समयसार - गाथा 410: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
णावि एस मोक्खमग्गो पाखंडीगिहमयाणि लिंगाणि।
दंसण णाणचरित्ताणि मोक्खमग्गं जिणा विंति।।410।।
द्रव्यलिंग के मोक्षमार्गत्व का निषेध ― पाखंडी लिड्ग और गृहस्थलिंग ये मोक्ष के मार्ग नहीं हैं। पाखंडी लिंग कहते हैं 28 मूल गुणों का धारण करना। पा मायने पाप, खंडी मायने नष्ट करने वाला अर्थात् जो पापों को नष्ट कर दे उसका नाम है पाखंडी। तो इन कर्मफल पापों का नष्ट करने वाला है साधु, इसलिए वास्तव में साधु का नाम पाखंडी है। और उस पाखंडी का जो चिन्ह है 28 मूल गुणों का पालन करना सो यह बाह्यरूप रहता है, इसलिए द्रव्यलिंगी साधु के जो देहाश्रित क्रिया में ममता रहती है। उसका अर्थ ही यह होता है कि उसका देह में ममत्व है । इसी प्रकार गृहस्थजनों के जो लिंग हैं, क्रियाकांड हैं उन क्रियाकांडों में ममता यदि रहे तो उसका भी अर्थ यही है कि उसे पर्याय में देह में ममत्व है।
परद्रव्यरूपता के कारण द्रव्यलिंग के मोक्षमार्गत्व का अभाव ― ये लिड्ग देह के आश्रित हैं, परद्रव्य रूप है। ये मोक्ष के मार्ग नहीं हो सकते। मोक्ष का मार्ग तो स्वद्रव्यरूप है, परद्रव्यरूप नहीं है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र ही मोक्ष का मार्ग है क्योंकि यह रत्नत्रय भाव आत्मा के आश्रित है, इस कारण स्वद्रव्यरूप है। आत्मा के मोक्ष का मार्ग स्वद्रव्यरूप हो सकता है परद्रव्यरूप नहीं हो सकता। परद्रव्य का बंधन, आश्रय, दृष्टि तो संसार को बढ़ाने वाली होती है। जहाँ निर्विकल्प समाधिभाव नहीं है अर्थात् भावलिंग नहीं है ऐसी स्थिति में चाहे साधुलिंग हो, चाहे गृहस्थलिंग हो अर्थात् चाहे नग्न अवस्था हो और चाहे लंगोटी चद्दर आदि की अवस्था हो, ये सब मोक्षमार्ग नहीं हो सकते हैं क्योंकि जिनेंद्रदेवने तो एक शुद्ध बुद्ध आत्मस्वभाव के आलंबन को ही मोक्ष्ा का मार्ग कहा है। वह है परमात्मतत्त्व के श्रद्धान् ज्ञान और अनुभवन रूप निज कारणसमयसार का आलंबन। वह किस रूप होता है? वह परमात्मतत्त्व के श्रद्धान ज्ञान और अनुभवनरूप होता है। इसी को कहते हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र।
मुक्तियत्न की जिज्ञासा ― जिनेंद्र देव ने सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता को मोक्ष का मार्ग कहा है। जब ऐसी बात है कि देहाश्रित लिड्ग मोक्ष का कारण नहीं है किंतु आत्माश्रित भाव ही मोक्ष का कारण है। तब मोक्ष की प्राप्ति के लिए भव्यपुरुषों को कौनसा यत्न करना चाहिए, ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्यदेव समाधान करते हैं।