रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 143: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
मलबीजं मलयोनिं गलन्मल पूतिगंधिबीभत्सं ।
पश्यन्नंगमनंगाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः ।।143।।
अर्थ―जो श्रावक शरीर को मल से उत्पन्न होने वाला, मल का जनक, मल मूत्र को बहाने वाला, दुर्गंधयुक्त, ग्लानि का उत्पादक देखता हुआ मैथुन से विरत होता है वह ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी कहलाता है ।
ब्रह्मचर्य प्रतिमा―ब्रह्मचर्य के विरुद्ध व्यभिचार में जो प्रवृत्ति करते है उनकी दृष्टि दूसरे देह पर ऐसी होती जैसे मानों वही सारभूत हो । सो यह शरीर कितना घिनावना और अपवित्र है कि मलका तो यह बीज है । जैसे बीच से अंकुर फूटता है ऐसे ही इस देह से मल निकलता है और कितना मल निकलता? खून पीप आदिक तो सारे शरीर में है ही? पसीना भी निकलता हाड़, मांस, मज्जा भी सर्वत्र है । किंतु मुख में इतने मल हैं कि जितने सारे शरीर में नहीं है म्। कह सकते हैं कि पेट में अन्य अंगों की तरह मैल हैं और उसके अतिरिक्त दो मैल और अधिक हैं―टट्टी और पेशाब । मगर मुख में तो बड़े ही मैलों की संख्या है । जैसे कफ निकलना, थूक आना, नाक बहना, आँख का कीचड़, कान का मैल आदिक कितने ही मैल भरे है इस मुख में, मस्तक में । तो जो अधिक गंदा है इस देह के अंदर वह मुख है अधिक गंदा । इतनी गंदगी हाथ में कहां है? हाथ में खून है, मज्जा है, हड्डी है और मुख में ये तो सब है ही मगर थूक, नाक वगैरह अनेक मैल यहाँ पाये जाते है । फिर कैसा अनोखा राग है मोहियों का कि शरीर में सबसे अधिक प्रिय मुख लगता है इन मोही जीवों को । तो शरीर का बीज मल है अर्थात् शरीर मल से उत्पन्न होता है और मल की योनि है । इस शरीर से मल निकलते हैं, निरंतर मल झरते रहते हैं, अपवित्रता बनी रहती है, दुर्गंध भी है, बड़ा भयानक रूप है । यदि यह चाम ऊपर न होता तो कितना भयानक यह मनुष्य लगता । ऐसे वीभत्स बुरे देह में जो राग नहीं करता वह ब्रह्मचारी कहलाता है । यह ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी समस्त स्त्री विषयक अभिलाषा को त्याग देता है । स्त्रीजन चार प्रकार की होती है । (1) एक तो देवियां (2) दूसरी मानुषी महिला, औरतें (3) तीसरी तिर्यंचिनी कुतिया, बिल्ली, गाय, गधी आदिक और (4) चौथे प्रकार की स्त्रियां है काठ पत्थर आदिक की, जिनको देखकर हृदय बिगड़े, प्रेम वासना उमड़े वे सब हेय हैं । सो इन सभी प्रकार की स्त्रियों में मन से, वचन से, काय से, कृतकारित अनुमोदना से राग न करना चाहिए । यह ब्रह्मचारी न तो स्त्रीजनों को मन से, वचन से, काय से चाहता है, न कृतकारित अनुमोदना का दोष लगाता है, स्त्री संबंधी अभिलाषा ही नहीं करता, न दूसरों को इस बिषय में प्रेरणा देता है । ऐश यह पुरुष विकार भावों से दूर ब्रह्मचारी कहलाता है ।
अठारह हजार प्रकार के कुशीलों का त्याग करने से अठारह हजार शील के प्रकारों का पालन―शील के 18 हजार भेद बताये गए हैं जिनका पूर्ण पालन तो ऊंचे गुणस्थानों में होता है फिर भी इनसे विरक्ति रखना सभी गृहस्थों का कर्तव्य है । वे 18 हजार शील किस तरह होते? तो 18 हजार कुशील हैं, जिनके त्याग को शील कहा करते है । 4 प्रकार की तो स्त्री, देवी, मानुषी, तिर्यंचिनी और अचेतन काठ, शिल्पकारी की तो इन चार प्रकार की चेतन अचेतन स्त्रियों को मन, वचन, काय से सेवना सो ये 4×3=12 भेद हुए । अब इन 12 प्रकारों को कृतकारित अनुमोदना से गुणा करने से 12×3=36 भेद हुए और ये 36 ही पाप 5 इंद्रियों से किए जा सकते है तो ये 35×5=180 भेद हुए । अब इनको 10 संस्कारों से दृढ़ करना इस प्रकार ये 180×10=1800 भेद हुए । वे 10 प्रकार के संस्कार क्या है जो आत्मा के परिणाम से विचलित करते? (1) पहला है शरीर का संस्कार करना, (2) दूसरा है शृंगार रस राग ऐब सहित सेवन करना ये सब दोष बताये जा रहे हैं । शरीर को जो सजाता है तो समझिये कुछ इसके चित्त में अभी कमी है, (3) तीसरा संस्कार हँसी क्रीड़ा करना, (4) चौथा संस्कार है संसर्ग की इच्छा करना, (5) पांचवां संस्कार है विषयों का संकल्प करना, (6) छठा संस्कार है दूसरे के शरीर की ओर ताकना, (7) सातवां संस्कार शरीर को सजाना, (8) आठवां संस्कार है कुछ देना, नवमा संस्कार है पहिले भोगे-भोगों का स्मरण, दसवां संस्कार है मन में भोग की चिंता करना । इन 1800 को 10 काम चेष्टावों से गुणा करना सो 18000 कुशील होते हैं । कुशील में काम संबंधी 10 चेष्टायें होने लगती है । जो पुरुष विवेक नहीं करता और यदवा तदवा भाव का बिगाड़ करता रहता है उसकी 10 चेष्टायें कौन होती है? तो पहली चेष्टा काम की चिंता का होना है । जो प्रेमीजन है वे पास में न हों तो उनके लिए दिल बना रहे, सो पहले तो चिंता होती है, जिनको काम सताता है । फिर जिसको दिल में बसाया उसके दर्शन की इच्छा होती है । न मिल सके दर्शन तो बड़ी दर्द भरी आहें भरता है, फिर शरीर में पीड़ा होती है, शरीर में जलन होने लगती, और यह उस धुन में खाने पीने का भी त्याग कर देता, फिर मूर्च्छित हो जाता, फिर पागल सा हो जाता और फिर जीवन का भी संदेह हो जाता है, वीर्यपात होने लगता है कामी अपनी शक्ति का भंग करता है । तो शील संबंधी दोष 18 हजार होते हैं, तो उन दोषों का त्याग भी 18 हजार प्रकार का हुआ । जो पूर्ण ब्रह्मचारी है वह इन भेदों को भी उल्लंघ देता है।
ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी श्रावक का विशुद्धभाव―ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने वाला पुरुष ही दयालु है, क्योंकि विभिन्न अंगों में अनेक सम्मूर्द्दन जीव रहते हैं । तो हिंसा का परिहार करने वाले उन सब साधुवों का परित्याग किसलिए है? तो ब्रह्मचर्य प्रतिमा में कुशील से विरक्ति रहती है । कितने भी सुंदर स्त्री पुरुष को निरखकर कोई मन में विकार नहीं आता जिसके ब्रह्मचर्य प्रतिमा होती है वह सप्तम प्रतिमाधारी कहलाता है । 11 प्रतिमावों में 7वीं, 8वीं, 9वीं ये तीन प्रतिमायें मध्यम प्रतिमायें कहलाती है । और इससे नीचे गुण स्थानों में जघन्य और उनसे ऊपर उत्कृष्ट स्थानों में उत्तम कहलाती है । ब्रह्मचर्य का सीधा अर्थ है― ब्रह्म मायने आत्मा उसमें चर्य अर्थात् रमण करना, पर जिससे इतना न बन सके तो परमार्थ ब्रह्मचर्य पालन करने का मूल तो बन जाना चाहिए । सो यह ब्रह्मचारी तो मन, वचन, काय, कृतकारित अनुमोदना से विषयों का परिहार करता है । लोक में अनेक शूरवीर सुने गए, पर वास्तविक शूरता ब्रह्मचर्य प्रतिमा निभाने वाले की है । सो आत्मा का अविकार स्वरूप जानकर बाहर में शरीर को अपवित्र निरखकर यह कुशील से विरक्त रहता है और अपने शील स्वभाव में उपयुक्त होता है ।
जिस पुरुष ने छहों द्रव्यों का स्वरूप जाना है, प्रत्येक द्रव्य का गुण पर्याय उसही में है, इस कारण किसी द्रव्य से किसी द्रव्य का कोई संबंध नहीं है । न कोई किसी अन्य का कर्ता है, यह बस रहस्य जिसको स्पष्ट ही गया उस पुरुष को अब जगत के किसी पदार्थ में कुछ अभिलाषा नहीं रहती और आत्मकल्याण के लिए ही वह अग्रसर रहता है । इसका निर्णय है कि परमात्मदशा से पहले की सारी स्थितियां उसके लिए बेकार है । इन किन्हीं भी स्थितियों में मेरी पवित्रता नहीं, मेरे को शांति नहीं । व्यर्थ का भ्रमभार लादकर जगत में कष्ट पाता हूँ । अब इसके किसी भी बाह्यपदार्थ में इच्छा न रही, संसार, शरीर, भोगों से विरक्त हुआ और बारह व्रतों का अभ्यास करके समता परिणाम की दृढ़ता बनाकर प्रति सप्ताह 48 घंटे विशेष धर्म ध्यान में लगाकर दयावश सचित्त पदार्थों को अब नहीं खाता, इनका त्याग कर देता है । और रात्रि के भोजन में तो प्रकट हिंसा है सो रात्रि भोजन तो करता ही नहीं, न कराता है, न रात्रि भोजन करने वाले की अनुमोदना करता है । इन सब अभ्यासों से दृढ़ होकर इसके ब्रह्मचर्य की बड़ी तीव्र भावना जगी है । और अब निज स्त्री से भी संबंध का त्याग करता है अर्थात् पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है ।
ब्रह्मचारी की कुशील के साधनों से दूर रहने की वृत्ति―प्रतिमाधारी श्रावक अब यह घर में रह रहा है । किंतु निरतिचार ब्रह्मचर्य रहे इस भावना से वह अपनी विवाही स्त्री के कमरे में भी नहीं सोता । पूर्व में जो भोग था उन भोगों का यह स्मरण नहीं करता । जिससे बढ़े ऐसे पुष्ट गरिष्ठ पदार्थो को वह नहीं खाता जिसकी आत्महित की भावना प्रबल हुई है उसे अब स्वाद से अथवा शरीर के पोषण से कुछ प्रयोजन नहीं रहा जब यह शरीर एक दिन छूटना ही है, यह श्मशान में जलाया जायगा, प्रकट भिन्न है, मल को बहाने वाला है, उस शरीर से भी क्या प्रेम रहे ज्ञानी का? ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी गरिष्ठ पदार्थों का भोजन नहीं करता । जो कामोद्दीपन करें राग बढ़ाये ऐसे वस्त्र आभरण नहीं पहिनता । बनावट सजावट से वह दूर रहता है शुद्धसात्विक वृत्ति से वह रहता है । वह गृहस्थ घर में रहता हुआ भी कितना पवित्र भावनाओं का पुरुष है । रागवर्द्धक, गीत, नृत्य, वादित्र आदिक का भी अब वह संग नहीं बनाता । धार्मिक गीत, धार्मिक नृत्य, धार्मिक समारोह में इनके बीच रहता हुआ हो तो अपने सद्भावों को ही बढ़ा लेता है इस कारण वह तो राग में शामिल नहीं है, वहतो धर्म के अनुराग में शामिल है, पर जिनसे राग बढ़ता है ऐसे गीत नृत्य आदिक का भी संबंध तज देता है । पुष्पमाला पहिनना, सुगंधित फुलेल लगाना, विलेपन करना, शृंगार की कथायें सुनना, कहना, हास्य की कथायें कहना सुनना, उपन्यास पढ़ना, अश्लील चित्र देखना आदिक इनसे तो अत्यंत दूर रहता है । और भी रागकारी वस्तुवें, जैसे तांबूल भक्षण, जिनसे शरीर के प्रति राग जगता है, ऐसी बातों को वह त्याग देता है । एक परम ब्रह्मस्वरूप की भावना में बढ़-बढ़कर वह अपने को इस योग्य बना लेता है कि उसे अब द्रव्य उपार्जन करने का भाव नहीं रहता, तब इसके अष्टम प्रतिमा प्रकट होती है ।