वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 411
From जैनकोष
तम्हा दु हित्त लिंगे सागारणगार एहिं वा गहिदे।
दंसणणाणचरित्ते अप्पाणं जुंज मोक्खपहे।।411।।
स्वरूपदृष्टि में संकटमोचनता का स्वभाव ― जब की देहाश्रित लिड्ग मोक्ष का कारण नहीं है, द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नहीं है, इस कारण समस्त द्रव्य लिंगों का त्याग करना अर्थात् द्रव्यलिंग की ममता का त्याग करना चाहिये व दर्शन ज्ञानचारित्र में ही अपने आत्मा को लगाना चाहिए, क्योंकि छुटकारे का मार्ग यही है। अभी लौकिक बातों में भी देख लो यदि आप किसी प्रकार की चिंता में बैठे हों, धनहानि हो गयी हो या अन्य अनिष्ट आपत्ति आयी हो, चिंतातुर बैठे हों तो जिस काल इस देह के और देह के संबंध में हुए परद्रव्यों की बात भूलकर आत्मा के सहजस्वभाव को जब निरखने लगे तो उस काल में आप को कुछ संकटों से मोक्ष हो जाएगा। यह मोक्ष है सर्वथा संकटों से छूट पाना। और सम्यग्ज्ञान होने पर जब तक छद्मस्थ अवस्था है तब तक। जब जब यह ज्ञानस्वभाव का उपयोग करता है तब यह संकटों से छूट जाता है। फिर उपयोग बदल गया, बाह्य में लग गया तो फिर संकट आ गये, आयेंगे। संकटों से मुक्त होने का उपाय दर्शन ज्ञान चारित्र में अपने आप को लगाना है।
समीचीनता ― दर्शन क्या है? परद्रव्य से भिन्न, परभाव से भिन्न एक सहज ज्ञायकस्वभावरूप अपने आप ‘यही मैं हूँ’ ऐसी प्रतीति करना और इसकी ही रुचि करना यह है आत्मदर्शन। सम्यग्दर्शन वस्तुत: ज्ञान की स्वच्छता को कहते हैं। ज्ञान में मल पड़ा हुआ है तो वह है मोह का, मिथ्या भाव का। विपरीत आश्रय न रहे ऐसी स्थिति में जो स्वच्छता प्रकट होती है उसी का नाम सम्यक्त्व है अर्थात् परमार्थ का झक्काटा है। सम्यग्दर्शन ज्ञान की ऐसी स्वच्छ स्थिति का नाम है और सम्यग्ज्ञान ऐसे स्वच्छ वर्त रहे ज्ञानका, जानन का नाम है और सम्यक्चारित्र ऐसे स्वच्छ बर्त रहे ज्ञान की वर्तना का नाम है। हे आत्मन् ! धुनि बनावो अपने आत्मदर्शन, आत्मज्ञान और आत्मरमण की। इस धुनि के रहते हुए जो इतने ही उद्देश्य की पूर्ति के लिए कोशिशें होंगी उनमें यह सागार लिड्ग और अनागार लिंग ये अवश्य आयेंगे, पर उन लिंगों में ममता न करना।
पर्यायबुद्धि का अंधेरा ― भैया ! बड़ी कठोर साधना करने पर भी 11 अंग नौ पूर्व का पुष्कल परिपूर्ण पुष्ट ज्ञान होने पर भी अंतरंग में मिथ्या भाव रह सकता है, ऐसी पर्यायबुद्धि की सूक्ष्मता है कि उसको पकड़कर नहीं बताया जा सकता है और न उन ज्ञानी पुरुषों की ही पकड़ में आ पाता है। जो 11 अंग 9 पूर्व का विशद ज्ञान कर रहे हैं। अब कौनसा भाव रह गया है? यदि इसकी परख युक्ति से करनी है तो यह जान लो कि जो मोटा भाव अपनी समझ में मिथ्यात्वविषयक आ रहा है कि इसका नाम है मिथ्यात्व, तो उस ही जाति का संक्षिप्त कोई भाव रहता है, जिस का नाम है मिथ्यात्व। मिथ्यात्व की एक ही पद्धति है। फिर शाखाएँ अनेक फूट जाती हैं। मिथ्यात्व की पद्धति है अपनी पर्याय में ‘यह मैं हूँ’ऐसी प्रतीति करना। अब इस ही परिभाषा को आप सर्वत्र घटाते जायें।
पर्यायबुद्धि का सूक्ष्म भेष – जो व्यक्ति तीव्रमोही है उसमें भी यही परिभाषा घटेगी और 11 अंक 9 पूर्व के पाठी द्रव्यलिंग जो साधु है उनमें भी यही परिभाषा घटेगी―पर्याय में आत्मबुद्धि करना। यह व्यक्त मिथ्यादृष्टि देह में ममता करता है। धन वैभव को सकारते हैं, समेटते हैं, उसमें प्राणबुद्धि बनाया है और यह आगमपाठी, अपनी अंतर भावना के अनुसार सच्चाई के साथ साधुव्रत पालने वाला, 28 मूलगुणों में कोई दोष और अतिचार नहीं हो पाते, ऐसे बड़े विशुद्ध चारित्र से बाह्य चारित्र से अपना जो साधन बनाये हुए हैं ऐसे द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि में भी पर्याय में आपा मानने की बात बड़ी हुई है। यद्यपि वहाँ इतनी मोटी बात नहीं नजर आती कि देह को वह कहता हो कि यह मैं हूँ, बल्कि शत्रु के द्वारा कोल्हू में भी पेल दिया जाये तो उस समय भी वह साधु यह भाव नहीं लाता कि यह मेरा दुश्मन है, उस के प्रति वह अनिष्टपने का ख्याल नहीं करता है। इतना तक उस साधु पुरुष का विशुद्ध अभिप्राय रहता है। इतने पर भी कैसी पर्यायबुद्धि सूक्ष्मता से पड़ी हुई है कि उनके गुणस्थान मिथ्यात्व ही रहता है। कोल्हू में पिलता हुआ यदि यह प्रतीति रखे है कि मैं साधु हूँ, मुनि हूँ, मुनि को रागद्वेष न करना चाहिए। मुनि को तो मित्र और शत्रु सब एक समान हैं―ऐसा परिणाम, ऐसी प्रतीति अंतर में साधु की हुई है और चिदानंदस्वरूप निजतत्त्वों का भान भी नहीं है तो वही तो मिथ्यात्व है क्योंकि जो वर्तमान परिणमन है, साधु अवस्था है उस साधु पयार्य में आपापने की बुद्धि हो गई है कि मैं साधु हूँ।
द्रव्यलिंगी की पर्यायबुद्धता- जैसे कोई कहता है कि मैं गृहस्थ हूँ, अमुक मुन्ना का बाप हूँ, अमुक का रिश्तेदार हूँ, अमुक गांव का वासी हूँ, अमुक अधिकारी हूँ, ऐसे ही उस द्रव्यलिंगी साधु ने भी ऐसा समझा है अपने बारे में कि मैं साधु हूँ। उसे यह खबर नहीं है कि मैं साधु नहीं हूँ, मैं गृहस्थ भी नहीं हूँ, और तो बात जाने दो, मैं मनुष्य तक भी नहीं हूँ, तो साधु तो कहलायेगा कौन? मैं एक ज्ञायकस्वभावी चिदानंदस्वरूप आत्मतत्त्व हूँ। यह प्रतीति नहीं आ पाती और बाह्य व्रत तप आचरण की बड़ी संभाल भी की जाती है, पर द्रव्यलिंग में उसे ममता है, इस कारण उस के मोक्षमार्ग नहीं बन पाता। जब कि सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र ही मोक्ष का मार्ग है, ऐसा जिनेंद्रदेव निरूपण करते हैं।
आत्महितार्थी का कर्तव्य – भैया ! तब क्या करना? हे भव्य पुरुषों ! निर्विकार स्वसम्वेदनरूप भावलिंग से रहित जो ये बहिरंग द्रव्यलिंग है, गृहस्थों के द्वारा धारण किए गए अथवा साधुवों के द्वारा धारण किए गए इन लिंंगों को छोड़कर याने इन पर्यायों में ममता को न करके अपने आत्मा को मोक्ष के मार्ग में लगावो। वह मोक्ष मार्ग क्या है? असीम ज्ञान, दर्शन, आनंद, शक्तिस्वरूप शुद्ध आत्मतत्त्व के यथार्थ श्रद्धान ज्ञान और आचरण रूप अभेद रत्नत्रय में, मोक्ष के मार्ग में इस अपने आत्मा को युक्त करना। देखो जिस संग में हो जिस समागम में हो, वे परिकर आप को हितरूप नहीं हैं, आप को शरण भूत नहीं हैं। आप स्वयं एक सत् हैं, कुछ समय से इस पर्याय में रह रहे हैं। कुछ ही समय बाद इस पर्याय को त्याग देंगे, आगे की यात्रा में बढ़ जायेंगे। फिर यहाँ क्या रहा? यहाँ का यह सब कुछ यहाँ भी कुछ नहीं है, पहिले तो क्या था और आगे क्या होगा? इस इंद्रजाल से ममता को हटा लेने में ही कुशलता है। इस आत्मा की कुशलता निर्मोह होने में है। मोह करके, राग करके कुछ यहाँ के परिग्रहों में कुछ व्यवस्था या वृद्धि करके अपने को चतुर मानना, यह एक बड़ा धोखा है, अकुशलता की बात है। गृहस्थ को यह भी करना पड़ता है, पर उसका परमार्थ कर्तव्य तो रत्नत्रय की उपासना ही है।
साधु का आंतरिक जागरण ― भैया ! आगम में बताया गया है कि साधुवों को नींद अंतर्मुहूर्त तक आती है क्योंकि निद्रा एक प्रमाद है और प्रमत्त अवस्था साधु के अंतर्मुहूर्त से ज्यादा नहीं चलती। अंतर अंतर्मुहूर्त में प्रमत्त अवस्था और अप्रमत्त अवस्था बदलती रहती है, यदि अंतर्मुहूर्त से अधिक निद्रा में मग्न हो गया तो उस साधु के गुणस्थान भंग हो जाते हैं। उस के बाद या तो उसे अप्रमत्त गुणस्थान में पहुंचना चाहिए या फिर नीचे के गुणस्थान में गिरना चाहिए। प्रमत्त गुणस्थान में अंतर्मुहूर्त से अधिक नहीं रहता। तो जहाँ इस साधु का इतनी सावधानी का परिणाम है, अंतर्मुहूर्त बाद फिर अप्रमत्त अवस्था में पहुंचता है। शुद्धोपयोग का प्रेक्टिकल रूप से पदवी के अनुसार अंतर्मुहूर्त में स्पर्श किया करता है। उस साधु की महिमा को कौन कह सकता है? वह ही तो परमेष्ठी में शुमार किया गया है। अपने आत्मतत्त्व का श्रद्धान् ज्ञान, आचरणरूप अभेदरत्नत्रय में पहुंचने की स्थिति साधु के क्षण क्षण में हुआ करती है।
साधु के दीर्घनिद्रा न आने का कारण ― साधु महाराज को लंबी नींद क्यों नहीं आती? वैसे तो प्रमत्त गुणस्थान का जो काल अंतर्मुहूर्त है वह तो सैकंडों का ही है। मान लो लौकिक व्यवहार की दृष्टि से बहुत अधिक सोते भी तो लोकव्यवहार का अंतर्मुहूर्त मान लो। पौन घंटे तक सो लिया, इसके बाद तो नींद रह नहीं सकती। तो कम क्यों सोते हैं, इसका कारण है कि उन को एक तो भय लगा है और एक आनंद मिला है। इन दो कारणों से ज्ञानी संतों को, साधुजनों को निद्रा अधिक देर तक नहीं आती।
साधु के दीर्घनिद्रा न आने का प्रथम कारण ― जैसे यहाँ पर किसी गृहस्थ को भय लग जाय डाकु का या किसी पशु का तो उसे नींद नहीं आती। तो साधु को एक महान् भय लगा है कि विषयकषाय ना आ जायें, कर्मबंध न हो, जन्म मरण का दुःख लगा है उसका उसे ख्याल है, उसे वह आपत्ति मानता है, तो संसार में रूलने का उसे भय लगा है। अपने स्वरूप से चिगकर बाह्य पदार्थों में जहाँ ही इसने रागद्वेष किया वहाँ महान् संकट हो जाते हैं ऐसा उसे पूरा ध्यान है। परमार्थ संकट से उसे भय लगा है। निर्भय तो यह मोही बने हुए हैं जिन्हें रंच भय नहीं है और कोई कोई कह भी देता है कि कल नरक जाना है सो आज चले जायें, क्या परवाह है? अरे जो निर्भय है वह ही तो पैर पसारकर अच्छी तरह सोवेगा। साधु जनों को तो बड़ा भय है संसार के विषयकषायों का, कर्मबंधों का। इस कारण से साधु को लंबी नींद नहीं आती है।
साधु को दीर्घनिद्रा न आने का द्वितीय कारण - साधु को दीर्घनिद्रा न आने का दूसरा कारण है आनंद का। उन को स्वाधीन आत्मानुभव का ऐसा अनुपम आनंद मिला है कि उस आनंद की धुनि में वे जल्दी जल्दी जागते रहते हैं। जैसे बड़ी तेज खुशी हो तो आप को नींद नहीं आती है, शरीर थक जाता है, बहुत समय हो जाता है, पलक झपकती है, फिर जल्दी नींद खुल जाती है क्योंकि किसी बात की बड़ी तेज खुशी है। तो साधुजनों के आत्मीय आनंद की प्राप्ति की इतनी बड़ी प्रसन्नता है कि उस प्रसन्नता से वह क्षण भर भी ओझल नहीं हो सकता। ऐसे बड़े सावधान साधुसंत निर्विकल्प समाधि के रुचिया भावलिंग में प्रवृत्त होते हैं।
परभाव का परिहार और स्वभाव का आश्रय ―आचार्यदेव यहाँ उपदेश कर रहे हैं कि तू देह में, देह के आश्रित लिंग में, देह के क्रियाकांडों में ममता मत करो। आखिर वही करना पड़ेगा। यद्यपि साधु भोजन को जायेगा, चलना पड़ेगा, फिर भी इतनी ज्ञानसाधना तो होती ही है कि प्रवृत्ति तो उसकी भी कदाचित् वही होगी किंतु प्रवृत्ति करते हुए भी उसमें ममता न करेगा। तो द्रव्यलिंग ही मोक्षमार्ग है, ऐसी दृष्टि मत दो। जैसे गृहस्थों को उपदेश है कि घर का काम करते हुए भी उस काम में ममता न करो, इसी तरह साधुवों को उपदेश है कि तुम व्रत, तप, समिति का पालन करके भी व्रत, तप समिति के आचरण में ममता न करो और अपने सहज शुद्ध ज्ञायकस्वरूप की प्रतीति और उसकी ही ज्ञप्ति और उसकी ही अनुभूति में रहो। इस प्रकार इस प्रसंग में आत्मा का दर्शन ज्ञान चारित्रादिक आत्मा को ही कहा गया है और वही मोक्षमार्ग है।
परद्रव्यरूपता के मोक्षमार्गत्व का निषेध ―हे मुमुक्ष जीवो ! मोक्षमार्ग तुम्हारा यह स्वयं आत्मा ही है। तुम इस मोक्षमार्ग की सेवा करो। इसको छोड़कर अन्य भाव, अन्य द्रव्य, अन्य प्रसंग ये मोक्ष के मार्ग नहीं हैं। इन की उपासना में मत रहो। ऐसा यहाँ आचार्यदेव आत्मा में ही आत्मस्वरूप से परिणमने वाले आत्मा के एकत्व की अनुभूति में पहुंचाने के लिये कितना निर्भय होकर स्पष्ट बात कह रहे हैं। उस ही लिंग के संबंध में कितना निर्भय होकर बोलते हैं कि यह चिन्ह क्रियाकांड ये सब आचरण ये मोक्षमार्ग नहीं है। इनसे ममत्व हटाकर अंतर में अपने उपयोग को ले जाकर शुद्ध ज्ञायक स्वरूप का अनुभव करो। इस आत्मा के स्वभाव के एकत्व में परिणम जाना यह ही वस्तुत: मोक्ष का मार्ग है। संकटों से छूटने का उपाय परद्रव्यरूप न होगा किंतु वह स्वद्रव्यरूप ही होगा, पर की संभाल करके झगड़ा न मिटेगा, खुद की संभाल में ही झगड़ा मिटेगा। अब इस ही उपदेश को और विशेष रूप से कहा जायेगा।