रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 31: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p | <div class="PravachanText"><p><strong>दर्शनं ज्ञानचारित्रात् साधिमानमुपाश्नुते ।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>दर्शनं कर्णधारं तन्, मोक्षमार्गे प्रचक्ष्यते ।।31।।</strong></p> | ||
<p | <p> <strong>सम्यग्दर्शन की मोक्षमार्ग में कर्णधाररूपता</strong>―सम्यग्दर्शन की सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से भी विशेषतया आदरणीय रूप से यों उपासना की गई है कि ज्ञान चरित्र के सम्यक् होने का मूल सम्यग्दर्शन है, इसी कारण सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग में खेवटिया के समान है । आत्मविकास में सम्यग्दर्शन और संपकत्चारित्र ये दो मूल साधन हैं । सम्यग्ज्ञान तो साथ लगा हुआ है । सम्यक्त्व साथ हुआ, सम्यग्ज्ञान कहलाया । चारित्र विशेष बढ़ा, ज्ञान का विकास बढ़ा पर विकास का मूल है सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र । यह ही कारण है कि गुणस्थान में इन दो की अवस्थायें ही बतायी गई हैं―सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र । यों समझिये कि जैसे नौका चलाने के लिए दो की आवश्यकता होती है, एक तो पीछे से कर्णधार चप्पू चलाता रहे और दूसरा―आगे से नाव खेने वाला नाव को खेता रहे । इन दो के बिना नाव इष्ट स्थान पर नहीं पहुंच सकती । अब यहाँ यह विचारो कि नाव खेने वाले का काम क्या है और चप्पू वाले का काम क्या है? खेने वाले का तो काम है नाव को आगे बढ़ाना और चप्पू वाले कर्णधार का काम है दिशा देना । कर्णधार जैसा हुक्म देगा उस ओर को नाव चल पड़ेगी, ऐसे ही श्रद्धा जैसा हुक्म देगी आत्मा की गति उस ओर बढ़ जायगी । सम्यग्दर्शन को कर्णधार कहा है । सम्यग्दर्शन होते ही आत्मा में धैर्य हो जाता है । उसके चित्त में उल्झन नहीं रहती । उसका एक ही निर्णय है कि सहज आत्मस्वभाव को निरखना और इस ही में तृप्त रहना, यह ही एक कार्य है । उसके आकुलता नहीं जगती । भले ही चारित्रमोहकृत आकुलता है, पर मूल में आकुलता नहीं रहती । तब ही तो बताया कि नारकी सम्यग्दृष्टि जीव नारक कृत दुःख भोगता है फिर भी भीतर अनाकुल रहता है । देव सम्यग्दृष्टि जीव अनेक देवागनाओं में रमता है फिर भी उनमें अनासक्त रहता है भरतचक्रवर्ती को घर में वैरागी बताया । पर घर में रहते तो विरक्त कैसे? विरक्त तो गृहत्याग पर ही कहलाता वास्तविक मायने में, किंतु घर में रहते हुए भी लौकिक सर्व बातों से उदास थे । उनको अपने अंदर में सहज स्वभाव का प्रकाश जग गया था । मै यह हूँ और मैं ज्ञान की वृत्ति के सिवाय और कुछ कर सकता नहीं हूँ । यह मैं ज्ञान की वृत्ति को ही भोगता रहता हूँ । इसके अतिरिक्त न मैं अन्य कुछ करता हूँ न भोगता हूँ ।</p> | ||
<p | <p> <strong>अपनी वास्तविक शांति के लिये पौरुष करने में विवेकिता</strong>―देखिये―सभी मनुष्य अपनी शांति के लिए प्रयास करते हैं । सबका ध्येय एक है । मेरे को शांति मिले, दुःख न रहे । यही बात तो जैन शासन बता रहा है कि आपको सदा के लिए शांति मिली और कभी भी कष्ट न आये, उसका उपाय आपके आत्मा में खुद ही बसा हुआ है । वहाँ कुछ पराधीनता भी नहीं है, अपने स्वरूप को जानिये और अपने स्वरूप में ही रमिये―क्या संबंध है आपका घर के परिजनों के साथ, सही बात सोचिये―आपके पुत्र-पुत्री स्त्री भाई बंधु आदिक जो भी हैं उन जीवों के साथ आप कहां चिपके हुए है, कहां लगे हुए हैं कहां संबंध बना हुआ है, निरखिये ध्यान से, कुछ भी नहीं है । आप तो गुजारा करने के लिए घर में रह रहे हैं, इससे अधिक और कुछ प्रयोजन नहीं है आपका । गुजारा कर चुके, आगे चल दिया, कुछ भी मतलब सिद्ध होता हो मिले हुए समागम से तो आप बताओ । कुछ बात नहीं है लेकिन परिजनों के पीछे ही अपना सारा उपयोग तन, मन, धन, प्राण, वचन आदि जो कुछ आपके पास है उनको ही समर्पित करते हैं और अपने को दैन्य अनुभव करते हैं । अपने आपमें क्या मंजूर है, कैसा निर्दोष है, कैसा ज्ञानानंदस्वरूप है उसको नहीं निरखते और बाह्य दृष्टि करके बड़ा मौज मान रहे । ठीक है, भला पति है, भली पत्नी है, सब ठीक है, किंतु परिणमन तो सबका अपने आपका अपने में है और जो भी भला हो रहा वह अपनी शांति सुख के लिए हो रहा । आपको कुछ भी देने में समर्थ दूसरा है ही नहीं, उस ओर तो दृष्टि नहीं । तो कुछ अपने आपको शांति चाहिए तो विवेक करना पड़ेगा अगर विवेक नहीं रखते तो संसार में परिभ्रमण कर दुःख ही भोगते रहना पड़ेगा । आपका विवेक आपके हाथ है । अपने को निरखो सबसे निराला ज्ञानमात्र । इस अंतस्तत्त्व में ही मग्न होने की भावना रखिये ।</p> | ||
<p | <p> <strong>प्रवृत्ति के बीच रहकर भी निवृत्ति का आशय रखने वाले ज्ञानी के परिचय के लिये एक पौराणिक उदाहरण</strong>―भरत चक्रवर्ती के निवृत्ति का ही भाव था राज्य करते हुए भी इसलिए उनको घर में वैरागी कहा जाता है। राजावों से बात कर रहे हैं, चित्त अपने आपके स्वरूप ओर लगा है। ज्ञानियों के बीच बैठे विनोद कर रहे हैं उपयोग अपने आत्मस्वभाव की ओर खिंचा हुआ है। अरे ऐसा भी हो सकता है क्या? हां हो सकता है चारित्र मोह का मंद उदय होने पर ज्ञानी की ऐसी ही वृत्ति होती है। एक बार किसी पुरुष ने भरत चक्रवर्ती से प्रश्न किया कि महाराज आप घर में तो रह रहे, राजपाट सम्हाल रहे, फिर भी लोग आपको वैरागी क्यों कहते? तो वहाँ भरत चक्रवर्ती ने उसे तुरंत कोई उत्तर न दिया, कहा कि फिर बतायेंगे। अब भरतचक्रवर्ती ने क्या किया कि अपने यहाँ के कुछ सिपाहियों से समझा दिया कि देखो इस पुरुष को हम कुछ आदेश देंगे, तुम्हें भी इसका सिर उड़ाने का हुक्म देंगे, सो सिर तो न उड़ा देना, पर इस पुरुष को यह न मालूम होने पावे कि चक्री ने यों ही झूठमूठ सिर उड़ाने की बात कहा है। यों सारी बात समझा दिया सिपाहियों को। फिर उस पुरुष को हुक्म दिया कि देखो तुमको तेल से भरा एक कटोरा दिया जायेगा, उस कटोरे को लेकर हमारे राज्य का सारा वैभव तुम्हें देखकर आना है, बाद में पूछेंगे कि कहां क्या देखा, और शर्त यह है कि इस तेल के कटोरे से एक भी बूंद तेल कम न होने पावे, यदि तेल कम हुआ तो तुम्हारे साथ चलने वाले इन सिपाहियों को हमारा आदेश है कि वे तुम्हारा सिर उड़ा देंगे। अब वह पुरुष विकट समस्या में आ गया कि चक्री का सारा वैभव देखना भी जरूरी है, नहीं तो पूछेगा तो क्या बतायेंगे और तेल पर निगाह रखना भी जरूरी है नही तो कम हों जाने पर गर्दन कटेगी । खैर चला वह पुरुष चक्री का वैभव देखने घुड़साल, रानियों का अंतःपुर, रत्नों का भंडार आदि सब देखा, पर निगाह बराबर तेल पर रही । सब वैभव देखकर वापिस आया । वापिस आने पर चक्री ने पूछा कि बताओ तुमने मेरा क्या-क्या वैभव देखा? तो वह पुरूष बोला―महाराज देखने को तो मैंने आपका सारा वैभव देखा पर मैं उस विषय में बता कुछ नहीं सकता, क्योंकि निगाह मेरी कटोरे के तेल पर थी । तो वहाँ किसी मंत्री वगैरह ने उस पुरुष से कहा कि बस यही उत्तर तो चक्री का है तुम्हारे उस प्रश्न का कि घर के बीच वैरागी कैसे? महाराज घर के बीच रहकर राज्य की सब व्यवस्था करते हुए भी अपने ज्ञानस्वभाव की सुध से च्युत नहीं होते हैं । मंत्री की इस प्रकार की बात सुनकर समझ लिया उस पुरुष ने कि सचमुच भरत जी घर के बीच भी वैरागी है । अभी आप यहाँ भी देख लीजिए जब किसी का कोई इष्ट घर में गुजर जाता है तो वह यद्यपि घर गृहस्थी के बीच रहकर सब काम करता है फिर भी ख्याल उसको अपने इष्ट का बना रहता है । तो सम्यक्त्व जग जानें पर सम्यग्दृष्टि पुरुष की यही स्थिति रहती है । तात्पर्य यह है कि रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन एक सोपान है इसलिए वह बहुत ही उत्कृष्ट तत्त्व है ।</p> | ||
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
दर्शनं ज्ञानचारित्रात् साधिमानमुपाश्नुते ।
दर्शनं कर्णधारं तन्, मोक्षमार्गे प्रचक्ष्यते ।।31।।
सम्यग्दर्शन की मोक्षमार्ग में कर्णधाररूपता―सम्यग्दर्शन की सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से भी विशेषतया आदरणीय रूप से यों उपासना की गई है कि ज्ञान चरित्र के सम्यक् होने का मूल सम्यग्दर्शन है, इसी कारण सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग में खेवटिया के समान है । आत्मविकास में सम्यग्दर्शन और संपकत्चारित्र ये दो मूल साधन हैं । सम्यग्ज्ञान तो साथ लगा हुआ है । सम्यक्त्व साथ हुआ, सम्यग्ज्ञान कहलाया । चारित्र विशेष बढ़ा, ज्ञान का विकास बढ़ा पर विकास का मूल है सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र । यह ही कारण है कि गुणस्थान में इन दो की अवस्थायें ही बतायी गई हैं―सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र । यों समझिये कि जैसे नौका चलाने के लिए दो की आवश्यकता होती है, एक तो पीछे से कर्णधार चप्पू चलाता रहे और दूसरा―आगे से नाव खेने वाला नाव को खेता रहे । इन दो के बिना नाव इष्ट स्थान पर नहीं पहुंच सकती । अब यहाँ यह विचारो कि नाव खेने वाले का काम क्या है और चप्पू वाले का काम क्या है? खेने वाले का तो काम है नाव को आगे बढ़ाना और चप्पू वाले कर्णधार का काम है दिशा देना । कर्णधार जैसा हुक्म देगा उस ओर को नाव चल पड़ेगी, ऐसे ही श्रद्धा जैसा हुक्म देगी आत्मा की गति उस ओर बढ़ जायगी । सम्यग्दर्शन को कर्णधार कहा है । सम्यग्दर्शन होते ही आत्मा में धैर्य हो जाता है । उसके चित्त में उल्झन नहीं रहती । उसका एक ही निर्णय है कि सहज आत्मस्वभाव को निरखना और इस ही में तृप्त रहना, यह ही एक कार्य है । उसके आकुलता नहीं जगती । भले ही चारित्रमोहकृत आकुलता है, पर मूल में आकुलता नहीं रहती । तब ही तो बताया कि नारकी सम्यग्दृष्टि जीव नारक कृत दुःख भोगता है फिर भी भीतर अनाकुल रहता है । देव सम्यग्दृष्टि जीव अनेक देवागनाओं में रमता है फिर भी उनमें अनासक्त रहता है भरतचक्रवर्ती को घर में वैरागी बताया । पर घर में रहते तो विरक्त कैसे? विरक्त तो गृहत्याग पर ही कहलाता वास्तविक मायने में, किंतु घर में रहते हुए भी लौकिक सर्व बातों से उदास थे । उनको अपने अंदर में सहज स्वभाव का प्रकाश जग गया था । मै यह हूँ और मैं ज्ञान की वृत्ति के सिवाय और कुछ कर सकता नहीं हूँ । यह मैं ज्ञान की वृत्ति को ही भोगता रहता हूँ । इसके अतिरिक्त न मैं अन्य कुछ करता हूँ न भोगता हूँ ।
अपनी वास्तविक शांति के लिये पौरुष करने में विवेकिता―देखिये―सभी मनुष्य अपनी शांति के लिए प्रयास करते हैं । सबका ध्येय एक है । मेरे को शांति मिले, दुःख न रहे । यही बात तो जैन शासन बता रहा है कि आपको सदा के लिए शांति मिली और कभी भी कष्ट न आये, उसका उपाय आपके आत्मा में खुद ही बसा हुआ है । वहाँ कुछ पराधीनता भी नहीं है, अपने स्वरूप को जानिये और अपने स्वरूप में ही रमिये―क्या संबंध है आपका घर के परिजनों के साथ, सही बात सोचिये―आपके पुत्र-पुत्री स्त्री भाई बंधु आदिक जो भी हैं उन जीवों के साथ आप कहां चिपके हुए है, कहां लगे हुए हैं कहां संबंध बना हुआ है, निरखिये ध्यान से, कुछ भी नहीं है । आप तो गुजारा करने के लिए घर में रह रहे हैं, इससे अधिक और कुछ प्रयोजन नहीं है आपका । गुजारा कर चुके, आगे चल दिया, कुछ भी मतलब सिद्ध होता हो मिले हुए समागम से तो आप बताओ । कुछ बात नहीं है लेकिन परिजनों के पीछे ही अपना सारा उपयोग तन, मन, धन, प्राण, वचन आदि जो कुछ आपके पास है उनको ही समर्पित करते हैं और अपने को दैन्य अनुभव करते हैं । अपने आपमें क्या मंजूर है, कैसा निर्दोष है, कैसा ज्ञानानंदस्वरूप है उसको नहीं निरखते और बाह्य दृष्टि करके बड़ा मौज मान रहे । ठीक है, भला पति है, भली पत्नी है, सब ठीक है, किंतु परिणमन तो सबका अपने आपका अपने में है और जो भी भला हो रहा वह अपनी शांति सुख के लिए हो रहा । आपको कुछ भी देने में समर्थ दूसरा है ही नहीं, उस ओर तो दृष्टि नहीं । तो कुछ अपने आपको शांति चाहिए तो विवेक करना पड़ेगा अगर विवेक नहीं रखते तो संसार में परिभ्रमण कर दुःख ही भोगते रहना पड़ेगा । आपका विवेक आपके हाथ है । अपने को निरखो सबसे निराला ज्ञानमात्र । इस अंतस्तत्त्व में ही मग्न होने की भावना रखिये ।
प्रवृत्ति के बीच रहकर भी निवृत्ति का आशय रखने वाले ज्ञानी के परिचय के लिये एक पौराणिक उदाहरण―भरत चक्रवर्ती के निवृत्ति का ही भाव था राज्य करते हुए भी इसलिए उनको घर में वैरागी कहा जाता है। राजावों से बात कर रहे हैं, चित्त अपने आपके स्वरूप ओर लगा है। ज्ञानियों के बीच बैठे विनोद कर रहे हैं उपयोग अपने आत्मस्वभाव की ओर खिंचा हुआ है। अरे ऐसा भी हो सकता है क्या? हां हो सकता है चारित्र मोह का मंद उदय होने पर ज्ञानी की ऐसी ही वृत्ति होती है। एक बार किसी पुरुष ने भरत चक्रवर्ती से प्रश्न किया कि महाराज आप घर में तो रह रहे, राजपाट सम्हाल रहे, फिर भी लोग आपको वैरागी क्यों कहते? तो वहाँ भरत चक्रवर्ती ने उसे तुरंत कोई उत्तर न दिया, कहा कि फिर बतायेंगे। अब भरतचक्रवर्ती ने क्या किया कि अपने यहाँ के कुछ सिपाहियों से समझा दिया कि देखो इस पुरुष को हम कुछ आदेश देंगे, तुम्हें भी इसका सिर उड़ाने का हुक्म देंगे, सो सिर तो न उड़ा देना, पर इस पुरुष को यह न मालूम होने पावे कि चक्री ने यों ही झूठमूठ सिर उड़ाने की बात कहा है। यों सारी बात समझा दिया सिपाहियों को। फिर उस पुरुष को हुक्म दिया कि देखो तुमको तेल से भरा एक कटोरा दिया जायेगा, उस कटोरे को लेकर हमारे राज्य का सारा वैभव तुम्हें देखकर आना है, बाद में पूछेंगे कि कहां क्या देखा, और शर्त यह है कि इस तेल के कटोरे से एक भी बूंद तेल कम न होने पावे, यदि तेल कम हुआ तो तुम्हारे साथ चलने वाले इन सिपाहियों को हमारा आदेश है कि वे तुम्हारा सिर उड़ा देंगे। अब वह पुरुष विकट समस्या में आ गया कि चक्री का सारा वैभव देखना भी जरूरी है, नहीं तो पूछेगा तो क्या बतायेंगे और तेल पर निगाह रखना भी जरूरी है नही तो कम हों जाने पर गर्दन कटेगी । खैर चला वह पुरुष चक्री का वैभव देखने घुड़साल, रानियों का अंतःपुर, रत्नों का भंडार आदि सब देखा, पर निगाह बराबर तेल पर रही । सब वैभव देखकर वापिस आया । वापिस आने पर चक्री ने पूछा कि बताओ तुमने मेरा क्या-क्या वैभव देखा? तो वह पुरूष बोला―महाराज देखने को तो मैंने आपका सारा वैभव देखा पर मैं उस विषय में बता कुछ नहीं सकता, क्योंकि निगाह मेरी कटोरे के तेल पर थी । तो वहाँ किसी मंत्री वगैरह ने उस पुरुष से कहा कि बस यही उत्तर तो चक्री का है तुम्हारे उस प्रश्न का कि घर के बीच वैरागी कैसे? महाराज घर के बीच रहकर राज्य की सब व्यवस्था करते हुए भी अपने ज्ञानस्वभाव की सुध से च्युत नहीं होते हैं । मंत्री की इस प्रकार की बात सुनकर समझ लिया उस पुरुष ने कि सचमुच भरत जी घर के बीच भी वैरागी है । अभी आप यहाँ भी देख लीजिए जब किसी का कोई इष्ट घर में गुजर जाता है तो वह यद्यपि घर गृहस्थी के बीच रहकर सब काम करता है फिर भी ख्याल उसको अपने इष्ट का बना रहता है । तो सम्यक्त्व जग जानें पर सम्यग्दृष्टि पुरुष की यही स्थिति रहती है । तात्पर्य यह है कि रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन एक सोपान है इसलिए वह बहुत ही उत्कृष्ट तत्त्व है ।