वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 25
From जैनकोष
ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलबुद्धिं तपो वपु: ।
अष्टावाश्रित्त्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मया: ।।25।।
सम्यग्दृष्टि के ज्ञानमद का अभाव―जिसने अपने सहज चैतन्यस्वरूपमात्र अंतस्तत्त्व का अनुभव किया है और ऐसे अनुभव पूर्वक सम्यग्दर्शन हुआ है उसकी प्रतीति निरंतर विशुद्ध रहती है, इसी कारण उसके मद नहीं होता ऐसे मदरहित बड़े गणधर आचार्यदेव ने बताया है । मद आठ प्रकार के विषय को लेकर होता है, पहला मद है ज्ञानमद । यह बड़ा कठिन मद है, कोई भी पुरुष अपने आपको ज्ञान के रूप से हल्का अनुभव नहीं करता कि मेरे को कम ज्ञान है । कभी कह भी दें मुख से तो भी भीतर से ऐसा संस्कार रहता है कि मेरा जैसा बुद्धिमान कौन है? सो ज्ञान की बात देखिये―जब यह जीव निगोद अवस्था में रहा । कुछ रहा, हम रहे आप रहे और अवस्था पाया हो या न पाया हो उसका कोई खास निर्णय नहीं हैं क्योंकि कुछ जीव निगोद से एकदम निकलकर मनुष्य भी हो जाते अथवा अन्य पर्याय ले लेते, तो हम आपने अन्य पर्यायें कितनी मलिन पा ली इस विषय में कुछ नहीं कह सकते मगर यह जरूर कह सकते कि हम निगोद पर्याय में अवश्य थे । तो उस निगोद दशा में अक्षर का अनंतवां भाग ज्ञान बताया है । कैसी-कैसी हीन दशायें हुई, एकेंद्रिय जीव बने, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय आदिक भी हुए तो भी एकेंद्रिय की अपेक्षा तो कुछ ज्ञान का विकास हुआ, पर हित अहित का विवेक करने वाला ज्ञान नहीं बढ़ा असंज्ञी पंचेंद्रिय तक यही दशा रही । संज्ञी पंचेंद्रिय हुए तो अन्य संज्ञियों को देखो तो न कुछ जैसा ज्ञान, और मनुष्यों को देखो तो कितना ज्ञान है, कैसा ज्ञान है । प्रथम तो एक ज्ञान के सामने सब ज्ञान अत्यंत छोटे, है फिर अपने ही पूज्य आचार्यों को देखो जिन्होंने बड़ी-बड़ी रचनायें की, तर्कशास्त्र करणानुयोग द्वादशांग वाणी का भी जिसमें अंश हो, गणधरों को देख लो उनके ज्ञान के आगे हम आपका ज्ञान क्या है किंतु जिनको आत्मज्ञान नहीं है उनको अपने पाये हुए ज्ञान पर घमंड होता । जिसके ज्ञानमद है उसके सम्यक्त्व कहां से है? वह तो एक बहुत बड़ा आवरण है ।
वर्तमान परोक्ष ज्ञान की निकृष्टता―अच्छा जो भी आपने ज्ञान पाया उसकी निकृष्टता देखिये―पहले तो यह ज्ञान इंद्रिय से उत्पन्न हुआ । यह एक साधन की अपेक्षा कह रहे है । ज्ञानपर्याय तो अंतरंग हेतुरूप ज्ञान गुण से ही प्रकट होती है मगर हम आपके यों हो क्यों नहीं गया? यदि आँखे खराब है तो रूप देखने का ज्ञान क्यों नहीं हो रहा? बुखार होने से रसना इंद्रिय बदल गई । गन्ने का रस भी कड़वा लगता है । तो इंद्रिय ठीक हों तो हम आप लोगों को ज्ञान बने, ऐसा तो पराधीन ज्ञान है और उस ज्ञान पर गर्व करते । दूसरी बात ज्ञानावरण कर्म जो लगे हुए है उनके क्षयोपशम के अनुरूप यह ज्ञान प्रकट होता है । जितना क्षयोपशम है उतना है ज्ञान । ज्ञानावरण कर्म जितना हटे उतना ज्ञान होता है । जिस ज्ञान पर लोग गर्व करते है उस ज्ञान की बात बतायी जा रही है कि गर्व करने लायक नहीं है स्थिति, पर जिसको आत्मज्ञान नहीं है वह उस ही ज्ञान पर घमंड करता है । फिर कुछ ज्ञान भी हुआ जैसा क्षयोपशम इंद्रियजंय होता हो पर उसका भी भरोसा तो नहीं । शरीर में कोई रोग हो जाता कि यह ज्ञान भी इसी भव में नहीं रह पाता । बुद्धि बिगड़ गई, वात, पित्त, कफ की अधिकता हो गई अटपट बकने लगे । जो ज्ञान पाया उस ज्ञान का भरोसा भी तो नहीं कि वह टिकेगा भी । इंद्रियां नष्ट हो जाये तो ज्ञान भी नष्ट हो जाता, और इंद्रियजंय जो ज्ञानपर्याय बनी वह भी मिटेगी । ऐसे इस ज्ञान पर क्या गर्व करना ।
कलहों का मुख्य कारण ज्ञानमद―देखिये समाज में धर्म के नाम पर जितनी भी लड़ाइयां होता है । उनका मूल आधार है ज्ञान का मद । आप खूब खोज कर विचार लो कि जैसा चाहा वैसा कोई नहीं प्रबंध किया । यह काम ऐसा क्यों नहीं हुआ कुछ भी कहा जाय बस वह बात न मानी जाय तो वहाँ विवाद खड़ा हो जाता है । और उसकी तो बात जाने दो, रास्ते में चले जा रहे है और किसी जगह से दो रास्ते फूटे हों और इन दोनों को थोड़ी दूर जाने का फिर एकं जगह वही रास्ता मिल जायगा, मगर जहाँ से फूटा है, अपना साथी कहता है कि इस रास्ते से चलो और खुद चले किसी दूसरे रास्ते से तो उसमें मन खराब हो जाता । इसने मेरी बात नहीं माना अरे 5 मिनट बाद तो उसी रास्ते से आयेंगे । क्यों जरा-जरासी बातों में मद करते? इसने मेरी बात न मानी, मेरे कहे अनुसार क्यों न चला, अरे यह मद इस जीव को बरबाद करता है । अच्छा इस ज्ञान की भी दुर्दशा देखिये जो पाया है । कितने ही लोग दूसरे के फंसाने के जाल बनाते, दूसरे के मारने के अनेक साधन बनाते । उसमें अपनी कला मानते कि मैं कलाकार हूँ । मैं इस-इस तरह से जाल रच लेता हूँ शस्त्र बना लेता हूँ । उसे अपने उसी ज्ञान पर गर्व है, कितने ही लोग कुछ कविता बना लेते, कवि सम्मेलनों में भाग लेते तो उन्हें देखा होगा कि हरएक कवि ऐसा सोचता कि मैं सबसे अधिक बुद्धिमान हूँ । यों ज्ञान के मद की एक होड़ लग गई है, पर ऐसा ज्ञानमद इस जीव के लिए भला करने वाला नहीं है । अगर शुद्ध ज्ञान पाया है, कुछ आत्मा के स्वरूप का परिचय मिला है तो वह तो इतना नम्र होगा कि उसका उपयोग उसकी बुद्धि अपने आत्मा के ही अभिमुख हो जायगी । जैसे समुद्र से ही तो पानी निकला जो कि बादलों के रूप में बना, गर्मी में भाप बनी, बादल बने, बहुत दिन तक वह कड़ा-कड़ा रहा । समय पाकर वह पानी बरसा और बरस कर नीचे रास्ते से चल-चलकर आखिर वह पानी समुद्र में ही मिलता है, तो इसी तरह यह ज्ञान समुद्र में से उस मिथ्यात्व आदिक आपतन के कारण यह कुछ ज्ञानजल यहाँ से उठा और यह बाहर में ज्ञान घूमने लगा, गर्व करने लगा जगह-जगह भटकने लगा, अनेकों चीजों की टक्कर खाने लगा और कोई अच्छी लब्धि पाकर इसकी बुद्धि ठिकाने आये तो यह ही ज्ञान बरसा कर आत्मा को छूकर नीचे के रास्ते से चलकर अर्थात नम्रता सै रहकर ज्ञान सरोवर में ही मिल जायगा । कठोरता बुरी चीज है ।
मद में हठ होने के कारण अपमानादि अनेक आपदायें―किसी बात पर अड़ जाना यह खुद के लिए हानिकारक है । मद में यही तो होता है । एक दंपति था उसका दूसरा विवाह हुआ तो वह दूसरी स्त्री को बहुत चाहता था और स्त्री को भी गर्व हो गया कि मेरा पति मुझे बहुत चाहता है, पर सोचा कि मुझे परीक्षा लेना चाहिए कि मेरा पति मुझे वास्तव में चाहता है या नहीं । तो परीक्षा लेने के लिए वह पेट दर्द या सिर दर्द का बहाना करके लेट गई । देखिये ये दो बहाने पेट दर्द या सिर दर्द के ऐसे हैं कि कोई कितना ही सही-सही जानना चाहे तो वह जान न पायगा । बुखार हो तो वहाँ बहाना कहां से चलेगा । लोग थर्मामीटर लगा कर देख लेंगे पर सिर दर्द या पेट दर्द का सही-सही पता कोई नहीं पा सकता । तो वह स्त्री पेटदर्द का बहाना करके पड़ गई । पति आया, उसे उदास देखकर पूछा कहो क्या बात है?... भारी पेट दर्द है ।... कैसे ठीक होगा? अभी-अभी स्वप्न में मुझे एक देव ने बताया कि जो तुम से भारी प्रेम करता हो वह अपनी मूंछ मुड़ाकर सवेरा होते ही होते दर्शन दे तब तो प्राण बच सकते नहीं तो प्राण न बचेंगे । तो उस पुरुष ने सोचा यह क्या कठिन बात है सो झट से मूंछ मुड़वा डाला और सवेरा होते ही होते दर्शन दे दिया, लो स्त्री चंगी हो गई । अब वह सबेरे चक्की पीसते समय रोज-रोज वही गीत गाये―‘अपनी टेक चलाई पति के मूंछ मुड़ाई’ उस स्त्री का रोज-रोज यही गीत सुनकर वह पुरुष बड़ा हैरान हुआ और समझ लिया कि इसको पेट दर्द न था, मुझ को छकाने के लिए वह उसका बहाना था । खैर पुरुष के मन में आया कि मुझे भी इसको किसी बहाने से छकाना चाहिए । आखिर छकाने का उपाय मिल गया । क्या किया कि अपनी ससुराल को एक चिट्ठी लिखा कि तुम्हारी लड़की सख्त बीमार है उसके बचने की कोई आशा नहीं है । हां एक उपाय है उसके बचने का । किसी देव ने स्वप्न में बताया है कि इसके माता-पिता, चाचा-चाची, भाई-बहिन आदि जो-जो भी इससे प्यार करते हों वे शीघ्र ही अपने मूंछ-दाढ़ी, सिर के बाल बनवाकर सवेरा होते ही इसको दर्शन दें तो प्राण बचेंगे अन्यथा नहीं । अब क्या था । उस पत्र के मिलते ही उस स्त्री के परिवार के सभी लोगों ने उसके प्राणों की रक्षा के लिए अपने-अपने सिर के बाल, मूंछ-दाढ़ी, आदि बनवाकर चल दिये और सवेरा होते-होते उसके घर आकर खड़े हो गए । उस समय वह स्त्री अपना वही गीत गा रही थी―‘अपनी टेक चलाई पति की मूंछ मुड़ाई ।’ सो वहाँ उस पुरुष ने कहा―‘पीछे देख लुगाई मुंडन की पल्टन आई ।’ सो ज्यों उसने पीछे की ओर देखा तो मारे शरम के गड़ गई । तो हठ कभी किसी के लिए अच्छी नहीं होती । यह हठ बनता है ज्ञान का मद आने पर । जिसको ज्ञान का मद है उसका सारा उपयोग भ्रांत बन जाता है। उसे आत्मा के स्वरूप की सुध लेने का अवसर नहीं मिल पाता । ज्ञान का मद होने पर आत्मतत्त्व की बात नहीं बैठ पाती ।
ज्ञानी के पूजामद का अभाव―मुनियों की मुद्रा चर्या देख लो, वहाँ मद का कोई काम नहीं रहता । जमीन ही जिनका आसन है, जमीन ही जिनका शैया है, जिनके शरीर में कोई साज श्रृंगार नहीं । मद का कोई अवसर नहीं, फिर भी यदि मद कर सकता तो ज्ञान का मद करेगा, पूज्यपने का मद करेगा । सो वहाँ अज्ञान है । यदि उसे आत्मज्ञान होता है तो उसे यह मद कभी न हो सकता था । मद किस बात का? आज अगर पूज्य बने तो कल को रंक और निंद्य नहीं बन सकते क्या? अरे न जाने क्या से क्या स्थिति बन सकती? यहाँ काहे का मद करना? मद का परिणाम पाप का बंध करता है और नम्र रहने का परिणाम पुण्य का बंध करता है और आत्मा को शांति का कारण है, और एक लौकिक दृष्टि से भी विचार करें, लोग तो यह चाहते कि अन्य लोग हमारा आदर करें पर यह बात तब तक न बनेगी जब तक खुद भी दूसरों को आदर न देंगे । तो पूज्यपना भी चाहिए तो उसका भी आधार नम्रता है । अगर लोगों को, भक्तों को यह बात चित्त में आ जाय कि यह तो इस प्रकार का अभिमानी है तो उनके चित्त में फिर पूज्यता नहीं रह सकती, और फिर यह ऐश्वर्य जिसके कारण पूज्यता बनी है वह भी विध्वंस शील है । आज है कल को रहे न रहे । फिर कहां पूज्यता रही? कल को जो प्रधान मंत्री था आज उसे कोई पूछ नहीं रहा सो तो आप लोग आँखों देख ही रहे है । तो लो पूज्यपने का क्या अर्थ है? और वास्तविक पूज्य जो हो जाता है उसके कोई विकल्प नहीं रहता । प्रभु परमात्मा पूज्य है, उनके कुछ विकल्प ही नहीं हैं । लोग बड़ा मानें तो न मानें तो, उनको क्या गर्ज पड़ी हैं । वे तो सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि निजानंद रस लीन । समस्त ज्ञेयों को जानने वाले है तिस पर भी अपने आनंद रस में लीन है- । तो जो वास्तविक पूज्य है उनके घमंड नहीं, जो पूज्यता का विचार कर घमंड करते हैं उनके वास्तविक पूज्यता नहीं ।
ज्ञानी के कुलमद का अभाव―तीसरा मद है कुलमद ज्ञानी जीव को कुल का मद नहीं होता । देखिये लोक में अच्छा कुल मिला है श्रावककुल मिला जैनशासन के रहस्यों का जहाँ ज्ञान बना, ऐसी स्थिति में उत्पन्न हुए, मगर ज्ञानी पुरुष जानता है कि आत्मा के साथ इस कुल का संबंध नहीं है । आत्मा का कुल तो चैतन्य है लोग सोचते है कि हमारा घर कोई कुल चलाने वाला नहीं है सामने पति नहीं है और पुत्र का भी यही अर्थ है―वंश पुनातिइति पुत्र: । जो वंश को पवित्र करता है उसका नाम है पुत्र । पर यह तो सोचो कि आपका वंश क्या है? क्या अग्रवाल, जायसवाल, खंडेलवाल, लमैचू, गोलालार, गोलसिंगारे आदि ये सब आपके कुल है क्या? अरे आपके आत्मा का कुल है चैतन्य । चैतन्यकुल पवित्र होना चाहिए । उसको पवित्र करने वाला कौन? यह मेरा खुद का आत्मा । तो यह मैं आत्मा निर्मल परिणामों से रहूं तो मेरा चेतन कुल पवित्र होगा, शुद्ध होगा ओर यथार्थ अवस्था में हो जायगा । पर यह गोत्रनाम कर्म के उदय से जो कुल मिला यह सब माया रूप है । ये कोई वास्तविक चीज नहीं । इसका मेरे आत्म से कुछ संबंध नहीं । अच्छा है कुल जिसमें धर्मसमागम सुगम मिल गए हैं लेकिन यथार्थ दृष्टि से ज्ञानी सोच रहा है कि मेरे आत्मा का इस शरीर के कुल से कोई संबंध नहीं है । मेरा तो मेरे चैतन्यकुल से संबंध है । ज्ञानी को कुल संबंधित मद उत्पन्न नहीं होता । बस जानन देखनहार रहता, कोई विकल्प तरंग नहीं होती, ऐसी जो उसकी सहज स्थिति है वही मेरा कुल है । यदि गौरव अनुभव करना है तो अपने चैतन्यकुल का ध्यान करके गौरव अनुभव कीजिए पर यह शरीर संबंधित कुल यह गर्व के लायक नहीं है । अच्छा देखिये―इस कुल का क्या भरोसा? वह अधिक से अधिक इस भव तक मान लोगे, पर आगे अनंतभवों में इस जीव ने कैसे-कैसे कुल नहीं पाये और आगे भी क्या भरोसा? जहाँ राजा भी मरकर कीड़ा बन जाय वहाँ कुछ सोचना यह सब बेकार बात है ।
कुलमद से दुर्गति का लाभ―एक कथानक आया है कि एक राजा ने किसी मुनिराज से पूछा कि महाराज मैं मरकर क्या होऊंगा? तो मुनिराज ने बताया कि तुम मरकर अपने ही घर के लैट्रिन में विष्टा के कीड़ा बनोगे । वह बड़ा दुखी हुआ मुनिराज की इस प्रकार की बात सुनकर और घर आकर अपने लड़कों से कह दिया कि देखो मुझे एक मुनिराज ने बताया है कि तुम अमुक दिन मरकर अपने ही घर के लैट्रिन में विष्टा के कीड़ा बनोगे सो तुम लोग मेरे मर जाने पर उस लैट्रिन में देखना अगर उसमें विष्टा कीड़ा दिखे तो मार डालना मुझे वैसी गंदी पर्याय में जीवित रहने से फायदा क्या? आखिर हुआ क्या कि जब वह राजा मरा और मरकर विष्टा का कीड़ा बना तो उसे मारने के लिए उस राजा के लड़के पहुंचे, पर ज्यों ही लकड़ी से मारना चाहा, त्यों ही वह कीड़ा अपनी जान बचाने के लिए उसी विष्टा में घुस गया, वे लड़के उस कीड़े को मारने में असमर्थ रहे । तो देखिये―निंद्य पर्याय पाकर भी यह जीव उस ही में रहकर खुश रहता वहाँ मरना नहीं चाहता तो यहाँ कुल का क्या मद करना? ज्ञानी पुरुष अपने कुल का मद नहीं करता । तो शोभा इस बात में है कि हम अपने आपके सहजस्वरूप को सही-सही जान लें और अधिकाधिक दृष्टि उस आत्मस्वरूप में ही लगाये रहें । बाकी इन सांसारिक बातों पर अधिक दृष्टि न दें । यहाँ कैसा ही कुछ हो । किसी भी बात का घमंड न हो । अपने आपकी और अभिमुख रहना यही अपना कर्त्तव्य है । और कर्त्तव्य से चूके तो बस वहाँ सही-सही ठिकाना न मिल पायगा । गर्व करने का फल बड़ा बुरा होता है । सूत्रजी में बताया है कि दूसरे की प्रशंसा करना और अपनी निंदा करना, नम्रता का व्यवहार करना । गर्व न होना यह परिणाम उच्चगोत्र का बंध करता है और इससे उल्टा आचरण करने में याने पर की निंदा करने, अपनी प्रशंसा करने, पर के गुण ढाकने, अपने में गुण न हो फिर भी उन्हें उभाड़ने आदि के कार्यों से नीच गोत्र का बंध होता है । मनुष्य हुए तो नीच कुल में गए, नारकी हुए तो वे सब नीच होते ही हैं तिर्यंच नीच होते ही हैं तो अभिमान का फल अच्छा नहीं होता ।
ज्ञानी के जातिमद का अभाव―जैसे कुल का मद होता है वैसे ही जाति का भी मद होता । जाति का मद मामा के कुल से संबंध रखता है याने माता जहाँ उत्पन्न हुईं है उसके कुल का संबंध है जाति से । अभी देखो दो ही जगह का तो घमंड है लोगों को । किसी को अपने पिता के कुल का घमंड है तो किसी को अपने नाना मामा के कुल का घमंड है । मैं ऐसी नानी का नाती हूँ मैं ऐसे महापुरुष का पोता हूँ । पुत्र के लड़के का नाम पोता कहलाता है और इस देश में तो लड़की के लड़के को भी पोता बोलते । इस देश में तो दोनों को नाती कहते इसलिए कभी-कभी लोग यह नहीं समझ पाते कि कौन से नाती को कहा गया । तो घमंड दोनों आश्रयों से हुआ करता है तो जाति का भी एक मद होता किंतु ये कुल और जाति के घमंड ये सब देह कर्म का संबंध रखने वाली बातें हैं इनसे आत्मा का कुछ संबंध नहीं हाँ इतनी बात अवश्य है कि अच्छे कुल में उत्पन्न हुआ जीव अच्छे परिणामों को सुगमतया प्राप्त करने का साधन पाता है और नीचकुल में उत्पन्न हुए को यह बात बहुत कठिन है कि उसे धर्मसाधना का कोई अवसर मिल सके या ज्ञानादिक में प्रगति हो सके । सो उच्च कुल पाया है तो घमंड के लिये नही पाया किंतु आत्मज्ञान करके इसमें बढ़े और अपने आत्मा में रमकर ही संतोष पायें ऐसा परिचय बनाने के लिए पाया यह चित्त में निर्णय होना चाहिए । तो ऐसे ज्ञान, पूजा, कुल, जाति के मदों को त्यागकर नम्रता से आत्मा के अभिमुख होकर अपने को ज्ञानमात्र का अनुभव करना चाहियें मेरा शुद्ध कुल यह है अपने को जितना ज्ञानस्वरूप निरखा जायगा उतना ही अपना चैतन्य कुल पवित्र बनेगा और विकसित होकर यह ज्ञान लोकालोक का जाननहार सर्वज्ञ हो जायगा । तो मद त्यागने में विकास है, पर मद करने में विकास नहीं । मद करने का फल है अधोगति में जन्म होना इससे सर्व मद त्यागकर अपने आत्मस्वरूप के अभिमुख हों । यह ही विवेकी पुरुष का कर्तव्य है ।
द्रव्य क्षेत्र काल भेदभाव व अभेदभाव से आत्मा का परिचय―ज्ञानी पुरुष का मनन रहता है कि मैं समस्त परपदार्थों से निराला, शरीर से निराला, कर्मों से निराला कर्मों के उदय से होने वाले प्रतिफलन से निराला ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व हूँ जो मैं सही हूँ स्वयं हूँ सहज हूँ उस ही रूप मानना । मानता है यह जीव अन्य रूप कैसे मानेगा? जो बात यथार्थ दिख गई उसके विरुद्ध अब यह कैसे मान सकता? मैं अखंड चैतन्य पिंड हूँ । इसको समझ के लिए अनेकों गुण बताये गए हैं, मुझ में ज्ञानगुण, दर्शन गुण, चारित्रगुण और आनंदगुण आदिक अनंत गुण है और पर्याय भी यद्यपि प्रति समय एक अखंड चलती है पर समझने के लिए जितने गुण के भेद लिए गए उतने ही गुण की पर्याय ज्ञान में आयेंगी । इस आत्मा का परिचय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से होता है । द्रव्य से तो पिंडरूप द्रव्य होता । यह अनंत गुण पर्यायों का पिंड है । क्षेत्र से आत्मा का परिचय क्या होता? जैसा यह देह का आकार है उतने लंबे चौड़े क्षेत्र में यह आत्मा विस्तृत है । यों देहाकार आत्मा का परिचय होता है । यह इस समय किस पर्याय में है । क्या अवस्था है उस अवस्था में परिचय होता है । काल से क्रोधी है, मानी है, शांत है अशांत है । और भावों से परिचय करने में दो प्रकार होते हैं―(1) भेदरूप भाव (2) अभेदरूप भाव । भेदरूप भाव से आत्मा का यह परिचय मिलता है कि दर्शन आदिक अनंत गुण आत्मा में हैं, पर अभेदभाव से मैं चैतन्यमात्र हूँ प्रतिभास मात्र हूँ । एक अखंड अवक्तव्य प्रतिभास स्वरूप का बोध होता है । तो अब आप जान गये होंगे कि आत्मा का परिचय 5 तरह से होता है । पर उन 5 तरह से परिचय तो हुआ सबका मगर स्वानुभव किस परिचय के बाद होता है यह परख करिये ।
स्वानुभव प्रकृष्ट साधन अभेदभाव से आत्मा का परिचय―पहले यह समझिये कि स्वानुभव ज्ञानानुभव ये करीब अनर्थांतर हैं । ज्ञान के अनुभव में स्वानुभव होता है यहाँ । तो जब द्रव्य से जान रहे हैं कि अनंत गुणों का पिंड है । इसमें भूत, वर्तमान, भविष्य अनंत पर्यायें हैं तो ऐसा जानने के समय में चित्त व्यग्र हो रहा है । परिचय है मगर उसमें भी इसका संक्रमण परिवर्तन जानने का एक विषय बदल बदलकर चलता जा रहा है । इस स्थिति में स्वानुभव नहीं होता, मगर ऐसे परिचय के बिना भी स्वानुभव नहीं होता । क्षेत्र से परिचय पाया । यह आत्मा देह के आकार इतने लंबे चौड़े प्रदेशों में फैला हुआ है परिचय तो बन गया, और ऐसा परिचय पाये बिना आगे प्रगति भी नहीं होती, मगर उस परिचय के काल में स्वानुभव नहीं है क्यों नहीं है कि अनुभव होता है ज्ञान से और ज्ञान से ज्ञान ही अनुभव में आया तो बनेगा स्वानुभव पर यह तो आकार परिचय में आ रहा है । काल से परिचय किया । आत्मा अनंत पर्यायों को भोग चुका, वर्तमान यह पर्याय है आगे अनंत पर्याय भोगेगा । कैसी पर्याय चल रही है यह सब ज्ञान में आ रहा है । सो परिचय करना आवश्यक है, क्योंकि ऐसे परिचय बिना आगे प्रगति न होगी पर इस परिचय के काल में उसके विकल्प चल रहे हैं या स्थिर हो गए, अविकल्प हो गए, विकल्प चल रहे हैं, उस काल में स्वानुभव नहीं हैं जब भेदभाव से देखा-इसमें अनंत गुण हैं, त्रैकालिक शक्तियां हैं, सोचते जाइये, और ऐसे परिचय के बिना हम स्वानुभव के पात्र न बन सकेंगे फिर भी जब तक शक्तिभेद का चिंतन बना है उस समय से स्वानुभव नहीं है । मृत ने समग्र परिचय के बाद जब अभेद चैतन्यस्वरूप यह ज्ञानमात्र ज्ञान में ही रहता है तो चूंकि ज्ञाता ज्ञान हुआ ज्ञेय भी ज्ञान हुआ, ऐसा अभेद हो जाने पर वहाँ स्वानुभूति प्रकट होती है, इस तरह की क्रिया से जिसने आत्मा का दर्शन किया है वह सम्यग्दृष्टि पुरुष किसी भी वाह्य पदार्थ को पाकर घमंड करेगा क्या? उनका घमंड नहीं होता ।
ज्ञानी के बलमद का अभाव―एक मद बल का होता है । जो शरीर को बल मिला उस बल का घमंड और सोचता है ज्ञानी कि मेरे बल तो अनंत है जिसे अनंत चतुष्टय कहते । इतना सामर्थ्य है, पर वीर्यांतराय कर्म का नहीं है क्षयोपशम अनेक प्रकृतियों का उदय है विशेष उसका बल ढक गया, और जब मैं एकेंद्रिय था दो इंद्रिय तीन इंद्रिय आदिक था तो कितना बलहीन था । लोगों ने कुचला, छीला, पकड़ा, बंधन किया, बलहीन थे । आज कुछ वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशम मिलने से कुछ बल प्रकट हुआ है । यह बल पराधीन है, यह बल विकृत है यह मेरे स्वभाव का बल नहीं है । देह बल से क्या अपने को बलवान समझना? अपने से अधिक बल तो पाड़ा, झोटा, गधा, घोड़ा वगैरह में है । देह के बल का घमंड करें तो कम से कम गधे को देखकर तो घमंड चूर कर देना चाहिये । इस मामले में तो हम से बढ़कर गधा है । गधा जितना बल तो नहीं है । तो देह के बल का क्या घमंड करना? हां एक मौका मिला है कि इस मनुष्यपर्याय में देह बल भी प्रकट हुआ तो इस बल का सदुपयोग करो, दुरुपयोग मत करो । दुरुपयोग क्या है? किसी को पीटना, किसी का नुकसान करना, अन्याय अत्याचार करना, ये सब देह के बल के दुरुपयोग हैं । दुरुपयोग न करें, सदुपयोग करें । देह का बल प्रकट हुआ है तो व्रत में तपश्चरण में ध्यान, अध्ययन, स्वाध्याय में इस बल का प्रयोग करके आत्मीय बल के साथ संधि करें । यह है इस बल का सदुपयोग । कितने ही लोग धर्म के नाम पर, आज के तत्त्वज्ञान के नाम पर व्रत, तपश्चरण आदि से ग्लानि करते, उनमें प्रमाद करते अथवा हो जायगा, होता ही है सहज होगा किसी भी नाम पर यह व्रत तपश्चरण संयमरहित जीवन बिताया जा रहा है । अरे जहाँ बल प्रयोग से दूकान के काम, भार के ढोने के काम, कितने ही काम लगे रखे हैं, घर के काम, बोझ लादने के काम, इतने काम लगा रखे, तो इस बल से अगर थोड़ा बत नियम का भी काम किया जाय तो इसमें कौनसा बुरा हैं? एक बात कही जाती है कि पहले सम्यक्त्व उत्पन्न कर लो, बाद में व्रत करना चाहिए । सो बात तो ठीक है कि सम्यक्त्व के होने पर ही व्रत-व्रत नाम पाता है मगर इसका प्रमाद करने से बात क्या हो जाती है कि यह जीवन भर व्रत नहीं किया जा पाता । सम्यक्त्व हो लेने दो तो इस तरह से सम्यक्त्व हो ही नहीं पाता किसी के जिंदगी भर । वास्तव में सम्यक्त्व जो केवल ज्ञानगोचर है उसकी प्रमादीजन आड़ लेते हैं । इस बल के दुरुपयोग में ही रहे तो जीवन तो ऐसा गुजर रहा है जैसे पहाड़ से गिरती हुई नदी कभी वह ऊपर को नहीं वापिस होती, ऐसे ही जो जीवन गया वह कभी वापिस नहीं होता ।
व्रत तपश्चरण आदि द्वारा देहबल का सदुपयोग करने का अनुरोध―मान लो सम्यक्त्व नहीं हुआ और वह व्रत तपश्चरण कर रहा और एक के सम्यक्त्व भी न हो और वत तपश्चरण से ग्लानि कर रहा तो इन दोनों में अपेक्षाकृत बतलाओ कि लाभ में कौन रहा? अज्ञानी दोनों हैं, सम्यक्त्व दोनों में नहीं हैं, किंतु एक के सम्यक्त्व नहीं, और जो बाह्य व्रत हैं जो कुछ उपयोग को अच्छे कार्यों में थमाने वाले कार्य है उनसे भी प्रमाद कर रहा, उसकी क्या गति होगी? उत्तम गति न होगी और एक के सम्यक्त्व नहीं है फिर भी अपनी वर्तमान बुद्धि के अनुसार कषाय मंद कर रहा, धर्म कार्यों में लग रहा, समय पर व्रत कर रहा तो उसके कम से कम उत्तम गति तो होगी । जो प्रथा चली आयी है कि नियम रखना व्रत रखना, तपश्चरण करना, इसके लिए यह बहाना न करें कि मैं पहले सम्यक्त्व को कर लूं कि मेरे सम्यक्त्व हो गया है तब व्रत करुँ, ऐसी उसमें प्रतीक्षा नहीं की जाती है । जब भी बुद्धि आये तब शक्ति के अनुसार व्रत, नियम तपश्चरण कीजिए । एक बात सोच सकते हैं कि सम्यक्त्व न होने पर वे व्रत-व्रत तो न कहलायेंगे, जिसे पंचम गुणस्थान कहते हैं, न कहलाये, पर इस बल का कुछ सदुपयोग तो किया । यह देह का बल व्यर्थ ही यों जा रहा था प्रमाद करके अथवा संयम से घृणा करके ऐसी बातें कला के साथ बोलते कि जिसमें कुछ देह का संयम आदिक भी न करना पड़े और लोगों में हम ऊंचे धर्मात्मा भी कहलाये ।
आत्मलाभ का उद्देश्य न होने पर ही अटपट व्यवहार―आजकल जो छुआछूत बढ़ी है जरा जरासी बातों में, अगर धोती किवाड़ से छू गई तो अशुद्ध हो गई, बदलो आदिक जो एक सीमा को उल्लंघन करके छुवाछूत बढ़ी हैं इसका इतिहास अगर खींचे तो क्या मिलेगा? हम तो यह अंदाज कर सके हैं कि पहले समय में भरत चक्रवर्ती ने विप्र वर्ण की स्थापना की थी और वे पूज्य थे, सचमुच में अच्छे थे, व्रती होते थे, ज्ञानी होते थे और उनके द्वारा अन्य सब लोग धर्म का उपदेश सुनते थे । अच्छे आचरण में लगते थे किंतु वे ऐसे बदले कि साधारण गृहस्थों की तरह उनमें प्रवृति हो गई, और भी गिरे तो उनके भाव ऐसे आ गये कि मद्य मांस खाने पीने का भी मौज लेना चाहिए । अब बतलावो, जहाँ लोक में इतना आदर है, पूज्यता है वहाँ ये गंदी चीजें कैसे इस्तेमाल की जायें? एक यह उनके सामने प्रश्न था पर उनकी बुद्धि ने इस समस्या का हल कर लिया । कोई धर्म का रूप दे, यज्ञ करो, बकरे होमो, घोड़े होमो और लोगो की विश्वास करा दे कि यह धर्म का कार्य हो रहा, सो धर्म के नाम पर हम बड़े के बड़े कहलायेंगे और उसमें आसानी से मांस मदिरा आदिक सबका लाभ हो जायगा । ठीक है हुआ, पर एक डर उनको बना रहा कि दूषित काम करने से लोग परख तो जायेंगे सब, तो ऊपरी-ऊपरी बड़ी शुद्धि बढ़ा ली और मानते कि हम बड़े पवित्र हैं । दक्षिण देश में देखने में आया कि किन्हीं-किन्ही लोगों के यहाँ चौके की बड़ी शुद्धि चलती है मगर चौके में भोजन किस चीज का? मांस मच्छी का । तो ऊपरी शुद्धि जितनी अधिक बढ़कर चलेगी उतनी-उतनी पोल ढकेगी पर इससे हित की बात तो न बनेगी । इससे इस प्रणाली को बदलना होगा । देह में जब बल मिला है तो प्रमाद न करना । जितनी शक्ति हो उसके अनुसार उसे न छुपाकर व्रत में तपश्चरण में जरूर लगाना । आजकल लोगों के चारित्र में इतनी गिरावट आ गई कि रात्रि भोजन तक का त्याग नहीं करते बन रहा, हां कुछ लोग निभा रहे, पर एक नवयुवक वर्ग अथवा अन्य लोग जिनको उपदेश सुनने को मिलता नहीं, या अन्य प्रकार की वार्ता मिलती है उनमें कुछ परसेन्ट लोग ही रात्रिभोजन के त्यागी मिलते हैं, कहीं-कहीं तो एक परसेन्ट भी रात्रि भोजन के त्यागी नहीं मिलते । उन्होंने अपने को अत्यंत कायर बना डाला है, जरा सा भी कष्ट नहीं सह सकते । अरे क्या है, दिन में ही एक दो या तीन बार भोजन कर लो, रात्रि भोजन का त्याग रखो । कहीं ऐसा नहीं है कि दिन ही दिन में भोजन करें रात्रि में न करें तो स्वास्थ्य में फर्क पड़ जायगा । यहाँ तो लोग जान बूझकर उपवास करना ही नहीं चाहते, पर उपवास करने से कहीं स्वास्थ्य में हानि नहीं होती, बल्कि स्वास्थ्य अच्छा रहता है । आज हम आपको कुछ शारीरिक बल मिला है तो उसका सदुपयोग करना चाहिए । दया करना व्रत करना, नियम लेना यह है बल का सदुपयोग ।
ज्ञानी के ऋद्धिमद का अभाव―एक मद है ऋद्धिमद―गृहस्थों की ऋद्धि है धन वैभव मुनिजनों की ऋद्धि और प्रकार की होती है । तो जो धन वैभव पाया गृहस्थों ने उसमें मद आ जाना ऋद्धिमद है । कोई सोचे कि मेरे पास बड़ा धन वैभव है, अनेक लोग मेरे पास याचना करने आते है । बड़े-बड़े तपस्वीजनों को हम आहार दिया करते है, उनका भी मुझ से ही काम चलता है यों कितनी ही बातें सोचकर उस ऐश्वर्य का मद करना यह ऋद्धिमद कहलाता है पर विचारो तो सही कि यह आत्मा कितना है अपने प्रदेशमात्र इसका वैभव क्या है? इसका जो स्वरूप है वही इसका वैभव है जो इसके साथ ही रहेगा, मरने पर भी न छूटेगा, वह हमारा वैभव है और जो छूट जायगा वह सब उधार लिया हुआ वैभव है । मांगा हुआ वैभव है । जैसे-यहां किसी से उधार कोई चीज लेकर बर्ते, पहने तो वह कुछ समय बाद देना पड़ता है । पहले समय में विवाह बारात के समय पुरुष भी अनेक गहने मांगकर पहना करते थे गुंज गोप आदिक । तो बताओ जो मांगे हुए पहना सो छूटेंगे कि नहीं? छूटेंगे तो ऐसे ही पुण्य का मांगा हुआ सह वैभव है, उधार है, यह आपके गांठ की चीज नहीं है, यह भी छूटेगा, उसका क्या मद करना? एक सेठ था वृद्ध और उसके एक लड़का था नाबालिग 4-6 वर्ष का । उसके पास करीब 10 लाख की जायदाद थी । जब वह गुजरने लगा तो उसने अपनी सारी जायदाद को कोर्ट आफ वार्ट कर दिया याने सरकार के सुपुर्द कर दिया । अब सरकार उस जायदाद की सम्हाल करे और 500) रुपये महावार सेठ के बालक को गुजारे के लिए देती रहे । उस बालक की सेवा के लिए एक नौकर रख दिया । जब वह बालक कुछ बड़ा हुआ तो सरकार के बड़े गुण गाये, वाह कितना अच्छी है सरकार जो मैं घर बैठे 500) मासिक देती है और किसी को तो नहीं देती । उस बालक को यह पता न था कि मेरी 10 लाख की जायदाद सरकार ने ले रखी है धीरे-धीरे जब वह बालक 17-18 साल का हुआ और यह जान लिया कि मेरी 10 लाख की जायदाद सरकार ने कोर्ट कर रखी है, उसके एवज में 500) रुपये महावार गुजारे के लिए दे रही है सो उसने झट सरकार को नोटिस दे दी कि अब मैं बालिग हो चुका हूँ मुझे नहीं चाहिए 500) मासिक मुझे मेरी दस लाख की संपत्ति दे दी जाय । लो मिल गई उसकी सारी संपत्ति तो ऐसे ही अनादि काल से यह जीव नाबालिग बना चला आ रहा है नाबालिक मायने अज्ञानी, सो इसका अनंत आनंद, अनंत ज्ञान जो वैभव है उसको इस कर्म सरकार ने कोर्ट कर रखा है । निमित्त नैमित्तिक भाव से कर्म के विपाककाल में आत्मा में ये प्रकट नहीं हो पाते बदले में थोड़ी पुण्य सामग्री दे देता है, जैसे कुछ वैभव मिला, दूकान संपदा मिली, ऐसा कुछ योग लगा देता है । तो यह बड़े गुण गाता इस पुण्य सरकार के कि मुझ को कितनी सुविधा दी, किंतु जब यह बालिग हो जाता, ज्ञानी हो जाता, तो सोचता है कि ओह मेरा अनंत, ज्ञान, अनंत आनंद तो इस कर्म सरकार ने कोर्ट कर रखा है और कदाचित थोड़ा-थोड़ा वैभव मिला तो मैं उसके गुण गाता हूँ, उस पुण्य सरकार ने हम पर बड़ी करुणा की है, ऐसा परिचय होते ही सम्यग्दृष्टि ज्ञानी आत्मा अब उस पुण्य वैभव को ठुकरा देता है और अपने भाव व्यक्त करता है, बल प्रकट करता है कि मुझे न चाहिए यह पर वैभव । मेरे को तो मेरा अनंत जो वैभव है ज्ञान दर्शन आनंद शक्ति, बस यही चाहिए, सो जब वैभव को ठुकरा दिया अपने ज्ञान द्वारा और अपने में अपने अनंत वैभव का ध्यान दिया, उसके स्रोतभूत ज्ञानानुभव का सहारा लिया तो इसके प्रताप से उन कर्मो की निर्जरा होती है, कर्मों का ध्वंस होता है और इसको अपना अनंत वैभव प्राप्त हो जाता है ।
ऋद्धि में संतुष्ट न होकर आत्मस्वरूप की दृष्टि में संतुष्ट होने का कर्तव्य―देह में जो बल मिला है उस बल से संतुष्ट न होइये, ऐसे ही जो ऋद्धि वैभव मिला है उस वैभव से संतुष्ट न होइये । एक बात और जानो । लोग कहते हैं कि पुण्य के उदय से वैभव मिला तो उदय का अर्थ क्या कहलाता? सूर्य का उदय हुआ इसका अर्थ क्या कहलाया कि सूर्य निकला । निकलने का नाम उदय है । पुण्य के उदय से वैभव मिला इसके मायने है कि पुण्य के निकलने से वैभव मिला । उदय में होता ही यह है कि जो कर्म सत्ता में थे वे अब अलग होने लगे । तो जितना भी सुख मिलता वह पुण्य के निकलने से मिलता है अब पुण्य के निकलने का तांता लगा है, अब यह पुण्य कर्म निकला, अब दूसरा पुण्य कर्म निकला, यों पुण्य के निकलने का तांता लगा रहता है 10-20 वर्ष तक धन वैभव भी बना रहता है । अब मान लो पुण्य तो निकलता रहे और नया पुण्य न आने दें तो क्या गति होगी? सो यह जानता कि ये सब पुण्य पाप के उदय के फल हैं इनमें मेरा कुछ नहीं है । मैं इनसे उपेक्षा करके अपने आप में अपना जो अनंत वैभव है बस उस पर दृष्टि दूं । और वैभव पर भी दृष्टि देने से वैभव नहीं मिलता, किंतु अपने को अकिंचन ज्ञानमात्र अनुभव करने से वह समस्त विकास बन जाता है । इसलिए एक ही छोटा सा उपाय है कि जब चाहे आप अपनी ओर दृष्टि करें और अपने की ज्ञानमात्र अनुभव करें । प्रतिभास, ज्ञान, जानन जिसकी मूर्ति नहीं । अमूर्त ऐसा प्रतिभास मात्र हूँ । इसका अन्य कुछ नहीं है । यह अन्य का कुछ करता नहीं है अन्य किसी को भोगता नहीं है । सर्व व्यापार व्यवसाय खुद के खुद में ही चलते हैं, ऐसा पर से निराला अपने को ज्ञानमात्र अनुभव करना ।
अंतस्तत्त्व के रुचिया के चित्त में मद का अनवकाश―जिस जीव ने अपने आत्मा के सत्तासिद्ध सहज स्वरूप का परिचय पाया उस परिचय के साथ होने वाले आत्मीय आनंद का अनुभव किया उसको आत्मतत्त्व के सिवाय जगत का अन्य कोई पदार्थ रुचता नहीं, ऐसा पुरुष धन वैभव को पाकर क्या घमंड करेगा? कर्मोदय वश वह न निर्ग्रंथ दिगंबर हो सकता, न निरंतर आत्मध्यान का प्रयोग कर सकता और रहना उसे पड़ा श्रावक अवस्था में और वहाँ धन वैभव कमाना रखना भी आवश्यक है तो वहाँ यह खेद मानता है कि जैसे कीचड़ में फंसा हुआ हाथी निकल नहीं पाता ऐसे ही यह मैं इस कीचड़ गृहस्थी में फंसा हुआ हूँ । उद्यम तो निकलने का है, पर स्थिति है ऐसी कि नहीं निकलता, उसका खेद मानता ही रहता है घमंड करने की तो गुंजाइश ही कहां है? ज्ञानी पुरुष अपने इस धन वैभव के समागम में लज्जा महसूस करता है । कहां तो मेरा ज्ञान अनंत, दर्शन अनंत, सौख्य अनंत, पराधीन न हो ऐसे स्वभाव वाला और कहां इस स्वाधीन अविनाशी आत्मीय लक्ष्मी को छोड़कर इस बाहरी पौद्गलिक विभूति को ग्रहण कर रहा हूँ । इसमें वह लज्जा मानता है । तो ऐसे अंतस्तत्त्व का रुचिया ज्ञानी संत श्रावक धन वैभव के बीच रहकर धन, वैभव-वैभव में मद कैसे करेगा? उसे तो यह कलंक दिखता है । ज्ञानी पुरुष को वैभव और ऐश्वर्य का मद नहीं होता । किसी चीज में घमंड करना यह सम्यग्दर्शन का दोष है । यह दोष बढ़-बढ़कर सम्यक्त्व का भी घात कर डालता है ।
ज्ञानी जीव के तपोमद का अभाव―कभी यह जीव तपश्चरण करने लगा । मुनि हुआ तो उसे तप का मद नहीं होता । कैसी उस ज्ञानी की अंत: धुन है केवल सहज चैतन्य को प्रकट करने की उसकी दृष्टि ऐसी बनी रहती कि उस पर्याय में तपश्चरण करता हुआ साधु तप में मद नहीं करता । तीन तत्त्व होते है (1) पाप (2) पुण्य और (3) धर्म पाप तो खोटा परिणाम है, अशुभ गति में ले जाने वाला है । अत्यंत हेय है, पर पुण्यभाव हेय है, उसे अत्यंत हेय नहीं कहा गया । प्रवचनसार में श्री अमृतचंद्र सूरि ने इन तीन के संबंध में यों विशेषण दिया अत्यंत हेय अशुभभाव, हेय शुभ भाव और अत्यंत उपादेय शुद्ध भाव तो बीच का जो पुण्य भाव है शुभ भाव है, और आप सिद्ध होता है कि किसी अवस्था में पूज्य है, किसी अवस्था में हेय है पर उसे अत्यंत हेय शब्द से नहीं कहा गया । उससे हमें क्या शिक्षा मिलती है कि भाई पुण्यभाव के द्वारा पाप को विलीन करना, दूर करना और पुण्यभाव से सुरक्षित रहकर फिर अपने उस शुद्ध भाव को प्रकट करते हुए पुण्य से भी अतिक्रांत होकर अपने स्वरूप में रमना, इसे यों कहो कि जैसे कोई योद्धा युद्ध में लड़ने जाता है तो अपने साथ दो चीजें रखता है ढाल और तलवार ढाल तो शत्रु का वार रोकने का काम करता है, और तलवार शत्रु का संहार करने का काम करता है ढाल और तलवार दोनों के बिना योद्धा युद्ध में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता । उसी प्रकार से पुण्य भाव रूपी ढाल से पाप के आक्रमण का वार रोककर सुरक्षित होकर फिर शुद्ध भावरूपी शस्त्र से कर्म शत्रु का छेदन करना, इस तरह की प्रक्रिया में जो चलता है वह सफल हो जाता है तो तपश्चरण व्रत संयम आदिक जो कुछ भी क्रियायें की जाती हैं, मन, वचन, काय तो अभी है ही, वे किसी न किसी ढंग में लगेंगे, तो किस ढंग में लगना वह सब संयम में बताया है, उस संयम के द्वारा अपने आपको सुरक्षित करते है ज्ञानीजन और उस सुरक्षित दशा में भीतर शुद्ध दृष्टि करके विकार को मूल से खत्म कर देते हैं ।
ज्ञानी के तपश्चरण का प्रयोजन―ज्ञानीजन क्यों तपश्चरण करते हैं इसे बताया है समाधि तंत्र में कि आराम-आराम में पाया हुआ ज्ञान कोई दु:ख की परिस्थिति होने पर नष्ट हो जाता है । इस कारण मुनिजनों को अपनी शक्तिमाफिक दुःख से अपने को जोड़ना चाहिए । दुःख मायने तपश्चरण आदिक, अनशन आदिकार्य उससे एक तो आत्मा में विशुद्धि जगती, दूसरे-कदाचित उदयवश एक दो दिन भोजन न मिल सका तो ऐसी अवस्था में वह धीरता रखना सीख गया, क्योंकि उपवास करने की उसने आदत बना लिया । तो वहाँ बताया गया कि तपश्चरण आदिक से अवश्य ही अपने को युक्त करना चाहिए और भी बात देखिये आज मन श्रेष्ठ मिला है, देह में बल भी है तो इस बल को इस देह को हम व्रत तप संयम में न लगाकर विषयों में, गप्पों में, कलहों में ऐसे ही अपने माने हुए आराम में ही लगायें तो उसे विवेक नहीं कहा जा सकता । वह तो पाप की ओर ही क्या है इस कारण इस देह को तपश्चरण से युक्त करना चाहिए, तो ज्ञान को शुद्ध बनाना चाहिए । तो तप करते हुए उनके मद नहीं होता कि मैंने ऐसा तप किया । किसी दूसरे का एहसान लादने के लिए व्रत तप है क्या? थोड़ा सा भी व्रत तप करने वालों को आजकल प्राय: करके जरा-जरासी बात में गुस्सा आता है उसका कारण क्या है कि वे कुछ व्रत तप करके ऐसा समझते हैं कि मैं इन लोगों पर एहसान लाद रहा हूँ । अरे एहसान क्या किया? संसार के दु:खों को देखो अपने दु:खों को दूर करने के लिए धर्म दृष्टि का प्रयास किया जा रहा है । ज्ञानी को तपश्चरण पर मद नहीं होता, अन्य तपस्वियों को देखकर अंतरंग में प्रमोदभाव होता है क्योंकि उनके चित्त में है कि विषयों से हटकर तपश्चरण में लगते हुए अपने को सुरक्षित करके भीतर में ज्ञान साधना की जा रही है उसको देखकर वह पुरुष अपने में प्रमुदित होता है । ज्ञानी पुरुष को तपश्चरण का कभी घमंड नहीं होता ।
ज्ञानी के रूपमद का अभाव―एक मद है रूप का मद, सुंदरता का मद, इतनी विचारता है कि मेरा स्वरूप मेरा स्वरूप तो चैतन्यमात्र है । उसमें यह शारीरिक सुंदरता और रूप का वहाँ कोई संबंध नहीं है । मैं चैतन्यमात्र हूँ और कर्मकलंक के कारण यह शरीर का संबंध जुड़ा है सो यह तो उसके साथ कलंक लगा है । अब यह शरीर किन्हीं मोही जनों के लिए सुंदर रूप वाला जचें तो उनकी भावना है, उनकी ऐसी कल्पना है । किंतु यह शरीर तो अपवित्र है सुंदरता का क्या अर्थ? एक बात और जानो । कोई पुरुष या महिला शरीर में कितना ही सुंदर हो, गौरवर्ण का हो, छवि हो कुछ भी हो लेकिन वह कषाय में रहा करे, घमंड बगराये जब चाहे इतरायें, दूसरों को धोखा दे लालच बढ़ा हो तो उसमें सुंदरता न झलकेगी और कोई पुरुष चाहे रूपवान नहीं है मगर गंभीर है, धीर है, एक मजबूत लक्ष्य की पकड़ वाला है, धर्मदृष्टि का है, लोगों के उपकार में रहता है तो उसके चेहरे पर सुंदरता झलकेगी, मनोज्ञ होगा, सबको प्रिय होगा । तो शरीर की सुंदरता का भी आधार रहा आत्मा का भाव । जब वीतराग हो जाता है तो यह शरीर स्फटिक मणि के समान सुंदर हो जाता है । भला बताओ कौन करने आया इस शरीर को निर्मल? उस वीतराग के भावों ने शरीर को निर्मल बनाया । 12वें गुणस्थान में शरीर में रहने वाले निगोदिया जीव मरते हैं 12वें गुणस्थान के अंत में शरीर निगोदिया रहित हो जाता है । 13वें गुणस्थान में प्रवेश है वहाँ स्फटिकमणि की तरह शरीर हो जाता है? कहते हैं कि अरहंत भगवान के शरीर की छाया नहीं पड़ती । आप तो स्फटिकमणि की मूर्ति हो उसे भी रखकर देख लो, उसकी छाया न पड़ेगी अच्छा उसे जाने दो, कोई कांच की मूर्ति रख लीजिए, उसकी भी छाया न पड़ेगी । तो स्फटिक मणि की तरह शुद्ध होना, शरीर की छाया आदिक का न होना, ये बाहरी अतिशय भी अंतरंग अतिशय पर आधारित होते हैं । शरीर का मद, रूप का मद, ज्ञानी के नहीं होता, यह कहा जा रहा है ।
शरीररूप की विनश्वरता व अविचारितरम्यता―क्या है रूप? क्षण-क्षण में यह रूप विनश्वर है, सनत्कुमार चक्री की ही तो कथा है, उनका कामदेव जैसा रूप था, जिनकी सुंदरता की चर्चा स्वर्गों में भी चल उठी । जैसे यहाँ सभायें लगती हैं । कोई वक्ता बैठता है, श्रोता सुनते हैं स्वर्गों में भी यही सभायें रहती हैं । यहाँ तो लोगों को समय कम मिलता है दुकान है काम धंधा है, वहाँ तो सब देव खाली रहते हैं उन्हें रोजगार करना नहीं पड़ता, खाने-पीने का आरंभ नहीं करना पड़ता । हजारों वर्षों में भूख लगती तो वहीं कंठ से अमृत झर जाता तो उन देवों की सभा लगी हुई थी, वहाँ चर्चा आयी सनत्कुमार चक्री के रूप की तो उसे सुनकर एक देव के मन आया कि चलकर देखना चाहिए कि कैसा रूपवान है वह चक्री । तो तब वह देव पहुंचा देखने के लिए तो उस समय सनत्कुमार खाली लंगोट पहने हुए व्यायाम कसरत करके अखाड़े की धूल से लथपथ शरीर होकर स्नान करने के लिए कुंवे पर बैठे थे । उस समय उनकी छवि निराली थी । उस छवि को देखकर देव ने कहा सचमुच सनत्कुमार चक्री का रूप वैसा ही सुंदर है जैसा कि स्वर्गों में सुना था । तो वहाँ उपस्थित कुछ लोग बोले अरे इस समय इनमें सुंदरता कहां? जब नहा-धोकर राजसी वस्त्र पहिनकर सिंहासन पर बैठे होंगे उस समय इनका रूप देखना । आखिर देव को कौतूहल हुआ और जब सनत्कुमार चक्री राजसी वस्त्र धारणकर सिंहासन पर बैठे हुए थे उस समय फिर वह देव उन्हें देखने गया तो वहाँ देख कर माथा धुनने लगा और कहने लगा―अरे अब तो वह सुंदरता नहीं रही जो पहले देखा था । तो लोग बोले―अरे यह क्या कह रहे? कैसे नहीं है वह सुंदरता? तो देव ने उनसे कहा पहले एक घड़ा पानी मंगावो और एक पतली सींक लावो तब हम इस बात को समझायेंगे । आखिर आ गया एक घड़ा पानी और स्व पतली सींक । देव ने घड़े में सींक डाला और उससे एक दो बूंद पानी निकालकर बाहर डाल दिया और उनसे पूछा बताओ इस घड़े में से एक दो बूंद पानी निकल जाने पर घड़े का पानी कुछ कम हुआ कि नहीं? तो सभी बोले―हाँ कम हुआ । तो फिर देव बोला-बस ऐसे ही रूप सौंदर्य की बात हैं । यह शरीर क्षण प्रतिक्षण क्षीण होता जा रहा है, इसका रूप सौंदर्य क्षण प्रतिक्षण कम होता जा रहा है । इस शरीर के रूप सौंदर्य पर क्या घमंड करना । तो इस रूप सौंदर्य का घमंड अज्ञानीजन ही किया करते हैं क्योंकि उन्होंने समझा कि यह शरीर मैं हूँ और मैं बड़ा सुंदर हूँ । अरे इस हड्डी, चाम, मज्जा वाले शरीर को मैं मान रहा यह अज्ञानी जीव । उसे यह पता ही नहीं कि मेरे आत्मा का स्वरूप कैसा है । मेरा स्वरूप तो अतुल, अचिंत्य, ज्ञानानंद वैभव वाला है, सबसे निराला ज्ञानमात्र है, जिसकी दृष्टि बनने पर संकट सब दूर हो जाते हैं ।
आत्मस्वरूप का महत्त्व न आंकने वाले पुरुषों की दुर्दशा―अहो, कहां तो यह मैं दर्शन ज्ञानस्वरूप वाला, सहज आनंदस्वरूप वाला और कहां यह चक्कर लग उठा शरीर का, ऐसे―ज्ञानी को कहीं रूप पर मद हो सकता है क्या? अरे एक दिन भी आहार पानी न मिले तो देह मुरझा जाता है । इसकी सुंदरता का क्या मद करना? आज यदि रूप पाया, मद किया तो उसका फल क्या होगा? अगले भव में विरूप, कुरूप, कुबड़ा, दरिद्र, लूला, लंगड़ा आदिक अनेक दशावों को प्राप्त होगा । देखो अनेक जीव कितना दुःखी नजर आ रहे हैं । ये बैल, गधा, घोड़ा, झोंटा आदिक को देखो चाबुक पर चाबुक चल रहे । कंधे सूज रहे जुत रहे लद रहे, फिर भी पिट रहें । कैसी दयनीय दशा इनकी है । इनको देखकर एक तो यह बात चित्त में लाना कि ये जीव भी हैं सहज परमात्मस्वरूप । पर कर्माक्रांत होने से ये कैसी दयनीय दशा को प्राप्त हुए हैं, कुछ उन पर करुणा आनी चाहिए । अपने आपके स्वरूप के समान उनका स्वरूप निरखें । दूसरी बात यह ध्यान में रखें कि मैं भी उन जैसा अनंते भवों मे बना और अब भी न चेते तो फिर ये ही सब दशायें होंगी । अज्ञानी जीव आज तो अपने इस रूप सौंदर्य को देखकर घमंड कर रहा पर यहाँ से मरकर हो गया मान लो सूकर तो फिर क्या हाल होगा? देखा होगा कि लैट्रिन के नीचे सूकर प्रवेश करता और ऊपर में कोई शौच करता तो सारा शरीर उस सूकर का मैले से भिड़ जाता है, ऐसी उसकी दशा देख कर भी क्या अपने आपके विषय में कुछ विचार नहीं चलता । ऐसी-ऐसी दुर्दशायें तो हम आपकी भी हुई अगर न चेते तो फिर वही दशायें होंगी ।
स्वसंचेतन का कर्तव्य―चेतने का अर्थ क्या है कि अपने स्वरूपास्तित्त्व को निरखिये कि यह मैं हूँ ऐसे स्वरूप वाला जिसमें कोई संकट का नाम नहीं । यदि मेरे में संकट का स्वभाव होता तो फिर संकट कभी न मिट सकता था । मेरे में यदि विकार स्वभाव होता तो विकार भी कभी न मिट सकते है, मगर ऐसा नही है । मेरा स्वरूप निर्विकार है, कष्टरहित है । अपने आपके सत्त्व से जो बात होती हो उसको निरखना है । और विकार हो रहे हैं उनको मना तो नहीं किया जा सकता । हो तो रहे है । संकटों में पड़े ही हैं, ये विकार पुद्गल कर्म के उदय का निमित्त पाकर हुए हैं । ये होने का मेरा स्वरूप नहीं है । तो निमित्त के निर्णय से स्वभावदृष्टि का बल मिला, ये मेरी चीज नहीं है, पौद्गलिक है, नैमित्तिक है, परभाव हैं, इनसे मुझ को लगाव न रखना चाहिए । जो मेरा निज सहजस्वरूप है उसका लगाव होना चाहिए । ऐसा अंतस्तत्त्व का रुचिया ज्ञानीसंत कैसे रूप का मद कर सकेगा? तो अष्ट मदरहित भाव सम्यग्दर्शन में होता है । अब कह रहे हैं कि कोई पुरुष व्यर्थ ही अपने को सम्यग्दृष्टि मानकर जैसी कि आदत है संसारी जीवों को कि अपने को किसी से कम न मान सके और अपने को बुद्धि का भंडार समझता है, वह पुरुष अज्ञानी होने के कारण यदि किसी धर्मात्मा का अपमान, अपवाद करता है तो वह आत्मप्रेमी नहीं है, वह शुद्धभाव वाला नहीं है । ज्ञानी नहीं, सम्यग्दृष्टि नहीं । यह ही बात इस श्लोक में कह रहे है ।