वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 142
From जैनकोष
अन्नं पानं खाद्यं लेह्यं नाश्नाति यो विभावर्याम् ।
स च रात्रिभुक्तिविरत: सत्वेष्वनुकंपमामनाः ।।142।।
अर्थ―जो रात्रि में अन्न, पान, खाद्य, लेह्य आदि पदार्थों को नहीं खाता वह जीवों पर दया करने वाला रात्रि भुक्त विरत नाम का श्रावक है ।
रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमा―जिसको प्राणियों पर दया आती है ऐसा पुरुष रात्रि में बनाये हुए भोजन को नहीं खाता और दिन में बनाये हुए भोजन को भी रात्रि में नहीं खाता । रात्रि भोजन का त्याग तो पहली प्रतिमा से ही था, पर यहाँ छठी प्रतिमा में रात्रि भोजन त्याग इसलिए बताया है कि अब यह स्वयं रात्रि को न् खायगा और दूसरों को भी न खिलायगा । छठी प्रतिमा से पहले यह गृहस्थ दूसरों को कभी-कभी रात्रि में खिला देता था अथवा रात्रि में खिलाने का हुक्म दे देता था । अब छठी प्रतिमा धारण करने पर यह रात्रि में खायगा नहीं, न दूसरों को खिलायगा । न रात्रि को खाने खिलाने के लिए अनुमोदना करेगा । चार प्रकार के भोजन होते है (1) खाद्य (2) स्वाद्य (3) लेह्य और (4) पेय । जैसे जिससे प्रतिदिन पेट भरा जाता है दाल, भात, रोटी आदिक ये खाद्य कहलाते हैं, इनका भक्षण रात्रि को यह छठी प्रतिमाधारी न करता है, न कराता है, न करते हुए को भला मानता है । स्वाद्य लड्डू, पेड़ा आदिक जो रोज-रोज नहीं खाये जाते, न इनसे पेट भरता, एक स्वाद का ही प्रयोजन बनाते हैं । लेह्य पदार्थ वे हैं जो चाटे जाते हैं, रबड़ी, चटनी आदिक और पेय पदार्थ वे हैं जो पीने योग्य होते है जैसे दूध, जल आदिक । तो ऐसे चार प्रकार के आहार होते हैं, इन्हें छठी प्रतिमा वाला न खायगा, न खाते हुए को भला मानेगा, क्योंकि रात्रि में जीव जंतुवों का गमन विशेष हो जाता है, सो रात्रिभोजन करने से उन जीवों का विघात हो जाता है ।
रात्रि भोजन से स्व पर विघात―अनेक जगह रात्रि में भोजन करने से बारात की बारात रुग्ण हुई, अनेक लोग मरे और अनेक बेहोश हुए । जैसे रात्रि में कड़ाही जल रही है, मान लो खीर बनाई गई और उसमें कोई छिपकली गिरकर पक गई, उस खीर को लोगों ने खा लिया, तो उसके खाते ही दस्त आना, बुखार आना शुरु हो गया, ये सब बातें होती हैं । तो रात्रि भोजन करना जैन शासन में बिल्कुल निषिद्ध है । बच्चे, बड़े रात्रि भोजन त्याग निभाना चाहें तो भली भांति निभेगा, पर स्वाद का लोभ लगा है इसलिए ऐसा महसूस करते कि यह तो न चल सकेगा, रात्रि में भोजन न करें या दूध आदिक न लें तो चल न सकेगा, ऐसा अनुभव करते हैं, पर चल क्यों न सकेगा? आज पुण्य का उदय है, अनेक वैभव प्राप्त हुए हैतो जैसा चाहे मन कर लें, किंतु कषायभाव आने से पाप का बंध तुरंत होता रहता है, और उस पाप के उदय में फिर इसे दुःख भोगना पड़ता है ।
रात्रि भोजन त्याग में आत्मलाभ―जिसने रात्रि भोजन का त्याग किया सो मान लो कि एक वर्ष में 6 माह का उपवास सा ही हो गया । रात्रि में तो कुछ न खाया तो यह भी एक बहुत बड़ा सदाचार है तो जो श्रावक रात्रि में चारों ही प्रकार के भोजन को नहीं ग्रहण करता तो वह रात्रिभर उपवास में तो रहा ही आया, रात्रि में कुछ भी करेगा सो एक वर्ष के आधे दिन याने 6 माह तो उपवास किया, ऐसा समझ लो । यद्यपि वह उपवास रूप नहीं है एक त्याग किए हुए है, वह आधा वर्ष तो निकल गया भोजन न करने में । तो रात्रि भोजन त्याग करने वाले का रात्रि में कूटना, पीसना, पानी भरना, झाडू, बुहारी लगाना आदिक ये सब आरंभ दूर हो जाते हैं । रात्रि भोजन त्यागी स्त्रियां भी होती हैं, 11 प्रतिमायें स्त्रियां भी धारण कर सकती हैं, पुरुष भी धारण करते हैं, तो एक प्रश्न आता है कि किसी महिला के छोटा बच्चा हो तो वह रात्रि को उसे दूध पिलायगी या नहीं? तो यदि न पिलाये तो यह बच्चे पर दया न रही अतएव छोटा शिशु तो दिन रात में बीसों बार दूध पी लेता होगा । तो ऐसा महापुरुषों ने बताया है कि महिला की छठी प्रतिमा हो तो भी वह अपने बच्चे को दूध पिला सकती है और इसके अतिरिक्त दूसरे को न खिलाये, न स्वयं खाये, ऐसे बड़े कठोर नियंत्रण से छठी प्रतिमा का आचरण होता है । अब सप्तम प्रतिमा ब्रह्मचर्य व्रत के संबंध में कहते हैं ।