रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 24: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p | <div class="PravachanText"><p><strong>सग्रंथारंभहिंसानां संसारावर्तवर्तिनां ।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>पाखंडिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाखंडिमोहनम् ।।24।।</strong></p> | ||
<p | <p><strong> ज्ञानी को पाखंडीमूढ़तारहितता</strong>―सम्यग्दृष्टि जीव जिन दोषों से रहित होता है उन दोषों में ये तीन महादोष―(1) लोकमूढ़ता (2) देवमूढ़ता और (3) पाखंड मूढ़ता सो इस छंद में पाखंड मूढ़ता का स्वरूप बताया जा रहा है । जो श्रद्धान और ज्ञान से रहित पुरुष है और वह चाहता है कि मेरी लोक में मान्यता हो सो नाना प्रकार के भेष धारणकर लोक में अपने को ऊँचा जताकर लोगों से अपनी पूजा, वंदना, सत्कार चाहता है । परिग्रह रखता, आरंभ रखता, हिंसा के कार्यों में प्रवृति करता, इंद्रिय के विषयों का अनुरागी है । खूब गप्पसप्प में अपना समय बिताता है अभिमानी भी है और अपने को पूज्य धर्मात्मा कहने का इच्छुक है वह कहलाता है पाखंडी जीव । उसकी सेवा करना उसकी भक्ति में रहना और अपने की धर्मात्मा मानना यह पाखंड मूढ़ता है ।</p> | ||
<p | <p> <strong>गुरु का लक्षण</strong>―गुरु का लक्षण क्या है? जो इंद्रिय के पंचेंद्रिय के विषयों के अधीन न हो, हिंसा आदिक आरंभों से रहित हो, कोई परिग्रह न रखता हो और जिसका काम ज्ञान ध्यान तपश्चरण में रत रहना हो ऐसी धुन रखने वाला गुरु कहलाता है और इसके विपरीत जितने भेषधारी है वे सब कुगुरु या पाखंडी कहलाते हैं । देखिये आत्मा की साधना किसी बाहरी पदार्थ के द्वारा नहीं होती है । अपने ही ज्ञान द्वारा अपने आत्मा की साधना होती है । बाहरी चीजें रखने की कोई जरूरत नहीं । फिर किसलिए गटर माला रखना, किसलिए कमर में रस्सी बांधना, किसलिए त्रिशूल, डमरु, लट्ठ आदि रखना, किसलिए देह में भस्म रमाना ये सब पाखंडमूढ़ता की बातें है । आत्मा की साधना के लिए बाहरी कुछ चीजों की जरूरत नहीं और रखे तो उसमें परिग्रह का दोष है । हां जैन शासन में पिछी कमंडल का रखना जो बताया गया है वह एक विवशता में बताया है । इनका रखना आवश्यक हो मुनि को सो बात नहीं । कोई स्व जगह खड़े होकर ध्यानस्थ रहे, बाहुबलि की तरह तो वहाँ पिछी कमंडल की कोई जरूरत नहीं । कोई कहे कि यदि जमीन को खूब देखभाल कर चले तो वहाँ पिछी की क्या जरूरत? सो देखकर चले सो तो ठीक है मगर रास्ते में कहीं धूप पड़ती, कहीं छाया पड़ती तो छाया में मुनि चल रहा हो और धूप आ गई हो पास तो वह शरीर को पोंछकर धूप में जायगा, क्योंकि ऐसा करने पर छाया में रहने वाले जीवों को धूप में कष्ट होगा, अथवा धूप में जा रहे हो, अब छाया में चलना है तो शरीर को वहाँ पोंछकर चलेंगे क्योंकि धूप में रहने वाले कीड़ों को छाया की जगह में पंहुचने पर बाधा होगी । तो कोई चर्या करे, चले तो वहाँ पिछी की जरूरत पड़ती है । और आहार चर्या के लिए जायगा तो उसे शौच कार्य भी करना पड़ेगा । अब शौच क्रिया के लिए कमंडल भी रखना जरूरी हो गया । एक दो शास्त्र भी स्वाध्याय के लिए रखने पड़ते है क्योंकि ज्ञान साधनों में वे भी सहायक है । तो ये पीछी कमंडल और शास्त्र रखने पड़ते है मुनि को । हां इन्हें शौक से या इनको अपना मानकर वे इन्हें अपने पास नहीं रखते । तो आत्मा की साधना करने के लिए किसी अन्य चीज की जरूरत नहीं । वहाँ तो ज्ञान की जरूरत है । अपने स्वरूप को सोचिये कि मैं ज्ञानमात्र हूँ अमूर्त हूँ । ज्ञान ज्ञानस्वरूप, अन्य कुछ नहीं, ऐसा अपने आपका चिंतन करें । आत्मसाधना हुई ।</p> | ||
<p | <p><strong> हिंसारंभादि दोषवानपुरुषों की गुरुत्वबुद्धि से सेवा विनय में पाखंडीमूढ़ता</strong>―बाहरी जो चीजें भेष में बनायी जाती है उनका प्रयोजन शायद यह ही होता कि लोगों पर हमारी छाप पड़े, पर एक</p> | ||
<p | <p>निर्ग्रंथ दिगंबर मुद्रा है ऐसी जो कोई भेष साधु का नहीं माना गया । त्याग कर जो मुद्रा हुई वह है दिगंबर मुद्रा । इसमें दोष नहीं और अन्य भेष में रहने वाले हिंसा आदिक आरंभ करने वाले परिग्रही हिंसारंभादि दोषवान हैं, उनकी मान्यता उनका पूजना यह सब पाखंड मूढ़ता है । लोग कुछ इस कारण से अन्य जनों के आकर्षण में रहते हैं कि ये तंत्र करते है, टोटका करते है, मंत्र करते है, तावीज देते हैं देखो अगर दिल में पूर्ण शुद्धि रखना है तो एक ही निर्णय करना होगा कि मुझे किसी भी नाम, तावीज या जंत्रमंत्र वगैरह की जरूरत नहीं, ये सब केवल मन के ख्याल है । न तो अन्य लोगों से लेना, न जैन साधुसंतों से लेना । आत्मा का आभूषण तो ज्ञान है, रत्नत्रय है उसमें लग जाये, वही शोभा है । वही अपना उद्धार करने वाला है । दूसरा कौन क्या करेगा? किसी भी आशा से पाखंडीजनों, का देवो का वैयावृत्ति, सत्कार ये ही मेरे सहायक है इनसे ही मुझे मुक्ति मिलेगी ऐसा भाव न रखे । यदि ऐसा भाव रखेंगे तो इसे कहेंगे पाखंडमूढ़ता ।</p> | ||
<p | <p> <strong>पाखंडी मूढ़ता का एक उदाहरण</strong>―एक कथानक है कि कोई एक वेश्या थी, वह बहुत दिनों से खोटा काम कर के ऊब गई थी । उसकी कुछ विरक्ति सी आयी सो सोचा कि मैने जो ऐसे खोटे आचरण में रहकर यह लाख दो लाख का धन कमाया है उसे किसी भले काम के लिए दान कर देना चाहिए । सो उसकी यह बात सुन लिया एक भांड ने कि वेश्या ने अपना सारा धन दान करना विचारा है सो वह पहले से ही संन्यासी का रूप बनाकर गंगा नदी के घाट पर जाकर बैठ गया साथ में एक चेला रख लिया । वहाँ पर बहुत से संन्यासी और भी बैठे थे, वहीं अपना आसन जमाया । जब देखा कि वह वेश्या आ रही है तो झट बड़ी शांत मुद्रा में ध्यान करता हुआ खूब तनकर बैठ गया । अब वेश्या बारी-बारी से अनेक संन्यासियों को देखती गई कि कौनसा सन्यासी पहुंचा हुआ है जो पहुंचा हुआ संन्यासी मिलेगा उसी को ही अपना लाख दो लाख का धन जो कि सोना चांदी आदिक के रूप में है, वह दान कर दिया जायगा, ऐसा विचारकर वह सभी संन्यासियों को देखती गई, पर उसे कोई संन्यासी भला न जंचा, कारण कि सभी गप्प सप्प वाले अथवा गांजा चरस आदि हांकने वाले दिखे । एक जगह उस संन्यासी को भी ध्यानस्थ मुद्रा में बैठा हुआ देखा जो कि भांड ने अपना संन्यासी का रूप बना रखा था । उस सन्यासी को देखकर वेश्या ने समझा कि पहुंचे हुए तो ये संन्यासी जी हैं । देखो कैसा ध्यानस्थ बैठे हुए है वहाँ वेश्या कुछ ठहर गई । अब उस वेश्या को सामने आता हुआ देखकर उस संन्यासी ने और भी अपना रूप पहुंचे हुए तपस्वी का बनाया । उसे देखकर वह वेश्या अत्यंत प्रभावित हुई और निकट जाकर बोली―महाराज महाराज हमारी विनती सुनो। अब महाराज कुछ बोलते ही नहीं, और भी अधिक तनकर ध्यानस्थ मुद्रा में बैठ गए । जब वेश्या ने कई बार निवेदन किया फिर भी उस संन्यासी की आंखें न खुलीं । बहुत-बहुत निवेदन करने पर जब सन्यासी ने धीरे से आंखें खोली तो वेश्या बोली―महाराज आज हम आपके दर्शन करके कृतार्थ हो गए । हमारा एक निवेदन स्वीकार कीजिए ।... क्या है निवेदन?... यही कि मेरे पास यह जो लाख दो लाख का धन है उसे आप स्वीकार कीजिए, मैं इसे आपको दान करना चाहती हूँ क्योंकि मैने इसे बड़े खोटे आचरण से कमाया । अब मेरे मन में ग्लानि आयी है अपनी करतूत से सो मैं इस धन को आपके लिए दान करती हूँ । महाराज स्वीकार कीजिए ।... नहीं-नहीं मुझे न चाहिए ।... नहीं-नहीं यह तो आपको स्वीकार ही करना होगा । अच्छा तो रख दो । अब उस धन को अपने चेले के द्वारा इस सन्यासी ने अपने घर को भिजवा दिया । अब वह वेश्या बोली―महाराज हमारे ऊपर एक कृपा करें । यही कि मैं खीर बनाऊं और मेरे हाथ से वह खीर खाकर मेरे जीवन को आप कृतार्थ कर दें । बाद में मुझे कुछ आशीर्वाद दे दें ताकि मेरा कल्याण हो जावे ।... ठीक है । अब वेश्या ने खीर बनाया और संन्यासी ने खायी। खीर को खाने के बाद वह संन्यासी बोला―गंगाजी के घाट पर खाई खीर अरु खांड । पाप का धन पापहि गया, तुम वेश्या हम भांड ।</p> | ||
<p | <p><strong> पाखंडीमूढ़ता त्यागकर शुद्धात्माराधना का कर्तव्य</strong>―यहां पाखंडमूढ़ता की बात चल रही थी कि कोई गटर माला पहने, हाथ में त्रिशूल ले, लाठी ले, शरीर में भभूत रमाये, अपना डरावनारूप बनाये, कई तरह के शस्त्र धारण करे तो यह कोई साधुता का रूप नहीं । साधु तो निर्भय, निशंक, निष्परिग्रह होता है, निर्ग्रंथ दिगंबर मुद्रा सबको विश्वास उत्पन्न कराने वाली है । जो हथियार रखे उसमें समझो कि खुद में कुछ कमजोरी है, भय है तब हथियार उसने रखा, या फिर किसी को भय दिखाने का उसका भाव रहता है, नहीं तो बताओ हथियार रखने की क्या जरूरत? और फिर जो आरंभ परिग्रह रखते उनमें और-और भी व्यसन आ जाते हैं जैसे जुवा खेलना, मद्य पीना, मांस खाना आदिक । भाँग, गांजा, चरस, बीड़ी, सिगरेट आदिक खाने पीने की बातें तो साधारण रूप से उनमें चलने लगती है । अनेक जगह ऐसा भी देखने में आया कि जटाधारी सन्यासी जनों के बहुत बड़े भक्त होने से गंगा आदिक नदियों में बाल फटकारकर नहाने व उनका जूरा बांध देने में छोटी-छोटी मछलियां भी बालों में फंसकर मर जाती हैं । तो ऐसे पाखंडी भेषधारी सन्यासियों के प्रति सम्यग्दृष्टि जीव को आस्था नहीं होती । उसके तो वीतराग सर्वज्ञदेव के प्रति आस्था होती, आत्मा की कथनी करने वाले शास्त्रों के प्रति श्रद्धा होती और जो सर्व कुछ त्यागकर आत्मा की धुन रखने वाले गुरु हैं उनके प्रति आस्था होती । वह जानता है कि मोक्ष का मार्ग तो एक यही है, अन्य रूप इसका मार्ग नहीं है । तो ज्ञानी पुरुष न तो लोक प्रसिद्ध घटनाओं में मोहित होता है कि यह धर्म है और न वह कुदेव में मोहित होता है कि यहाँ धर्म मिलेगा और न वह कुगुरुवों में मोहित होता है कि हम को यहाँ धर्म मिलेगा । ज्ञानी जीव तीनों तरह की मूढ़तावों से दूर होकर अपने आप में बसे हुए सहज परमात्मस्वरूप की आराधना में रहता है ।</p> | ||
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
सग्रंथारंभहिंसानां संसारावर्तवर्तिनां ।
पाखंडिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाखंडिमोहनम् ।।24।।
ज्ञानी को पाखंडीमूढ़तारहितता―सम्यग्दृष्टि जीव जिन दोषों से रहित होता है उन दोषों में ये तीन महादोष―(1) लोकमूढ़ता (2) देवमूढ़ता और (3) पाखंड मूढ़ता सो इस छंद में पाखंड मूढ़ता का स्वरूप बताया जा रहा है । जो श्रद्धान और ज्ञान से रहित पुरुष है और वह चाहता है कि मेरी लोक में मान्यता हो सो नाना प्रकार के भेष धारणकर लोक में अपने को ऊँचा जताकर लोगों से अपनी पूजा, वंदना, सत्कार चाहता है । परिग्रह रखता, आरंभ रखता, हिंसा के कार्यों में प्रवृति करता, इंद्रिय के विषयों का अनुरागी है । खूब गप्पसप्प में अपना समय बिताता है अभिमानी भी है और अपने को पूज्य धर्मात्मा कहने का इच्छुक है वह कहलाता है पाखंडी जीव । उसकी सेवा करना उसकी भक्ति में रहना और अपने की धर्मात्मा मानना यह पाखंड मूढ़ता है ।
गुरु का लक्षण―गुरु का लक्षण क्या है? जो इंद्रिय के पंचेंद्रिय के विषयों के अधीन न हो, हिंसा आदिक आरंभों से रहित हो, कोई परिग्रह न रखता हो और जिसका काम ज्ञान ध्यान तपश्चरण में रत रहना हो ऐसी धुन रखने वाला गुरु कहलाता है और इसके विपरीत जितने भेषधारी है वे सब कुगुरु या पाखंडी कहलाते हैं । देखिये आत्मा की साधना किसी बाहरी पदार्थ के द्वारा नहीं होती है । अपने ही ज्ञान द्वारा अपने आत्मा की साधना होती है । बाहरी चीजें रखने की कोई जरूरत नहीं । फिर किसलिए गटर माला रखना, किसलिए कमर में रस्सी बांधना, किसलिए त्रिशूल, डमरु, लट्ठ आदि रखना, किसलिए देह में भस्म रमाना ये सब पाखंडमूढ़ता की बातें है । आत्मा की साधना के लिए बाहरी कुछ चीजों की जरूरत नहीं और रखे तो उसमें परिग्रह का दोष है । हां जैन शासन में पिछी कमंडल का रखना जो बताया गया है वह एक विवशता में बताया है । इनका रखना आवश्यक हो मुनि को सो बात नहीं । कोई स्व जगह खड़े होकर ध्यानस्थ रहे, बाहुबलि की तरह तो वहाँ पिछी कमंडल की कोई जरूरत नहीं । कोई कहे कि यदि जमीन को खूब देखभाल कर चले तो वहाँ पिछी की क्या जरूरत? सो देखकर चले सो तो ठीक है मगर रास्ते में कहीं धूप पड़ती, कहीं छाया पड़ती तो छाया में मुनि चल रहा हो और धूप आ गई हो पास तो वह शरीर को पोंछकर धूप में जायगा, क्योंकि ऐसा करने पर छाया में रहने वाले जीवों को धूप में कष्ट होगा, अथवा धूप में जा रहे हो, अब छाया में चलना है तो शरीर को वहाँ पोंछकर चलेंगे क्योंकि धूप में रहने वाले कीड़ों को छाया की जगह में पंहुचने पर बाधा होगी । तो कोई चर्या करे, चले तो वहाँ पिछी की जरूरत पड़ती है । और आहार चर्या के लिए जायगा तो उसे शौच कार्य भी करना पड़ेगा । अब शौच क्रिया के लिए कमंडल भी रखना जरूरी हो गया । एक दो शास्त्र भी स्वाध्याय के लिए रखने पड़ते है क्योंकि ज्ञान साधनों में वे भी सहायक है । तो ये पीछी कमंडल और शास्त्र रखने पड़ते है मुनि को । हां इन्हें शौक से या इनको अपना मानकर वे इन्हें अपने पास नहीं रखते । तो आत्मा की साधना करने के लिए किसी अन्य चीज की जरूरत नहीं । वहाँ तो ज्ञान की जरूरत है । अपने स्वरूप को सोचिये कि मैं ज्ञानमात्र हूँ अमूर्त हूँ । ज्ञान ज्ञानस्वरूप, अन्य कुछ नहीं, ऐसा अपने आपका चिंतन करें । आत्मसाधना हुई ।
हिंसारंभादि दोषवानपुरुषों की गुरुत्वबुद्धि से सेवा विनय में पाखंडीमूढ़ता―बाहरी जो चीजें भेष में बनायी जाती है उनका प्रयोजन शायद यह ही होता कि लोगों पर हमारी छाप पड़े, पर एक
निर्ग्रंथ दिगंबर मुद्रा है ऐसी जो कोई भेष साधु का नहीं माना गया । त्याग कर जो मुद्रा हुई वह है दिगंबर मुद्रा । इसमें दोष नहीं और अन्य भेष में रहने वाले हिंसा आदिक आरंभ करने वाले परिग्रही हिंसारंभादि दोषवान हैं, उनकी मान्यता उनका पूजना यह सब पाखंड मूढ़ता है । लोग कुछ इस कारण से अन्य जनों के आकर्षण में रहते हैं कि ये तंत्र करते है, टोटका करते है, मंत्र करते है, तावीज देते हैं देखो अगर दिल में पूर्ण शुद्धि रखना है तो एक ही निर्णय करना होगा कि मुझे किसी भी नाम, तावीज या जंत्रमंत्र वगैरह की जरूरत नहीं, ये सब केवल मन के ख्याल है । न तो अन्य लोगों से लेना, न जैन साधुसंतों से लेना । आत्मा का आभूषण तो ज्ञान है, रत्नत्रय है उसमें लग जाये, वही शोभा है । वही अपना उद्धार करने वाला है । दूसरा कौन क्या करेगा? किसी भी आशा से पाखंडीजनों, का देवो का वैयावृत्ति, सत्कार ये ही मेरे सहायक है इनसे ही मुझे मुक्ति मिलेगी ऐसा भाव न रखे । यदि ऐसा भाव रखेंगे तो इसे कहेंगे पाखंडमूढ़ता ।
पाखंडी मूढ़ता का एक उदाहरण―एक कथानक है कि कोई एक वेश्या थी, वह बहुत दिनों से खोटा काम कर के ऊब गई थी । उसकी कुछ विरक्ति सी आयी सो सोचा कि मैने जो ऐसे खोटे आचरण में रहकर यह लाख दो लाख का धन कमाया है उसे किसी भले काम के लिए दान कर देना चाहिए । सो उसकी यह बात सुन लिया एक भांड ने कि वेश्या ने अपना सारा धन दान करना विचारा है सो वह पहले से ही संन्यासी का रूप बनाकर गंगा नदी के घाट पर जाकर बैठ गया साथ में एक चेला रख लिया । वहाँ पर बहुत से संन्यासी और भी बैठे थे, वहीं अपना आसन जमाया । जब देखा कि वह वेश्या आ रही है तो झट बड़ी शांत मुद्रा में ध्यान करता हुआ खूब तनकर बैठ गया । अब वेश्या बारी-बारी से अनेक संन्यासियों को देखती गई कि कौनसा सन्यासी पहुंचा हुआ है जो पहुंचा हुआ संन्यासी मिलेगा उसी को ही अपना लाख दो लाख का धन जो कि सोना चांदी आदिक के रूप में है, वह दान कर दिया जायगा, ऐसा विचारकर वह सभी संन्यासियों को देखती गई, पर उसे कोई संन्यासी भला न जंचा, कारण कि सभी गप्प सप्प वाले अथवा गांजा चरस आदि हांकने वाले दिखे । एक जगह उस संन्यासी को भी ध्यानस्थ मुद्रा में बैठा हुआ देखा जो कि भांड ने अपना संन्यासी का रूप बना रखा था । उस सन्यासी को देखकर वेश्या ने समझा कि पहुंचे हुए तो ये संन्यासी जी हैं । देखो कैसा ध्यानस्थ बैठे हुए है वहाँ वेश्या कुछ ठहर गई । अब उस वेश्या को सामने आता हुआ देखकर उस संन्यासी ने और भी अपना रूप पहुंचे हुए तपस्वी का बनाया । उसे देखकर वह वेश्या अत्यंत प्रभावित हुई और निकट जाकर बोली―महाराज महाराज हमारी विनती सुनो। अब महाराज कुछ बोलते ही नहीं, और भी अधिक तनकर ध्यानस्थ मुद्रा में बैठ गए । जब वेश्या ने कई बार निवेदन किया फिर भी उस संन्यासी की आंखें न खुलीं । बहुत-बहुत निवेदन करने पर जब सन्यासी ने धीरे से आंखें खोली तो वेश्या बोली―महाराज आज हम आपके दर्शन करके कृतार्थ हो गए । हमारा एक निवेदन स्वीकार कीजिए ।... क्या है निवेदन?... यही कि मेरे पास यह जो लाख दो लाख का धन है उसे आप स्वीकार कीजिए, मैं इसे आपको दान करना चाहती हूँ क्योंकि मैने इसे बड़े खोटे आचरण से कमाया । अब मेरे मन में ग्लानि आयी है अपनी करतूत से सो मैं इस धन को आपके लिए दान करती हूँ । महाराज स्वीकार कीजिए ।... नहीं-नहीं मुझे न चाहिए ।... नहीं-नहीं यह तो आपको स्वीकार ही करना होगा । अच्छा तो रख दो । अब उस धन को अपने चेले के द्वारा इस सन्यासी ने अपने घर को भिजवा दिया । अब वह वेश्या बोली―महाराज हमारे ऊपर एक कृपा करें । यही कि मैं खीर बनाऊं और मेरे हाथ से वह खीर खाकर मेरे जीवन को आप कृतार्थ कर दें । बाद में मुझे कुछ आशीर्वाद दे दें ताकि मेरा कल्याण हो जावे ।... ठीक है । अब वेश्या ने खीर बनाया और संन्यासी ने खायी। खीर को खाने के बाद वह संन्यासी बोला―गंगाजी के घाट पर खाई खीर अरु खांड । पाप का धन पापहि गया, तुम वेश्या हम भांड ।
पाखंडीमूढ़ता त्यागकर शुद्धात्माराधना का कर्तव्य―यहां पाखंडमूढ़ता की बात चल रही थी कि कोई गटर माला पहने, हाथ में त्रिशूल ले, लाठी ले, शरीर में भभूत रमाये, अपना डरावनारूप बनाये, कई तरह के शस्त्र धारण करे तो यह कोई साधुता का रूप नहीं । साधु तो निर्भय, निशंक, निष्परिग्रह होता है, निर्ग्रंथ दिगंबर मुद्रा सबको विश्वास उत्पन्न कराने वाली है । जो हथियार रखे उसमें समझो कि खुद में कुछ कमजोरी है, भय है तब हथियार उसने रखा, या फिर किसी को भय दिखाने का उसका भाव रहता है, नहीं तो बताओ हथियार रखने की क्या जरूरत? और फिर जो आरंभ परिग्रह रखते उनमें और-और भी व्यसन आ जाते हैं जैसे जुवा खेलना, मद्य पीना, मांस खाना आदिक । भाँग, गांजा, चरस, बीड़ी, सिगरेट आदिक खाने पीने की बातें तो साधारण रूप से उनमें चलने लगती है । अनेक जगह ऐसा भी देखने में आया कि जटाधारी सन्यासी जनों के बहुत बड़े भक्त होने से गंगा आदिक नदियों में बाल फटकारकर नहाने व उनका जूरा बांध देने में छोटी-छोटी मछलियां भी बालों में फंसकर मर जाती हैं । तो ऐसे पाखंडी भेषधारी सन्यासियों के प्रति सम्यग्दृष्टि जीव को आस्था नहीं होती । उसके तो वीतराग सर्वज्ञदेव के प्रति आस्था होती, आत्मा की कथनी करने वाले शास्त्रों के प्रति श्रद्धा होती और जो सर्व कुछ त्यागकर आत्मा की धुन रखने वाले गुरु हैं उनके प्रति आस्था होती । वह जानता है कि मोक्ष का मार्ग तो एक यही है, अन्य रूप इसका मार्ग नहीं है । तो ज्ञानी पुरुष न तो लोक प्रसिद्ध घटनाओं में मोहित होता है कि यह धर्म है और न वह कुदेव में मोहित होता है कि यहाँ धर्म मिलेगा और न वह कुगुरुवों में मोहित होता है कि हम को यहाँ धर्म मिलेगा । ज्ञानी जीव तीनों तरह की मूढ़तावों से दूर होकर अपने आप में बसे हुए सहज परमात्मस्वरूप की आराधना में रहता है ।