर्शन नहीं किया । जिसके दर्शन करते हैं उसमें जो गुण हैं उनकी जो वृत्ति है वह हम को सुहा जाय तो उसे दर्शन कहते है तो जो विषयसुखों का लोभी विषय सुखों में ही आसक्ति कर रहा है उसको प्रभु का दर्शन कैसे? प्रभु का जिसने दर्शन किया उसने यह परखा कि प्रभु ने पहले इंद्रियों पर विजय किया आत्मा के ज्ञान का अनुभव किया आत्मीय आनंद का अनुभव किया उसके फल से कर्मों का क्षय करके अनंतकाल के लिए वे संसार के संकटों से मुक्त हो गए अच्छा जरा यह भी तो सोचो कि एक इस भव में खूब मौज से रह लिया अव्वल तो किसी का ऐसा हो नहीं सकता कि वह जीवनभर मौज में रहे खूब विषयों का आराम भोगे । अब क्या होगा? बुढ़ापा न आयगा क्या? बुढ़ापा में आराम से किसी इंद्रिय का सुख भोगा जा सकता है क्या? अरे सारी इंद्रियाँ शिथिल हो जातीं । यहाँ तक कि पेट में खाना भी नहीं खा पाता सो वह बुड्ढा दूसरों को खूब खाता पीता देख मन ही मन कुढ़ता है―हाय मैं क्यों नहीं भोग पाता । इसी भव में यह हालत है । मान लो किसी तरह इस भव में आराम से दिन गुजर गये तो अगला भव कैसा मिलेगा सो तो विचारो । यदि स्वभाव की दृष्टि न बनी हो और विषयों में ही आसक्त रहें हो, बाह्य पदार्थों से ही अपना शरण माना हो तो उसके भली गति कैसे हो सकती है? आगे दु:ख भोगेगा । तो क्या मंजूर है कि मैं खूब जन्म मरण करता फिरूँ और दुःख भोगता फिरूँ? अगर नहीं मंजूर है तो फिर जैन शासन के बताये हुए मार्ग पर चलो । प्रभु ने बताया कि सर्वप्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करो उसके बिना धर्म में आपका रथ न चलेगा । वह सम्यक्त्व क्या चीज है? सर्व विकल्प छोड़कर आराम से बैठ जायें । जो मैं सही हूँ सो ही अपनी जानकारी में रहे मुझे कुछ अन्य नहीं जानना है । ऐसा अपने प्रभु के प्रसाद का आग्रह करके आराम से बैठूँ, सबको भूल जाऊं कोई परवस्तु मेरे ख्याल में न रहे तो भगवान आत्मा से वह आनंद उमड़कर अनुभव में आयेगा और वहाँ ज्ञात होगा कि वास्तव में आत्मा कैसा है । जिसको आत्मीय आनंद का अनुभव हो वह इन विषयसुखों में प्राप्ति न करेगा ।
सांसारिक सुखों की पीड़त रूपता―संसार में जितने इंद्रियजंय सुख हैं वे सुख नहीं हैं किंतु कोई पीड़ा हुई है उसका इलाज है । जैसे भूख की पीड़ा है, भूख बर्दाश्त न हो तो भूख का इलाज किया जाता है खाकर । खाने से सुख नहीं मिला किंतु जैसे किसी को 105 डिग्री बुखार है और घटकर 101 डिग्री रह जाय तो वह कहता है कि मेरी तबीयत अच्छी है । अरे बुखार तो अब भी 101 डिग्री बना है तबीयत अच्छी कहां है मगर बुखार कम हो गया इससे कहता है कि मेरा स्वास्थ्य अच्छा है । तो ऐसे ही समझो कि ये जो संसार के सुख हैं उनमें कुछ दु:ख कम हो गया है पर दुःख तो है ही है । भीतर बेहोशी व्याकुलता भय शंका आदि सब बातें चल रही हैं तो दुःख दूर नहीं हुआ किंतु दुःख कम हो गया इस कारण मोही जीव मानता है कि मेरे को सुख हुआ है । अरे यह सुख नहीं किंतु सुखाभास है । प्यास की पीड़ा हुई तो जैसे पानी पीकर उसका इलाज कर लिया ऐसे ही पाँचों इंद्रियों की पीड़ा होती है और उस पीड़ा का इलाज किया जाता है विषय सुख भोगकर वास्तव में वह आनंद नहीं है । जिसमें आनंद है वह विषयों सुखों का इलाज क्यों करेगा? जैसे जिसके कान में रोग नहीं हैं बकरे का मूत्र कान में क्यों डालेगा । अथवा जिसके कोई फोड़ा फुंसी नहीं वह मलहमपट्टी क्यों करेगा? भगवान के अनंत आनंद है । तो जिसको समता है और आत्मानुभव का आनंद है वह क्यों विषयसुखों की ओर मुख करेगा? जिसको वेदना है वे ही विषयसुखों से प्रीति करते हैं । तो ये विषय सुख पाप के बीज है । उन सुखों में आदर न करना इसको बोलते हैं अनाकांक्षा ।
सम्यग्ज्ञानी का वास्तविक लक्ष्य―जो ज्ञानी गृहस्थ हैं घर में रहते हैं सम्यक्त्व जिसके हो गया है तो गृह में रहते हुए सभी तरह के सुख भोगता है मगर उसकी बुद्धि सही है । वह जानता है कि यह गृहस्थी का सुख भोगना यही मेरा अंतिम लक्ष्य नहीं है, मेरा लक्ष्य है सिद्ध होना । सबको अपने मन में यह सोचना चाहिए कि मुझे तो सिद्ध होना है, इससे पहले की जो कुछ अवस्थायें हैं संसार की देव बनना राजा बनना चक्री बनना आदि ये सब मुझे कुछ न चाहिए । मुझे तो सिद्ध भगवान होना है । अपना यह लक्ष्य बनायें कि मुझे तो केवल आत्मा ही आत्मा रहना है । हम आप तीन प्रकार की चीजों में बंधे हैं―(1) जीव (2) कर्म और (3) शरीर । याने शरीर कर्म और जीव इनका मिलाकर यह पिंडोला है । सो जब तक ये तीन मिलते रहेंगे तब तक अपनी खैर नहीं । जैसे कहते ना कि बकरे की माँ कब तक खैर मनायगी आखिर एक न स्व दिन बकरा मरेगा जरूर ऐसे ही इन तीन चीजों के रहते हुए जीव कब तक खैर मनायगा? भव-भव के कष्ट भोगेगा जरूर । तो अपना यह लक्ष्य कैसे बने कि मैं आत्मा केवल आत्मा रह जाऊं । इस केवलपने में ही आनंद है अन्यथा नहीं है । तो सोचिये ऐसा रहना आपको पसंद है या नहीं? याने जो तीन चीजों का पिंड है शरीर कर्म और जीव तो इनमें शरीर और कर्म छूट जाये केवल आत्मा ही आत्मा ज्ञान ज्योति रहे यह बात आपको पसंद होनी चाहिए । इसमें बिगड़ता नहीं है कुछ । बल्कि सुधरता हैं सब कुछ । मान लो मोह-मोह में ही सारा जीवन बिताया तो उसमें लाभ क्या मिलेगा? आखिर उसके फल में रोना ही रोना होगा । इससे पहले के भवों में जिन जिनसे मोह किया वे कोई साथ है क्या? जिन जिनका संग प्रसंग रहा वे कोई भी तो आज साथ नहीं हैं ऐसे ही आज इस भव में जो कुछ दिनों का संग प्रसंग मिला है यह भी अगले भव में साथ न रहेगा । आज इस भव में मिले हुए लोगों से मिलजुल रहे हैं मरकर दूसरे भव में जायेंगे वहाँ भी जो समागम मिलेगा उसमें मोह चलेगा । तो मोह चला चलाकर क्यों नहीं थकते? क्यों नहीं यह बुद्धि बनती कि मोह न करना । देखिये―गृहस्थ पुरुष निर्मोही तो रहे पर गृहस्थी का काम राग किये बिना नहीं चलता । दो बातें ध्यान में रखें―मोह और राग । मोह तो कहते हैं परवस्तु से ऐसा निकट लगाव रखना कि यह मन में निर्णय रहता कि इस परवस्तु के बिना मेरी जिंदगी ही नहीं मेरा सारा शरण यह ही है । पर को और अपने को एकमेक करके रहना यह तो कहलाता हैं मोह और मोह न रहे ज्ञान तो सही बन जाय कि यह पर है और यह मैं ज्ञानस्वरूप हूँ ये जीव अलग वस्तु है मैं जीव अपने स्वरूपमात्र हूँ यह वैभव भिन्न है शरीर निराला है मैं ज्ञानज्योति हूँ मेरा काम मेरे में ही होता है । मैं अपना ही कर्ता भोक्ता हूँ पर पदार्थ अपने कर्ता भोक्ता हैं । ऐसा जानकर मोह दूर किया, लेकिन जब तक घर में रह रहें हैं, नहीं है इतनी सामर्थ्य के गृह त्यागकर मुनिव्रत धारण कर ले घर में रहना पड़ रहा तो घर में रहकर राग किया जायगा । एक दूसरे की सम्हाल करना, पालन पोषण करना अच्छे वचन बोलना दूसरों को धैर्य धारण कराना ये सब काम गृहस्थी में होंगे तो वे काम राग के कहलाये । सो इस राग बिना तो न चलेगा घर में रहना पर मोह बिना चलेगा भीतर में सही ज्ञान बनाये रहें कि मेरा आत्मा मेरे स्वरूपमात्र हैं इनका आत्मा इनके स्वरूपमात्र है । सत्य ज्ञान बनाये रहें और घर में रहने के नाते से रागव्यवहार पालन पोषण करते रहें ।
निर्मोहता के कारण गृहस्थ के भी व्याकुलता का अभाव―भैया, धर्म किसी को दुःख देने के लिए नहीं होता, सबके सुख के लिए होता है । खुद के सुख के लिए होता है अब बतावो कि गृहस्थ निर्मोह होकर राग व्यवहार करता हुआ घर में रहे तो कुछ काम में कमी आती है क्या? अरे आजीविका चलती है, घर चल रहा, सब कामकाज ठीक चल रहा, पर ज्ञानप्रकाश हो गया जिसके कारण अब उसे भीतर में व्याकुलता नहीं रहती । कितनी ही कठिन परिस्थिति आ जाय वह अधीर नहीं होता । समस्त दुःखों को जानता कि ये तो कुछ भी दु:ख नहीं है । इनसे भी कई गुने दुःख हुआ करते हैं अथवा यह तो परवस्तु का परिणमन है । उससे मेरे आत्मा में क्या आता? दुःख जितना भी माना जा रहा है वह अपने आत्मा में कल्पनायें करके माना जा रहा है । ज्ञानी जीव को विषय सुखों में आस्था नहीं रहती । रोग को कौन चाहता? पर रोग आ जाय तो इलाज करता या नहीं? इलाज करता हुआ भी क्या यह चाहता है कि मेरे ऐसा इलाज हमेशा चलता रहे क्योंकि इसमें बड़ा आराम है । बड़े ठाठ हैं, अच्छा कमरा है । कई नौकर चाकर है, अनेक लोग पूछताछ करते रहते है । अनेकों नाते रिश्तेदार सेवायें करने के लिए आते जाते रहते हैं, डाक्टर भी समय पर हाजिर रहता है, कोमल स्प्रिंगदार पलंग पर आराम से पड़े रहते हैं, बताओ ये सब आराम के साधन हमेशा के लिए चाहता है क्या वह रोगी? अरे वह तो चाहता है कि मुझे कब इस झंझट से छुट्टी मिले मेरा रोग दूर हो और मैं प्रतिदिन एक दो मील टहलने जाया करूं । यों ही रोगी उन सब साधनों में राग तो करता है क्योंकि समय पर दवाई न मिले तो झुँझलाता है, सेवा पाने में कुछ कमी हो तो नौकरों पर नाराज होता है, पलंग में कुछ कोमलता कम हुई हो झुँझलाता है यों राग तो उन सब साधनों में पर उसे उनसे मोह नहीं है । वह नहीं चाहता उन सब साधनों को, परंतु परिस्थितिवश करना पड़ता हैं ठीक यही हालत है सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव की । व्यवहार में रहकर उसे करना पड़ता है, सब पर वह समझता है कि ये सब खटपटें करना मेरा काम नहीं, यह सब तो मुझे करना पड़ रहा है रहना पड़ रहा है गृहस्थी में पर यह सब मेरा काम न था । अब ये सब वेदनायें लगी हैं सो उनका इलाज भी करना जरूरी है सो करना पड़ता है पर मेरा कर्तव्य यह न था । मेरा काम था इन सबसे आगे होकर मात्र अमूर्त ज्ञानमात्र आत्मत्व में लीन होना ।
अमूर्त आत्मा में स्वयं कष्ट का अभाव होने से कष्टप्रतीकार की अनावश्यकता―मैं आत्मा आकाशवत् अमूर्त हूँ । इस शरीर से भिन्न ज्ञान ज्योतिमात्र हूँ । बस मैं आत्मा अकेला ही रह जाऊं यही मेरा करने का काम था, बाकी तो सब फिजूल के काम हैं । इस अमूर्त आत्मा को कोई बाधा नहीं दे सकता छत पर्वत आदिक से यह छिड़ नहीं सकता । लोग तो बताते हैं कि वैज्ञानिकों ने ऐसा भी किया कि एक कांच के मकान के अंदर किसी मरणहार व्यक्ति को रख दिया और ऐसा कांच से बंदकर दिया कि जिससे जीव तक के निकलने की जगह न रहे । पर क्या हुआ कि उस व्यक्ति के मरते ही जीव निकल गया, कांच तड़क गया, ऐसा लोग बताते हैं, पर यह बात मानने योग्य नहीं । जीव तो अमूर्त है, अमूर्त पदार्थ का मूर्त से भिड़ना हो सकता? तो यह अमूर्त आत्मा को कोई मूर्त पदार्थ बाधा दे नहीं सकता यह तो हालत है इस समय जबकि जीव कार्माण शरीर में बंधा हुआ है । और जिसके कार्माण शरीर भी नहीं रहता, कर्मों का क्षय हो जाता यह पुरुष तो एक समय में सिद्धलोक में जाकर विराजमान हो जाता है । तो जीव को यों समझिये जैसे तार अलग बिजली अलग । मगर बिजली का आधार तार है ऐसे हीं जीव अलग शरीर अलग, मगर जीव का वर्तमान आश्रय यह शरीर है । आज कितना प्रिय लग रहा यह शरीर इस जीव को, मगर यह शरीर प्रीति किये जाने योग्य नहीं । यह एक दिन इन्हीं मित्रजनों के द्वारा जला दिया जायेगा यही सबको आनी है । अगर ये मनुष्य मरते न होते तो यहाँ संसार में पैर रखने को जगह भी मिलना मुश्किल पड़ जाता । मान लो 100 वर्ष तक भी अगर कोई मरे नहीं और पैदा होते जायें तो भी यहाँ पैर रखने को जगह न मिलेगी पर ऐसा नहीं होता । मरण सबका नियम से होता तो जो शरीर अभी कुछ ही दिनों में जला दिया जायगा । वह प्रीति करने लायक नहीं है । हां यह शरीर तो हम आपको काम करने के लिए मिला है । जब तक शरीर में बल है । जब तक इस शरीर में बल है तब तक इससे काम ले लें । वैसे जरूरत नहीं है इस शरीर की, पर जब साथ लगा है और शरीर की कुछ खुशामद भी करते तो फिर इस शरीर से कुछ काम ले लीजिए । इस शरीर के प्रति आसक्ति का भाव रखना योग्य नहीं । मैं आत्मा ज्ञानमात्र हूँ । ऐसा भीतर में ज्ञानप्रकाश रहे । मुझे ये संसार के सुख न चाहिए मेरे को तो मेरा स्वाधीन आनंद चाहिए ।
परभावों में ज्ञाता की अनास्था―एक जमाना था जबकि लोग विवाह बारात में दूसरों से गहना (जेवर) माँगकर उसे पहिनकर जाया करते थे और सबके बीच बैठकर बड़ी ठसक बताते थे । मगर यह भी तो सोचो कि यदि दूसरों को पता पड़ गया कि यह तो किसी से माँगकर जेवर पहिन आया है तो क्या इज्जत रह गई उसकी? उसकी तो सारी शोभा बिगड़ गई । और मान लो कि कदाचित कोई दूसरे लोग न भी समझ पायें कि मांगा हुआ जेवर पहिनकर आया है तो खुद की आत्मा तो जानता है, कि मांगा हुआ जेवर है, खुद का नहीं, इसमें क्या ठसक दूसरों को दिखाना? तो ऐसे ही समझो कि यह संसार का जो वैषयिक सुख है वह माँगा हुआ हैं, पराधीन है । किससे उधार लिया? पुण्यकर्म से । हमारी गाँठ का नहीं है । तो उधार ली हुई कब तक अपने साथ रहेगी, वह तो सब जायगी । गाँठ की जो चीज है वह अपना सहज आनंद है वह कहीं न जायगा । उस सहज आनंद को पाने का लक्ष्य बनाइये और इन उधार मिली हुई चीजों का लक्ष्य न रखिये―यह तो हमारी कमजोरी है, वेदना है, भोगना पड़ता है, मगर इसको मैं नहीं चाहता । मैं तो अपना निजी स्वाधीन आनंद ही चाहता हूँ, ऐसा चित्त में संकल्प होना चाहिए । ज्ञानी जीव का यह निर्णय है इस कारण उसे विषयों के सुखों में अनुराग नहीं रहता । यह कहा जा रहा है सम्यग्दृष्टि का दूसरा नि:कांक्षित गुण । इसमें एक बात ओर विशेष समझिये कि घर में रहने पर क्या यह इच्छा नहीं होती कि दूकान में या कारखाने में बैठने पर मेरी आमदनी हो? होती है इच्छा मगर धर्म के स्थान में जाकर या धर्म का कोई काम करके चाहना कि मुझे पैसा मिले, तो यह पाप है । इसमें सम्यक्त्व नहीं रहता । आकांक्षा भी दो तरह की हो गई―एक तो धर्मधारण कर के इच्छा करना और दूसरी―धर्म के एवज में नहीं किंतु जरूरत के कारण इच्छा करना, इन दोनों में बड़ा अंतर है । जरूरत के कारण ज्ञानी के इच्छा होती है मगर धर्मधारण करके उसके एवज में संसार के सुख और साधनों की इच्छा ज्ञानी के नहीं होती । उस धर्म के प्रसंग में तो के वल धर्म की धुन रहती है । मैं आत्मा अपने सहज ज्ञानानंद को अनुभवूं जैसा कि प्रभु ने अनुभवा है । धर्म के प्रसंग में केवल यही भावना रहे । तो ऐसा सम्यग्दृष्टि के नि:कांक्षित अंग का वर्णन हुआ ।