रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 141: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
मूलफलशाकशाखाकरीरकंदप्रसूनबीजानि ।
नामानि योऽति सोऽयंसचित्तविरतो दयामूर्ति: ।।141।।
अर्थ―जो दयामूर्ति मूल, जड़, शाक, शाखा, गांठकंद, फूल और बीज इन्हें कच्चे नहीं खाता वह सचित्त विरत नामक प्रतिमाधारी है ।
पहिले की सब प्रतिमावों के पालन के साथ सचित्त त्याग प्रतिमा का पालन―इस छंद में सचित त्याग नाम की पंचम प्रतिमा का स्वरूप कहा है । जो पुरुष अपने आपके स्वरूप का श्रद्धान करके देव, शास्त्र, गुरु की आस्था से अपने आप में अपने अनुभव को दृढ़ बनाकर आगे गमन करता है वह श्रावक क्रमश: कैसे-कैसे त्याग बढ़ाता है और किस तरह अपने आप में लीन होने का मार्ग बनाता है वह सब इन प्रतिमावों में दिखाया जा रहा है । सचित्त त्यागी श्रावक ने बारह व्रतों का पालन किया, 3 बार नियमित निरतिचार सामायिक किया और अष्टमी चतुर्दशी के दिनों में एकाशन उपवास करके बहुत समय चैत्यालय में या ख्याल में बैठकर धर्म साधना के लिए दिया, और वह सब बराबर करता चला आ रहा है । अब वही यहाँ सचित्त पदार्थों के भक्षण का त्याग कर रहा । जितने भी सचित पदार्थ फल, शाक, कंद, फूल बीच हैं उन सबका त्याग करता है उनको नहीं खाता । कुछ तो ऐसे अभक्ष्य सचित है कि जिन्हें पहले से ही नहीं खा रहा था और कुछ तो बच रहे हैं सचित उनका भी यहाँ त्याग कर चुका है ।
वृक्ष या बेल से तोड़ लेने पर भी अपक्व फलों में सचित्तता―सचित्त फल, शाक जिन्हें कि तोड़कर या बाजार से खरीदकर लाते है तो वे फल और शाक अचित्त नहीं हैं, जैसे वृक्ष में बेल लगी थी । उस बेल से वृक्ष से तोड़ लिया गया फल तो उसमें वह एक जीव तो नहीं है, पर प्रत्येक फल फूल में अलग से असंख्यात वनस्पति जीव रहते है । जैसे आपके शरीर का मालिक एक जीव है पर इस शरीर में तो अनेक जीव पड़े हैं, अंगुली कट जाय तो कटी हुई अंगुली में वह एक जीव तो न रहा । वहतो इस बड़े शरीर में ही है, पर अंगुली में खुद में जीव अनेक रहते हैं । ऐसे ही वृक्ष में आम संतरा आदिक फल लगे हैं, बेल में लौकी, तुरई आदिक फल लगे हुए हैं, उनको तोड़ा गया तो वह वृक्ष वाला जीव तो फल में नहीं आया, किंतु फल में खुद अनेक जीव रहते हैं । सो जब तक ये पके नहीं, गरम न हों, जो प्रासुक विधि है उससे प्रासुक न हों तो ये सचित्त कहलाते है । सचित्त पत्र, फल, छाल, मूल, पत्ते, बीज इनको जो ज्ञानी जीव नहीं भक्षण करता खाने का त्याग करता है उसे ही तो सचित्त त्यागी कहते है । यहाँ पानी गर्म करता है, फल शाक आदि को बीनार कर रसोई बनाता है यह 5वीं प्रतिमा वाला, लेकिन मुख से कच्ची चीज नहीं खाता, यद्यपि हाथ से बनाया सचित चीज उसमें भी एकेंद्रिय जीव की हिंसा तो हुई, पर मुख से एकेंद्रिय की हिंसा करने में विशेष आसक्ति सिद्ध होती है । तो यह सचित्त त्यागी श्रावक सचित पदार्थों का भक्षण नहीं करता ।
स्वपर दयामूर्ति श्रावक के सचित्त त्याग की प्रतिष्ठा―सचित्त त्यागी पुरुष सचित्त पदार्थों को स्वयं तो भक्षण करते नहीं पर उसे ऐसा विवेक रखना चाहिए कि अन्य पुरुषों को भी सचित्त का भक्षण न कराये । तो जो पुरुष सचित्त फल आदिक का त्याग करता है उसने इस जिह्वा के स्वाद को जीत लिया । अनेक फल ऐसे होते है कि सचित्त में स्वाद होता है और अचित्त में स्वाद कम रह जाता है । जैसे सेव संतरा आदिक इन्हें गर्म कर लिया जायतो इनके रस में बदल हो जाती है । तो जो सचित्त का त्याग करते है उन्होंने इस दुर्जय जिह्वा को जीत लिया । कच्चे जल में स्वाद विशेष होता है और वह काम पोषक होता है । गरम पानी हो गया तो उसका रस बदल गया । अब उसमें कामा वेश की शक्ति नहीं रहती । तो सचित्त त्याग करने के दो प्रयोजन हैं । (1) एक तो एकेंद्रिय जीव की हिंसा टल जाय । (2) दूसरे कामोत्तेजक नही ऐसे इन दो प्रयोजनों से यह दयामूर्ति सचित्त त्याग करता है और वह जिनेंद्र भगवान की आज्ञा का पालन करता है, सचित्त पदार्थो को अचित्त करने की तरकीबें अनेक होती हैं । कुछ फल बिनारने से अचित्त हो जाते हैं, कुछ पकाने से अचित्त होते हैं, कुछ सूखने से अचित्त होते हैं, तो ऐसे अचित्त फलों का यह भक्षण करेगा सचित्त का भक्षण नहीं करता । अब यह गृहस्थ श्रावक अपनी धर्मसाधना में क्रमश: बढ़ रहा है । अब इसके बाद छठी प्रतिमा का वर्णन करते हैं ।