वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 32
From जैनकोष
विद्यावृत्तस्य संभूति-स्थितिवृद्धिफलोदया:।
न संत्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव।।32।।
सम्यक्त्व के अभाव में ज्ञान और चरित्र की संभूतिस्थिति वृद्धि आदि की असंभवता― सम्यग्दर्शन क्यों इतना महत्वशाली है, आदरणीय है, उसकी सिद्धि में यह श्लोक कहा गया है । ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति, ज्ञान और चारित्र का ठहराव, ज्ञान और चारित्र की वृद्धि, ज्ञान और चारित्र के फल का उदय सम्यक्त्व के न होने पर नहीं हो सकता । जैसे कि बीज यदि नहीं है तो वृक्ष की उत्पत्ति, वृक्ष का ठहराव, वृक्ष की वृद्धि और वृक्ष में फलों का लगना नहीं बन सकता । बीज ही नहीं हैं तो वृक्ष में अंकुर कैसे उत्पन्न होंगे? ऐसे ही सम्यक्त्व ही नहीं है तो सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र कहां प्राप्त होंगे?
यथार्थज्ञान और सम्यग्ज्ञान का विश्लेषण―एक यहाँ जिज्ञासा हो सकती है कि सही ज्ञान न हो तो सम्यक्त्व कैसे बन जायगा? इसलिए सम्यक्त्व से पहले सम्यग्ज्ञान बताना चाहिए। समाधान में थोड़ा मनन करें। एक दृष्टांत लो―जैसे किसी ने मानो बाहुबली की मूर्ति को नहीं देखा श्रवणबेलगोल में जो बनी है पर उसके बारे में साहित्य से, दूसरों के कहने से या उसकी प्रतिमूर्ति रूप मंदिर में जो बाहुबली की मूर्ति है उसके देखने से मूर्ति का सारा ज्ञान तो कर लिया, उसका फोटो भी भली भांति देखा और उसके शरीर के अंगों की लंबाई, चौड़ाई आदि की भी पूरी जानकारी कर लिया, एक तो इस प्रकार का ज्ञान, और एक ऐसा ज्ञान कि वही व्यक्ति श्रवणबेलगोल पहुंचकर पहाड़ पर चढ़कर साक्षात् रूप में उस मूर्ति के दर्शन करे, तो बताओ इन दोनों प्रकार के ज्ञानों में कुछ फर्क है कि नहीं? है फर्क। क्या है वह फर्क कि एक तो था अनुभवरहित ज्ञान और एक हुआ अनुभव सहित ज्ञान। उस मूर्ति के देखने से पहिले उस मूर्ति के बारे में बहुत कुछ ज्ञान करने पर भी वह ज्ञान अनुभवसहित न था उस विषय का और मूर्ति के निरखने पर साक्षात् देखा समझा तो वह ज्ञान हुआ बहुत प्रतीति सहित। ऐसे ही जिस जीव को सम्यक्त्व होता है उसे विपरीत ज्ञान के कारण नहीं होता। होता है सही ज्ञान। जैसा पदार्थ है, द्रव्य गुण पर्यायों का स्वरूप है, जो-जो कुछ यथार्थता है उस यथार्थता वाला ज्ञान जिसके है उसको ही सम्यक्त्व होगा। विपरीत ज्ञान वाले को सम्यक्त्व न होगा। लेकिन सम्यक्त्व होने पर वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है। सम्यक्त्व होने से पहले वही सही ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता है। उसमें अंतर क्या आया कि सम्यक्त्व होने पर अनुभूति सहित ज्ञान बना और सम्यक्त्व से पहले अनुभूति रहित ज्ञान था। सो सम्यक्त्व उत्पन्न होने के लिए सही ज्ञान ही काम देगा। विपरीत ज्ञान काम न देगा। जैसा आत्मद्रव्य है, जैसा जैनशासन में बताया है, जैसा गुरुजनों ने उपदिष्ट किया है उस विधि से जानें। मैं चैतन्य पदार्थ हूं, मेरे में ज्ञानशक्ति, दर्शनशक्ति, चारित्रशक्ति, आनंदशक्ति आदिक अनंत शक्तियां हैं। हैं फिर भी यह मैं आत्मा कोई एक अखंड पदार्थ हूं और वह मैं निरंतर परिणमता रहता हूं। मेरा सर्वस्व मैं ही हूं। मेरी करतूत बस उस चेतना की परिणति भर है। जानने देखने से अतिरिक्त मेरी कुछ करतूत नहीं है कि मैं बाहरी किसी पदार्थ को कुछ कर सकूं। ज्ञान जैसे बनता है उस माफिक ही अपने में मैं अपने को भोगता रहता हूं। इससे अतिरिक्त बाहर में मेरा कुछ संबंध नहीं है।
वर्तमान परिस्थिति में आत्मनिरीक्षण का अनुरोध―अब ध्यान में दीजिये कि घर में रहने वाले जीवों पर आपकी किस तरह की दृष्टि रहती है। ये मेरे ही तो हैं और मेरा इन्हीं से ही तो बड़प्पन है। ये ही तो मेरे सब कुछ हैं, और किसके हो जायेंगे? ऐसे तीव्र लगाव के साथ यदि भीतरी आशय बना है तो इसे आप सब कुछ हैं, और किसके हो जायेंगे? ऐसे तीव्र लगाव के साथ भीतरी आशय बना है तो इसे आप अपने पर बड़ी विपत्ति समझिये, क्योंकि उस प्रकार का कर्माश्रव होता है। वहाँ बंध है, उदयकाल में वैसा फल मिलेगा। संसार में जन्म मरण चलता रहता है। मान लो परिस्थितिवश घर में रहना पड़ता है तो रहो पर श्रद्धा में यह बात रहे कि मैं तो चैतन्यमात्र हूं। मेरे में एक तो मुझ चेतना का परिणमन चलता रहता है और मैं चेतना को ही भोगता रहता हूं। इससे बाहर मेरा रंचमात्र भी किसी से भी संबंध नहीं, पर मैं अकेला ही रहूं, कोई परिग्रह न रखूं और आत्मसाधना ही करता रहूं, ऐसी स्थिति में मैं अभी नहीं हूँ अतएव घर में रहना आवश्यक हो गया । घर में रहना तब ही ठीक बन पायगा जबकि सबके साथ प्रीति का व्यवहार रहे । लो यों परिस्थितिवश करना आवश्यक हो गया, पर भीतर में यथार्थ ज्ञानप्रकाश हो तो वह गृहस्थ घर में रहता हुआ भी धर्म मार्ग में चल ही रहा है । मोक्ष मार्ग में चल ही रहा है । तो भाई अज्ञान, मोह को भयंकर विपत्ति मानो । किसी दूसरे जीव को अनिष्ट समझ कर और उसे देखकर ही भीतर दुःखी बने रहना यह कर्तव्य नहीं है किंतु अपने ही अज्ञान और मोह को अपने बिगाड़ वाला शत्रु समझना । अज्ञान दूर होगा, मोह दूर होगा तो भीतरी ज्ञान प्रकाश होने के कारण यह कृतार्थ हो जायगा । सम्यक्त्व की महिमा को कह रहे हैं कि सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का अम्युदय इस सम्यक्त्व के प्रताप से होता है । जैसे कि बीज के प्रताप से अंकुर बनता है ।
सम्यक्त्व के सद्भाव में सम्यक्चारित्र का विलास―सम्यक्चारित्र की भी बात देखिये―अणुव्रत महाव्रत रूप चारित्र यह तो सम्यक्त्व के बाद ही होता है, मगर सम्यक्त्व होते ही सम्यक्त्वाचरण तो हो ही जाता है जो कि स्वरूपाचरण का एक आंशिक प्रारंभ है । जब अपने आत्मा के सहज स्वरूप को जानो तो उसको जानते ही कितना ही क्षोभ मिटा, कषायें मिटी, उद्वेग मिटा, धैर्य मिला, तो यह क्या चारित्र की शकल नहीं है? है वह अणुव्रत से नीचे दर्जे का, मगर कुछ तो आत्मा में प्रभाव पड़ा ही है । तो ऐसा सम्यक्त्वाचरण रूप चारित्र यह है चारित्र का अंकुर । फिर वही बढ़ेगा तो अणुव्रत रूप, महाव्रत रूप, समाधिरूप यह बढ़ता चला जायगा । तो चारित्र की उत्पत्ति सम्यक्त्व के बिना नहीं हो सकती । इसी तरह स्थित बना रहे, ठहरा रहे, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इनका साधन वह सम्यग्दर्शन है, फिर यह बढ़ता रहे, आत्मस्वरूप की ओर दृष्टि दृढ़ रहे, यह भी सम्यक्त्व के होने पर ही तो संभव होता, सम्यक्त्व के अभाव में नहीं, और फिर सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का फल अनाकुलता, शांति, ये फल भी मिले तो सम्यक्त्व होने पर ही तो मिल सके । सम्यक्त्व के अभाव में सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र की न उद्भूति है न अनाकुलता का अनुभव बन सकता है इस कारण सम्यक्त्व बहुत प्रधान है ।
आत्ममनन के कर्तव्य से विमुख न होने का कर्तव्य―भैया, थोड़ा चित्त में बसाओ तो सही कि ये धन वैभव परिग्रह मेरे लिए बेकार हैं । इनके लगाव में, इनके संगम में, इनकी आशा में, तृष्णा में मेरे को मिलता कुछ नहीं है, बल्कि जो उसमें पाप कमाया उसका फल भोगने को मिल गया सो आगे फल भोगना पड़ेगा । और मेरे स्वरूप का भान हो जाये, मैं सहज अपने सत्त्व से किस रूप हूं? अमूर्त चैतन्यस्वरूप, आकाशवत् निर्लेप निमित्त नैमित्तिक बंध हो गया है और उसको भी हमारी गलती ही बढ़ा रही है, पर स्वरूप को देखिये―स्वरूप में विकार नहीं, स्वरूप में कष्ट नहीं । जैसा सिद्ध का स्वरूप वैसा मेरा स्वरूप । ज्ञानानंद की शक्ति वाला । ऐसे अपने स्वरूप में कितनी पवित्रता है, कितनी उत्कृष्टता है उस ज्ञानस्वरूप को निहारो और उस ही रूप अपना अनुभव बनाइये । मैं यह हूँ यह कोशिश करना है । करेंगे तो पार हो जायेंगे, न करेंगे तो संसार में रुलेंगे । मैं ज्ञानमात्र हूँ, अन्य रूप नहीं हूँ । जो इसका नाम धरा गया फलाने चंद, फलाने लाल, या जो-जो भी नाम रखे गये वे इस अमूर्त आत्मा के नाम नहीं हैं । वे पिंड के नाम धरे गए । बोलने वाले तो लोग ही हैं । ये लोग जिसको देखें, जिसको देखकर कहें नाम उसका । मैं अमुक लाल नहीं, अमुक चंद नहीं, अमुक कार्य वाला नहीं, व्यापारी नहीं, सर्विस वाला नहीं, अमुक का बाप नहीं, अमुक का पुत्र नहीं, अमुक का अमुक नहीं । यह सब पिंड के साथ व्यवहार है । मैं आत्मा तो इस देह देवालय में विराजमान चेतनामात्र परमात्म पदार्थ हूँ । ऐसे इस सहज परमात्मतत्त्व में अपनी स्वीकारता आ जाय बस समझिये कि नियम से वह मोक्ष जायगा । कभी भी जाय । अब वह संसार के समस्त संकटों से सदा के लिए मुक्त हो जायगा ।
सम्यक्त्व का महत्त्व―संसार संकटों से छुटकारा पाने में मूलत: माहात्म्य सम्यक्त्व का है । इसी संबंध में श्री गुणभद्राचार्य ने कहा है―शमबोधवृत्ततपसां पाषाणस्येव गौरवं पुंस: । पूज्य महामणेरिव तदेव सम्यक्त्वसंमुक्तम् । आत्मानुशासन ग्रंथ में कहा गया यह आर्याछंद है, अभी तक श्लोक में वर्णन था । संस्कृत में श्लोक का राग दूसरा होता है, आर्याछंद का राग दूसरा होता है । श्लोक में 32 अक्षर होते है, 8-8 अक्षरों का एक-एक चरण होता है और उसमें 5वां अक्षर हस्व और छठवां अक्षर दीर्घ, इतना ही उसमें नियंत्रण हैं, बाकी कैसी ही मात्रा कहीं हो 32 अक्षरों में राग बनना चाहिए । आर्याछंद में चार चरण होते हैं । प्रथम चरण में 12 मात्रायें दूसरे चरण में 18, तीसरे में 12 और चौथे में 15 मात्रायें होती हैं । इस छंद में यह बताया गया है कि यदि सम्यग्दर्शन नहीं है तो कितनी ही मंद कषाय हो, कैसा ही ज्ञान हो, कितना ही चारित्र पालन करें और कितना ही तपश्चरण करें तो वह पत्थर की तरह बोझ मात्र है और यदि सम्यक्त्व है और उसके साथ थोड़ा भी मंदकषाय, ज्ञान, चारित्र और तप हो तो भी वह महामणि की तरह महत्त्वशाली है । पत्थर अनेक होते हैं । मणि भी पत्थर है और छतों पर डाले जाने वाले या नीचे बिछाने वाले पत्थर भी पत्थर हैं, मणि की तो लाखों कीमत है और इन साधारण पत्थरों का अति अल्प मूल्य है । तो जैसे लोक में इन पत्थरों का अधिक महत्त्व नहीं माना जाता और मणि का महत्त्व अधिक है ऐसे ही सम्यक्त्व के साथ यदि चारित्र आदिक हैं तो उनका महत्त्व अधिक है । और सम्यक्त्व के बिना यदि तपश्चरण आदिक हैं तो उनका महत्त्व नहीं है । यद्यपि सम्यक्त्व रहित पुरुष के भी तपश्चरण मंद कषाय आदिक हों तो उनका भी कुछ फल होता है । सद्गति में जन्म हो जाता है, पर मोक्षमार्ग नहीं बनता, इस दृष्टि से यह कथन चल रहा है । सम्यग्दर्शन ही इस जीव का सर्वस्व है, परम कल्याण करने वाला है, ऐसे पवित्र अच्छे कुल में जन्म पाकर एक ही धुन बनाना चाहिए मूल में कि मेरे को मेरे में बसे हुए सहज परमात्मस्वरूप का दर्शन हो, अनुभव हो, इसके अतिरिक्त कुछ न चाहिए । यह बात हम मुनियों की नहीं कह रहे, उनकी तो और ऊंची वृत्ति है पर गृहस्थों की बात कह रहे कि एक ही धुन होनी चाहिए मौलिक कि मेरे को क्या चाहिए । मेरे आत्मा के सहजस्वरूप का अनुभव चाहिए ।
जीवन का मूल उद्देश्य सही होने पर जीवन की सफलता―यद्यपि गृहस्थी में रहकर अनेक कार्य करने पड़ते हैं, करना पड़ेगा । पर हर एक के मन में कोई मौलिक अभिलाषा रहती है । ऊपरी इच्छायें भी चलती है, पर एक उद्देश्य वाली इच्छा भी साथ रहती है । उद्देश्य वाली यह इच्छा रहती है कि मेरे इतना वैभव हो जाय कि इस दुनिया में मैं प्रथम नंबर में कहलाऊं, यह उसके भीतर में मौलिक इच्छा रहती है, पर केवल इतनी ही इच्छा रहती क्या? क्या खाने पीने पहिनने ओढ़ने आदि की इच्छा नहीं होती है? होती है अनेक इच्छायें चलती हैं, पर एक इच्छा उसकी मौलिक है यह कि मेरे इतनी संपदा बने, जो दुनिया में सिरमौर कहलाऊं । ऐसी ही बात कह रहे हैं कि वह मौलिक इच्छा हितकारी नहीं है। मान लो तीन लोक का वैभव भी जुड़ गया तो उससे आत्मा को क्या मिल जायगा? क्या मरण समय सब कुछ छूट न जायगा? उस वैभव से क्या लाभ पा लिया जायगा? तो मेरे को इतनी संपन्नता हो जाय कि मैं सर्वप्रथम कहलाऊं, यह इच्छा करना मूढ़ता भरी इच्छा है, किंतु आदत तो है ऐसी कि प्रत्येक मनुष्य कोई एक इच्छा तो मौलिक रखता है, बाकी इच्छायें अनेक होती है वे गौण होती है, कुछ काल के लिए होती हैं, कुछ परिस्थिति में होती हैं। ऐसी अनेक इच्छायें होना और एक मौलिक इच्छा होना ये दो बातें हर एक मनुष्य में पायी जाती हैं। तो गृहस्थ को मौलिक इच्छा क्या करना चाहिए, यह बात कह रहे हैं। मौलिक अभिलाषा यह होनी चाहिए कि मेरे को मेरे आत्मा के सहज स्वरूप का दर्शन हो, अनुभव हो, वही ध्यान में रहे, मेरे को यह स्थिति चाहिए, अन्य कुछ न चाहिए, गौण इच्छायें चलती रहेंगी, पर उन बातों पर जो हम लौकिक बातें चाहते हैं उन पर मेरा कुछ अधिकार नहीं है। पूर्व जन्म में कमाये हुए पुण्य के अनुसार यह संयोग मिला। आज कितनी ही कल्पनायें बनायें, कितना ही हम उस संपन्न के लिए कोशिश करें, भाव बनायें, पर सफल नहीं होते। यद्यपि यहाँ भी कोशिश तो सभी करते हैं मगर कोशिश बनती हैं, सफल होते हैं, पुण्य के अनुसार। तो इन बाहरी बातों में हम मौलिक इच्छा न बनायें किंतु मूल अभिलाषा यह रखें कि मेरे में वह ज्ञानप्रकाश प्रकट हो जिससे कि सदा के लिए संकटों से छूट जाऊं।
ज्ञानामृत के पान से अमरत्व की प्राप्ति―लोग ऐसा कहते हैं । कुछ-कुछ पुस्तकों में लिखा रहता है कि अमर फल खाने से अमर हो जाता है, पर यह तो बतलावों कि दुनिया में है क्या ऐसा कोई अमरफल है जिसके खाने से मनुष्य अमर हो जाय? असंभव बात है । न कोई अमरफल है और न अमरफल कोई खाया जाता । अरे वह अमरफल ही तौ पहले अमर हो जाये । जिसको खाया गया उसका ही जब चूरा हो गया तो फिर वह दूसरे को क्या अमर करेगा? जगत में कोई अमरफल नहीं है कि जिसके खाने से यह जीव अमर हो जाय । या अमृत हो कोई ऐसा कि जिसके पीने से मनुष्य अमर हो जाय । न कोई अमृत है न कोई अमरफल है, पर है कुछ बात उसमें रहस्य की । अगर अमृत पीले कोई तो नियम से वह अमर हो जायेगा, इस बात में कोई संदेह नहीं, मगर वह अमृत क्या है जिसके पीने से यह अमर हो जाता है । वह अमृत है जो न मरे ऐसे तत्त्व का प्रकाश । मेरा आत्मस्वरूप स्वयं सत् है, परिपूर्ण है । जौ सत् होता है उसका कभी विनाश हो नहीं सकता । मैं आत्मा चैतन्य सत् हूँ । मेरा कभी विनाश हो ही नहीं सकता । भले ही जैसे कोई पुरुष इस घर में रहा, दूसरे घर में गया, तीसरे घर में रहा, दसों घर बदले, मगर क्या वह मनुष्य वहीं नहीं है? ऐसे ही यह जीव अनेक शरीर बदलें, मनुष्य हुआ, देव हुआ, कुछ भी हुआ, कितने ही शरीर बदले और कभी शरीर से रहित हो जाय तो आत्मा तो वही है । शरीर के बदले जाने से आत्मा का नाश नहीं है, आत्मा का मरण नहीं है। केवल शरीर के विकारों को ही मरण कहा करते हैं, पर आत्मा का मरण नहीं है। ऐसा अमूर्त स्वभाव का, आत्मतत्त्व का ज्ञान जग जाय और उसी आत्मस्वरूप में ध्यान जम जाय और वह अपने को अविनाशी अनुभव करने लगेगा तो बतलावो इस अमृत तत्त्व के पान करने से यह अमर हो गया या नहीं? अमर तो यह था ही चाहे यह कितना ही घबड़ाये, पर यह जीव अमर है । परंतु इसे यदि अपने अमरपन का ख्याल नहीं है तो कहां अमर है? अपने उपयोग में जब इसको अपने अमरपन का ख्याल आ जायगा तो यह जीव अमर कहलायगा ।
अपने पर अपना उत्तरदायित्व जानकर आत्मकल्याण का प्रयास करने में ही विवेक―भैया, जरा अपने कल्याण की दृष्टि से सोचिये तो परिवार के लोग मेरे आत्मा को सुखी न कर सकेंगे । जगत की कोई भी घटना मेरे को सुखी शांत न कर देगी । जगत का एक अणु भी मेरा साथी नहीं है । एक भी कोई जीव मेरा साथी नहीं है । जैसे झंडा हवा के चलने से उलझता है, सुलझता है ऐसे ही यह जीव अपने ही भावों से उलझता और सुलझता है । हम अपने ही भावों के द्वारा अपना उद्धार कर सकते हैं । दूसरा कोई भी मेरा उद्धार करने में समर्थ नहीं है । अपनी जिम्मेदारी अपने में समझिये तो सही, व्यर्थ के विचार, अटपट विकार, अटपट विचार, इनसे लाभ क्या होगा? ऐसा ध्यान में रखकर कुछ आत्मकल्याण की अभिलाषा बढ़ाइये और आत्मकल्याण की अभिलाषा जिसके होगी उसको अन्य सब बातें बेकार लगेंगी । यह है सम्यग्दर्शन की महिमा । इसके प्रताप से जीवन शांत रहता है । जिन जीवों के सम्यग्दर्शन है उनके सम्मुख अल्प भी हो उनका ज्ञान, थोड़ा भी हो उनका चारित्र और तप थोड़ा भी हो तो भी वह महत्वशाली है, और उसके प्रताप से जितने भव शेष हैं संसार में वे भव उत्तम मिलेंगे और अंत में कर्मों से, शरीर से, रहित होकर यह सिद्ध पद प्राप्त कर लेगा ।