समयसार - गाथा 357: Difference between revisions
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<div class="PravachanText">जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडियाय सा | <div class="PravachanText"><p><strong>जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडियाय सा होइ।तह पासगो दु ण परस्स पासगो पासगो सो दु।।357।।</strong> </p> | ||
<p><strong>दर्शक व दृश्य परद्रव्य की भिन्नता में एक दृष्टांत</strong>―जैसे भींतादिक परद्रव्य जो श्वेत करने योग्य हो रहे हैं व्यवहार दृष्टि में उस भींतादिक परद्रव्यों को सफेद करने वाली यह कलई क्या उसकी कुछ लगती है ? इन दोनों के संबंध पर जरा विचार करो। यदि यह सफेदी भींतादिक परद्रव्य की होती है तो जो जिसका होता है वह वह ही होता है। जिसे आत्मा का ज्ञान है तो ज्ञान आत्मा ही है। आत्मा से भिन्न ज्ञान और कुछ नहीं है। ऐसा तात्विक संबंध है। जब सेटिका भींत हो गयी तो भींत में रह गयी, सेटिका खत्म हो गयी। जैसे व्यवहार में कहते हैं ना कि यह आदमी हमारा है, तो इसमें ही सोच लो कि आदमी गौण हो जाता है और स्वामी मुख्य हो जाता है। प्रधानता स्वामी की होती है। तो वह सेटिका यदि भींत की हो गयी तो भींत मुख्य हो गयी और सेटिका का उच्छेद हो गया, परंतु किसी भी द्रव्य का किसी अन्य में संक्रमण नहीं होता है। इस कारण न तो सेटिका का उच्छेद होता है और न सेटिका भींतादिक परद्रव्यों की है।</p> | |||
<p> <strong>सेटिका का स्वामित्व</strong>―यदि भींत की यह सफेदी नहीं है तो फिर यह किसकी है सफेदी ? तो उत्तर मिलता है कि सफेदी की ही सफेदी है। वह सफेदी अलग क्या चीज है जिसकी सफेदी बन जाय ? तो कहते हैं कि अलग कुछ नहीं है। सफेदी सफेदी है। तो फिर स्वस्वामी संबंध बनाने का क्या मतलब है ? कहते हैं कि कुछ भी मतलब नहीं है, किंतु भींत-भींत ही है, सफेदी सफेदी ही है। एक द्रव्य का दूसरा द्रव्य कुछ नहीं लगता है। जैसे आपने कोई कमीज पहिन ली तो क्या वह आपकी कमीज हो गयी ? कमीज का अर्थ जानते हो ? क मायने शरीर और मीज मायने अच्छी तरह से मीच दे। अभी शरीर में कोई कमीज पहिन लो तो हाथ हिलाने पसारने आदि में कुछ न कुछ दिक्कत पड़ेगी और यदि कमीज नहीं पहिने हैं तो शरीर को जैसा चाहे हिलावो, हाथ जैसे चाहे फटकारो, हिला दो कुछ भी दिक्कत नहीं पड़ती है। तो क्या वह कमीज आपकी है ? आपकी नहीं है। वह तो आप से बाहर पड़ी हुई लोट रही है। वह तो कमीज की कमीज है। आपका यहां कुछ नहीं है।</p> | |||
दर्शक व दृश्य परद्रव्य की भिन्नता में एक | <p><strong>व्यामुग्ध बुद्धि</strong>―किंतु, भैया अज्ञानी के ऐसा मोह पड़ा हुआ है कि जैसे किसी बाबू साहब ने यदि दर्ज़ी से कोट बनवाया और देखा कि गले की जगह पर जरा सी सिकुड़न पड़ गयी है तो बाबू जी कहते हैं दर्ज़ी से कि तुमने तो हमारा नाश कर दिया। अरे बाबूजी नाश कहां कर दिया ? कोट में जरा सी सिकुड़न पड़ गयी है, पर कोट में ऐसी आत्म बुद्धि रखी है कि कोट बिगड़ा तो अपन ही खत्म हो गए। कोई गुजर जाय तो हाय हम बरबाद हो गये। अरे कहां बरबाद हो गए, तुम तो पूरे के पूरे हो। रही पालन पोषण की बात। तुम्हारा उदय है सो उदय ही पालन पोषण करेगा। उदय से ही पालन पोषण होता था। तुम्हारी तो रंच बरबादी नहीं हुई। मगर मोह बुद्धि है तो मानते हैं कि हाय मैं ही बरबाद हो गया।</p> | ||
<p><strong>अपनी संभाल</strong>―देखो भैया ! जिसको जो मिला है इस सबका विछोह होगा, न घर सदा चिपका रहेगा, न आप रहेंगे, न आपको जो परिजन मिले है ये सदा रहेंगे। वियोग तो होगा ही, पर जितने काल जीवित हैं उतने काल तो ज्ञान बनाए रहो, मोह न करो, ममता न करो। यदि ऐसा कर सके तो विछोह के समय में पागल न बनना पड़ेगा और समागम के समय, मोह ममत्व रखा तो इनके विछोह के समय में पागलपन आ जायेगा। इसलिए ज्ञानी पुरूष का कर्तव्य है कि पुण्यपाप के फल में हर्ष विषाद न करें, किंतु उसके मात्र ज्ञाता दृष्टा बनें। होता है ऐसा आत्मबल कि कितने भी कुछ संकट आएँ तिस पर भी यह जीव ज्ञात दृष्टा रह सकता है। </p> | |||
<p><strong>खुद का खुद में विस्तार</strong>―जैसे यह रंग चौकी का नहीं है, चौखट का नहीं है, चौखट चौखट ही है और रंग रंग ही है। इसी प्रकार यह दर्शक दृश्य परपदार्थ का नहीं है। दर्शक दर्शक ही है और दृश्य-दृश्य ही है। एक फैलने की पद्धति का अंतर भर है किंतु परपदार्थ का बन कुछ नहीं गया। एक चूना का ढेलो जो ढेला के रूप में रखा हुआ था उस ढेले को पानी में डाल दिया सो वह ढेला जो एक पिंड के रूप में था सो कण-कण फैल फैलकर इतना विस्तृत हो गया, अब एक भींत के आधार में उसे फैला दें तो वही एक ढेला जो हाथ में लिया जा सकता था वही ढेला भींत पर इस तरह फैल गया तो वह सफेदी कहीं भींत की नहीं बन गयी। सफेदी अपने में ही सफेदी है और सफेदी अपने को ही सफेद कर रही है, भींत को सफेद नहीं कर रही है।</p> | |||
व्यामुग्ध | <p> <strong>रंग की रंग को ही रंगने में शक्यता</strong>―एक यह रंग काठ में लगा है तो क्या इस रंग ने काठ को नीला कर दिया ? नहीं। नीले रंगने अपने को नीला बनाया। पहिले डिब्बे में पिंडरूप में रखा था अब वह इस रूप में फैल गया तो इतने विस्तार में यह नीला हो गया, पर काठ तो ज्यों का त्यों है। नीला रंग नीले रंग का है, काठ का नहीं है।</p> | ||
अपनी | <p><strong>आत्मा के पर का अदर्शकत्व</strong>―इसी प्रकार यह दर्शक आत्मा इस दृश्य पदार्थ का क्या कुछ लगता है ? क्या यह दृश्य का देखने वाला यह कुछ है ? नहीं है। यदि यह दर्शक दृश्य का कुछ बन जाय तो दृश्य ही रहेगा, दर्शक का उच्छेद हो जायगा, परवस्तु का उच्छेद नहीं हुआ करता। क्योंकि कोई वस्तु किसी वस्तुरूप नहीं बनती है। तब यही सिद्ध हुआ कि यह दर्शक दृश्य का कुछ नहीं है। </p> | ||
<p><strong>दर्शक की स्वतंत्रता</strong>―फिर किसका है यह दर्शक ? दर्शक का ही दर्शक है। कहते हैं कि दूसरा दर्शक कौन जिसका कि यह दर्शक बन जाय ? कहते हैं कि कोई दूसरा दर्शक नहीं। तो फिर स्वस्वामी संबंध क्यों बना रहे जबरदस्ती, इससे कुछ प्रयोजन निकलता है क्या ? प्रयोजन कुछ नहीं निकलता है। तो फिर यह सिद्ध हुआ कि दर्शक दर्शक ही है। यह दूसरे का दर्शक नहीं है। फिर इतनी लंबी चौड़ी बातें बतायीं किस लिए ? जो पुरूष एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ का स्वामी मानता था उसको समझाने के लिए यह अभिन्न स्वस्वामी संबंध बताया गया है। अभिन्न स्वस्वामी संबंध बताकर उसे समझाया गया है कि किसी पदार्थ का कोई पदार्थ कुछ नहीं लगता है। यह अपनी बात चल रही है, अपनी बात सुनने में कठिन लगे और दाल रोटी की बात कहने सुनने में सरल लगे यही तो व्यामोह है। </p> | |||
<p><strong>आत्मलब्धि का यत्न</strong>―भैया ! खुद की बात क्यों कठिन लग रही है और पर की बात जिसको यहां मना किया जा रहा है कि हम रागी द्वेषी भी न हों, पर के देखने वाले भी न हों, जिससे कुछ संबंध नहीं उसकी बात सुगम लग रही है, तथा जो स्वयं है खुद है उसकी समझ कठिन लग रही है। इसका कारण यह है कि ज्ञान पुरूषार्थ नहीं किया जाता है। देखो बड़ी बात में तपस्या करना पड़ता है और कष्ट झेलना पड़ता है, मन लगाना पड़ता है और आदर रखना होता है, तब जाकर वह चीज प्राप्त होती है। कहीं यों ही आलस्य में और खेलकूद में पुण्य के ठाट बाट में मस्त होकर चाहें कि यह चीज मिल जाय तो मिलना कठिन है। सो कुछ भी जगत में मिले उसके मिलने से आत्मा का पूरा नहीं पड़ेगा। आत्मा का पूरा पड़ेगा तो एक आत्मज्ञान से पड़ेगा। तो प्रत्येक प्रयत्न करके एक इस आत्मा की ओर कुछ दृष्टिपात करें और कुछ लगें, इसके लिए चाहे सर्वस्व समर्पण करना पड़े तो सबको त्याग करके उपेक्षा करके भी यदि यह एक ज्ञानदृष्टि की बात प्राप्त होती है तो समझ लो कि सस्ते में ही निपट गए। कुछ हमारा खोया नहीं।</p> | |||
<p><strong>पृथक् वस्तु के भिन्न समझने में संकोच क्या</strong>–भैया ! जो हमारी चीज नहीं है उसको त्यागने में कठिनता तो न मालूम करें। जैसे दूसरे का धन आपके पास है और यों ही देने को पड़ा है तो दूसरे को देने में आप हिचकिचाते नहीं। तो जो मेरी चीज नहीं है, तन, मन, धन, वचन ये चारों मेरे नहीं है, सो इनको किसी भी प्रकार उदारता से उपयोग करने में ज्ञानी होकर जानो कि मैंने खोया कुछ नहीं है। जो मेरा गुण है, स्वभाव है, उसकी दृष्टि चूक जाय तो मैंने सब खोया। जो मेरा है वही खोया तो उसको ही तो खोया कहेंगे। जो मेरा नहीं है उसके खो जाने पर यह खोया हुआ नहीं कहा जायेगा। जो अपना है वही खो जाय तो उसे ही खोया हुआ कहना चाहिए। </p> | |||
<p><strong>दर्शक का परदृश्य से असंबंध</strong>―यहां यह बताया कि आत्मा पर का दर्शक भी नहीं है, ज्ञायक भी नहीं है। इस रहस्य को द्रव्य-द्रव्य के रूप में बताया गया है। दर्शक से देखने वाला इतना अभी अर्थ नहीं करना, दृष्टा किंतु दिखने वाला यह द्रव्य इस द्रव्य का कुछ नहीं लगता। अब इससे भी आगे बढ़कर यह सोचो कि क्या यह आत्मा किसी पर को देखता भी है ? दर्शन एक आत्मा का गुण है और वे गुण आत्मप्रदेश में ही रहते हैं। किसी भी द्रव्य का गुण उसके प्रदेश से बाहर त्रिकाल होता ही नहीं है। तब दर्शन गुण जो कुछ भी परिणमेगा वह आत्मप्रदेश में ही तो परिणमेगा कि पर में परिणमेगा और जहां परिणमता है वही उसका कर्म है, वही उसका प्रयोग है। तब दर्शन ने अपने ही आत्मा में अपने ही आत्मा को देखा, किसी परवस्तु को नहीं देखा। किंतु आत्मा में ऐसी स्वच्छता का स्वभाव है कि वह देखना ही इसी भांति कहलाता है कि जो कुछ आत्मा जाने उस जानते हुए आत्मा को सामान्य रूप से भांप लें। प्रतिभास लें, इसी का नाम दर्शन है। </p> | |||
आत्मा के पर का | <p><strong>दर्शक का परदृश्य से विषयभाव के रूप में भी असंबंध</strong>―भैया ! ज्ञान का तो विषय की अपेक्षा से परपदार्थ का संबंध है पर दर्शन का तो विषय के रूप से भी परपदार्थ के साथ संबंध नहीं है। ज्ञान का विषय परपदार्थ है, और दर्शन का विषय आत्मपदार्थ है फिर यह बात कैसे सिद्ध होगी कि यह आत्मा पर को देखने वाला है। यह बात यों सिद्ध होती है कि इस आत्मा ने पर को जाना और पर को जानने वाले इस आत्मा को दर्शन को देख लिया, इसी का अर्थ है कि हमने वह सब देख लिया जो-जो कुछ आत्मा ने जाना। और यों यह दर्शन पर का दर्शक बन जाता है। </p> | ||
<p><strong>दर्शक के सर्वदृष्टत्व के कारण पर एक दृष्टांत</strong>―जैसे पहलवानों की कुश्ती होती है ना तो जो पहलवान बहुत से पहलवानों को जीतकर दुनिया में अपना प्रथम नंबर रख रहा है तो दूसरा कोई पहलवान यदि उसे कुश्ती में जीत ले तो उसका नाम पड़ जायेगा विश्वविजयी पहलवान। उससे कोई कहे कि तूने तो एक को ही कुश्ती में जीता और विश्वविजयी कैसे कहलाया ? तो भाई जिसने सैकड़ों हज़ारों पहलवानों को कुश्ती में पछाड़ दिया तो वह सबका विजयी कहलाने लगा और उसको जिसने कुश्ती में पछाड़ दिया वह विश्वविजेयी कहलाने लगा। उसको जगह-जगह के अखाड़ों में जाकर लटोरों घसोरों से कुश्ती नहीं लड़ना है, जो आज विश्वविजयी घोषित है उसको पछाड़ दिया तो वह विश्वविजयी बन गया। </p> | |||
दर्शक की | <p><strong>दर्शक के विश्वदर्शकत्व का कारण</strong>―इस दर्शन का यह काम नहीं है कि एक-एक पदार्थ को ढूँढ़े उनको देखें, किंतु समस्त पदार्थ आत्मा ने जान लिए, अब ऐसे विश्वज्ञ आत्मा को जो अपनी झलक में ले ले तो वह दर्शन समस्त विश्व का दर्शक कहलाने लगा। यह दर्शक आत्मा दृश्य पदार्थों का कुछ नहीं है। यह बात चल रही है कर्ता कर्म और स्वस्वामी संबंध का भ्रम मिटाने के लिए। देखो प्रत्येक प्रसंग में ये बाह्य समस्त पदार्थ इस उपादान के बाहर ही बाहर लोट रहे हैं। </p> | ||
<p><strong>पर में पर के अप्रवेश का एक दृष्टांत</strong>―एक आग से तेज गर्म किए हुए गोले को पानी से भरी कुंडी में डाल दिया जाय तो देखने में ऐसा लगता है कि इस गोले में पानी समा गया, लेकिन फिर भी वह समस्त पानी गोले के बाहर ही बाहर लोट रहा है। इस स्वभावदृष्टि को परखने वाला जानता है। गरम लोहे का निमित्त पाकर बहुत सा पानी सूख भी गया, पर यह नहीं हो सकता कि लोहे में पानी प्रवेश कर जाय। वह बाहर ही बाहर लोटता रहता है, चाहे खत्म भी हो जाय, एक दृष्टांत की बात है।</p> | |||
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आत्मलब्धि का | <p><strong>आत्मा में पर के अप्रवेश को ज्ञान की विशुद्धता</strong>―इसी तरह समग्र वस्तुवें हम आपसे बाहर पड़ी हुई हैं, हममें कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, दूसरे में हम नहीं हैं लेकिन मोह की यह एक विचित्र करामात है कि यह अपने साफ सुगम स्वतंत्र चितचमत्कार मात्र आत्मस्वरूप को भूल गया है और परदृष्टि इसने बना डाली है, पर की ओर यह आकर्षण किए हुए है। यह आत्मा न पर का ज्ञायक है और न पर का दर्शक है। यह तो यह ही है, जैसा है तैसा ही है। इसको किसी अन्य पदार्थ का रंच भी संबंध नहीं है। इस कथन के सुनने से अपने आपमें यह प्रभाव होना चाहिए कि हम भी यह बुद्धि बनाएं, यथार्थ बात मानें कि मेरा मैं ही हूँ। मेरा मुझसे बाहर कोई कुछ शरण नहीं है। कोई करने वाला भोगने वाला नहीं है। यह ज्ञानामृत पिये रहेंगे तो ममत्व ही क्या होगा ? और इस ज्ञानामृत को न अंगीकार करेंगे तो व्याकुल होकर, दु:खी होकर संसार में रुलना ही पड़ेगा। जैसे कि अब तक रुलते चले आए हैं। <strong>पर के अकर्तृत्व, अभोक्तृत्व व अस्वामित्व आदि का समर्थन</strong>―इस प्रकार यहां तक ज्ञान और दर्शन गुण की वृत्ति की दृष्टि से भी इस आत्मा का पर के साथ संबंध नहीं है, इस बात का वर्णन किया गया है। और इस वर्णन में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि द्रव्य द्रव्य का तो कुछ है नहीं, केवल जानन और देखन का व्यवहार से संबंध है और कोई संबंध आत्मा और पर के साथ नहीं है। यह अपने को ही जानता और अपने को ही देखता है। जब दूसरे को जानता देखता तक नहीं है तो अमुक अमुक से राग करता है, अमुक-अमुक से बड़ा प्रेम करता है, बड़ा मोह है, इसका मेरा बड़ा बैर है, इन बातों की तो चर्चा ही क्या है ? सब अपने आप में अपने कषाय और ज्ञान के अनुसार अपना परिणमन बनाए हुए हैं। कोई किसी का न कर्ता है, न हर्ता है, न देने वाला है, न लेने वाला है, न अधिकारी है, न स्वामी है―ऐसा जानकर अपने ज्ञानस्वरूप का अनुभव करके मुक्ति का मार्ग प्राप्त करना यही एक अपना काम है। </p> | ||
<p>जैसे यह ज्ञायक ज्ञेय का कुछ नहीं है और यह दर्शक दृश्य का कुछ नहीं है इसी प्रकार यह संयत परद्रव्य का संयत नहीं है अर्थात् यह त्यागी पर का त्यागी नहीं है इस संबंध में कुंदकुंदाचार्यदेव वर्णन करते हैं।</p> | |||
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Latest revision as of 12:32, 20 September 2021
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडियाय सा होइ।तह पासगो दु ण परस्स पासगो पासगो सो दु।।357।।
दर्शक व दृश्य परद्रव्य की भिन्नता में एक दृष्टांत―जैसे भींतादिक परद्रव्य जो श्वेत करने योग्य हो रहे हैं व्यवहार दृष्टि में उस भींतादिक परद्रव्यों को सफेद करने वाली यह कलई क्या उसकी कुछ लगती है ? इन दोनों के संबंध पर जरा विचार करो। यदि यह सफेदी भींतादिक परद्रव्य की होती है तो जो जिसका होता है वह वह ही होता है। जिसे आत्मा का ज्ञान है तो ज्ञान आत्मा ही है। आत्मा से भिन्न ज्ञान और कुछ नहीं है। ऐसा तात्विक संबंध है। जब सेटिका भींत हो गयी तो भींत में रह गयी, सेटिका खत्म हो गयी। जैसे व्यवहार में कहते हैं ना कि यह आदमी हमारा है, तो इसमें ही सोच लो कि आदमी गौण हो जाता है और स्वामी मुख्य हो जाता है। प्रधानता स्वामी की होती है। तो वह सेटिका यदि भींत की हो गयी तो भींत मुख्य हो गयी और सेटिका का उच्छेद हो गया, परंतु किसी भी द्रव्य का किसी अन्य में संक्रमण नहीं होता है। इस कारण न तो सेटिका का उच्छेद होता है और न सेटिका भींतादिक परद्रव्यों की है।
सेटिका का स्वामित्व―यदि भींत की यह सफेदी नहीं है तो फिर यह किसकी है सफेदी ? तो उत्तर मिलता है कि सफेदी की ही सफेदी है। वह सफेदी अलग क्या चीज है जिसकी सफेदी बन जाय ? तो कहते हैं कि अलग कुछ नहीं है। सफेदी सफेदी है। तो फिर स्वस्वामी संबंध बनाने का क्या मतलब है ? कहते हैं कि कुछ भी मतलब नहीं है, किंतु भींत-भींत ही है, सफेदी सफेदी ही है। एक द्रव्य का दूसरा द्रव्य कुछ नहीं लगता है। जैसे आपने कोई कमीज पहिन ली तो क्या वह आपकी कमीज हो गयी ? कमीज का अर्थ जानते हो ? क मायने शरीर और मीज मायने अच्छी तरह से मीच दे। अभी शरीर में कोई कमीज पहिन लो तो हाथ हिलाने पसारने आदि में कुछ न कुछ दिक्कत पड़ेगी और यदि कमीज नहीं पहिने हैं तो शरीर को जैसा चाहे हिलावो, हाथ जैसे चाहे फटकारो, हिला दो कुछ भी दिक्कत नहीं पड़ती है। तो क्या वह कमीज आपकी है ? आपकी नहीं है। वह तो आप से बाहर पड़ी हुई लोट रही है। वह तो कमीज की कमीज है। आपका यहां कुछ नहीं है।
व्यामुग्ध बुद्धि―किंतु, भैया अज्ञानी के ऐसा मोह पड़ा हुआ है कि जैसे किसी बाबू साहब ने यदि दर्ज़ी से कोट बनवाया और देखा कि गले की जगह पर जरा सी सिकुड़न पड़ गयी है तो बाबू जी कहते हैं दर्ज़ी से कि तुमने तो हमारा नाश कर दिया। अरे बाबूजी नाश कहां कर दिया ? कोट में जरा सी सिकुड़न पड़ गयी है, पर कोट में ऐसी आत्म बुद्धि रखी है कि कोट बिगड़ा तो अपन ही खत्म हो गए। कोई गुजर जाय तो हाय हम बरबाद हो गये। अरे कहां बरबाद हो गए, तुम तो पूरे के पूरे हो। रही पालन पोषण की बात। तुम्हारा उदय है सो उदय ही पालन पोषण करेगा। उदय से ही पालन पोषण होता था। तुम्हारी तो रंच बरबादी नहीं हुई। मगर मोह बुद्धि है तो मानते हैं कि हाय मैं ही बरबाद हो गया।
अपनी संभाल―देखो भैया ! जिसको जो मिला है इस सबका विछोह होगा, न घर सदा चिपका रहेगा, न आप रहेंगे, न आपको जो परिजन मिले है ये सदा रहेंगे। वियोग तो होगा ही, पर जितने काल जीवित हैं उतने काल तो ज्ञान बनाए रहो, मोह न करो, ममता न करो। यदि ऐसा कर सके तो विछोह के समय में पागल न बनना पड़ेगा और समागम के समय, मोह ममत्व रखा तो इनके विछोह के समय में पागलपन आ जायेगा। इसलिए ज्ञानी पुरूष का कर्तव्य है कि पुण्यपाप के फल में हर्ष विषाद न करें, किंतु उसके मात्र ज्ञाता दृष्टा बनें। होता है ऐसा आत्मबल कि कितने भी कुछ संकट आएँ तिस पर भी यह जीव ज्ञात दृष्टा रह सकता है।
खुद का खुद में विस्तार―जैसे यह रंग चौकी का नहीं है, चौखट का नहीं है, चौखट चौखट ही है और रंग रंग ही है। इसी प्रकार यह दर्शक दृश्य परपदार्थ का नहीं है। दर्शक दर्शक ही है और दृश्य-दृश्य ही है। एक फैलने की पद्धति का अंतर भर है किंतु परपदार्थ का बन कुछ नहीं गया। एक चूना का ढेलो जो ढेला के रूप में रखा हुआ था उस ढेले को पानी में डाल दिया सो वह ढेला जो एक पिंड के रूप में था सो कण-कण फैल फैलकर इतना विस्तृत हो गया, अब एक भींत के आधार में उसे फैला दें तो वही एक ढेला जो हाथ में लिया जा सकता था वही ढेला भींत पर इस तरह फैल गया तो वह सफेदी कहीं भींत की नहीं बन गयी। सफेदी अपने में ही सफेदी है और सफेदी अपने को ही सफेद कर रही है, भींत को सफेद नहीं कर रही है।
रंग की रंग को ही रंगने में शक्यता―एक यह रंग काठ में लगा है तो क्या इस रंग ने काठ को नीला कर दिया ? नहीं। नीले रंगने अपने को नीला बनाया। पहिले डिब्बे में पिंडरूप में रखा था अब वह इस रूप में फैल गया तो इतने विस्तार में यह नीला हो गया, पर काठ तो ज्यों का त्यों है। नीला रंग नीले रंग का है, काठ का नहीं है।
आत्मा के पर का अदर्शकत्व―इसी प्रकार यह दर्शक आत्मा इस दृश्य पदार्थ का क्या कुछ लगता है ? क्या यह दृश्य का देखने वाला यह कुछ है ? नहीं है। यदि यह दर्शक दृश्य का कुछ बन जाय तो दृश्य ही रहेगा, दर्शक का उच्छेद हो जायगा, परवस्तु का उच्छेद नहीं हुआ करता। क्योंकि कोई वस्तु किसी वस्तुरूप नहीं बनती है। तब यही सिद्ध हुआ कि यह दर्शक दृश्य का कुछ नहीं है।
दर्शक की स्वतंत्रता―फिर किसका है यह दर्शक ? दर्शक का ही दर्शक है। कहते हैं कि दूसरा दर्शक कौन जिसका कि यह दर्शक बन जाय ? कहते हैं कि कोई दूसरा दर्शक नहीं। तो फिर स्वस्वामी संबंध क्यों बना रहे जबरदस्ती, इससे कुछ प्रयोजन निकलता है क्या ? प्रयोजन कुछ नहीं निकलता है। तो फिर यह सिद्ध हुआ कि दर्शक दर्शक ही है। यह दूसरे का दर्शक नहीं है। फिर इतनी लंबी चौड़ी बातें बतायीं किस लिए ? जो पुरूष एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ का स्वामी मानता था उसको समझाने के लिए यह अभिन्न स्वस्वामी संबंध बताया गया है। अभिन्न स्वस्वामी संबंध बताकर उसे समझाया गया है कि किसी पदार्थ का कोई पदार्थ कुछ नहीं लगता है। यह अपनी बात चल रही है, अपनी बात सुनने में कठिन लगे और दाल रोटी की बात कहने सुनने में सरल लगे यही तो व्यामोह है।
आत्मलब्धि का यत्न―भैया ! खुद की बात क्यों कठिन लग रही है और पर की बात जिसको यहां मना किया जा रहा है कि हम रागी द्वेषी भी न हों, पर के देखने वाले भी न हों, जिससे कुछ संबंध नहीं उसकी बात सुगम लग रही है, तथा जो स्वयं है खुद है उसकी समझ कठिन लग रही है। इसका कारण यह है कि ज्ञान पुरूषार्थ नहीं किया जाता है। देखो बड़ी बात में तपस्या करना पड़ता है और कष्ट झेलना पड़ता है, मन लगाना पड़ता है और आदर रखना होता है, तब जाकर वह चीज प्राप्त होती है। कहीं यों ही आलस्य में और खेलकूद में पुण्य के ठाट बाट में मस्त होकर चाहें कि यह चीज मिल जाय तो मिलना कठिन है। सो कुछ भी जगत में मिले उसके मिलने से आत्मा का पूरा नहीं पड़ेगा। आत्मा का पूरा पड़ेगा तो एक आत्मज्ञान से पड़ेगा। तो प्रत्येक प्रयत्न करके एक इस आत्मा की ओर कुछ दृष्टिपात करें और कुछ लगें, इसके लिए चाहे सर्वस्व समर्पण करना पड़े तो सबको त्याग करके उपेक्षा करके भी यदि यह एक ज्ञानदृष्टि की बात प्राप्त होती है तो समझ लो कि सस्ते में ही निपट गए। कुछ हमारा खोया नहीं।
पृथक् वस्तु के भिन्न समझने में संकोच क्या–भैया ! जो हमारी चीज नहीं है उसको त्यागने में कठिनता तो न मालूम करें। जैसे दूसरे का धन आपके पास है और यों ही देने को पड़ा है तो दूसरे को देने में आप हिचकिचाते नहीं। तो जो मेरी चीज नहीं है, तन, मन, धन, वचन ये चारों मेरे नहीं है, सो इनको किसी भी प्रकार उदारता से उपयोग करने में ज्ञानी होकर जानो कि मैंने खोया कुछ नहीं है। जो मेरा गुण है, स्वभाव है, उसकी दृष्टि चूक जाय तो मैंने सब खोया। जो मेरा है वही खोया तो उसको ही तो खोया कहेंगे। जो मेरा नहीं है उसके खो जाने पर यह खोया हुआ नहीं कहा जायेगा। जो अपना है वही खो जाय तो उसे ही खोया हुआ कहना चाहिए।
दर्शक का परदृश्य से असंबंध―यहां यह बताया कि आत्मा पर का दर्शक भी नहीं है, ज्ञायक भी नहीं है। इस रहस्य को द्रव्य-द्रव्य के रूप में बताया गया है। दर्शक से देखने वाला इतना अभी अर्थ नहीं करना, दृष्टा किंतु दिखने वाला यह द्रव्य इस द्रव्य का कुछ नहीं लगता। अब इससे भी आगे बढ़कर यह सोचो कि क्या यह आत्मा किसी पर को देखता भी है ? दर्शन एक आत्मा का गुण है और वे गुण आत्मप्रदेश में ही रहते हैं। किसी भी द्रव्य का गुण उसके प्रदेश से बाहर त्रिकाल होता ही नहीं है। तब दर्शन गुण जो कुछ भी परिणमेगा वह आत्मप्रदेश में ही तो परिणमेगा कि पर में परिणमेगा और जहां परिणमता है वही उसका कर्म है, वही उसका प्रयोग है। तब दर्शन ने अपने ही आत्मा में अपने ही आत्मा को देखा, किसी परवस्तु को नहीं देखा। किंतु आत्मा में ऐसी स्वच्छता का स्वभाव है कि वह देखना ही इसी भांति कहलाता है कि जो कुछ आत्मा जाने उस जानते हुए आत्मा को सामान्य रूप से भांप लें। प्रतिभास लें, इसी का नाम दर्शन है।
दर्शक का परदृश्य से विषयभाव के रूप में भी असंबंध―भैया ! ज्ञान का तो विषय की अपेक्षा से परपदार्थ का संबंध है पर दर्शन का तो विषय के रूप से भी परपदार्थ के साथ संबंध नहीं है। ज्ञान का विषय परपदार्थ है, और दर्शन का विषय आत्मपदार्थ है फिर यह बात कैसे सिद्ध होगी कि यह आत्मा पर को देखने वाला है। यह बात यों सिद्ध होती है कि इस आत्मा ने पर को जाना और पर को जानने वाले इस आत्मा को दर्शन को देख लिया, इसी का अर्थ है कि हमने वह सब देख लिया जो-जो कुछ आत्मा ने जाना। और यों यह दर्शन पर का दर्शक बन जाता है।
दर्शक के सर्वदृष्टत्व के कारण पर एक दृष्टांत―जैसे पहलवानों की कुश्ती होती है ना तो जो पहलवान बहुत से पहलवानों को जीतकर दुनिया में अपना प्रथम नंबर रख रहा है तो दूसरा कोई पहलवान यदि उसे कुश्ती में जीत ले तो उसका नाम पड़ जायेगा विश्वविजयी पहलवान। उससे कोई कहे कि तूने तो एक को ही कुश्ती में जीता और विश्वविजयी कैसे कहलाया ? तो भाई जिसने सैकड़ों हज़ारों पहलवानों को कुश्ती में पछाड़ दिया तो वह सबका विजयी कहलाने लगा और उसको जिसने कुश्ती में पछाड़ दिया वह विश्वविजेयी कहलाने लगा। उसको जगह-जगह के अखाड़ों में जाकर लटोरों घसोरों से कुश्ती नहीं लड़ना है, जो आज विश्वविजयी घोषित है उसको पछाड़ दिया तो वह विश्वविजयी बन गया।
दर्शक के विश्वदर्शकत्व का कारण―इस दर्शन का यह काम नहीं है कि एक-एक पदार्थ को ढूँढ़े उनको देखें, किंतु समस्त पदार्थ आत्मा ने जान लिए, अब ऐसे विश्वज्ञ आत्मा को जो अपनी झलक में ले ले तो वह दर्शन समस्त विश्व का दर्शक कहलाने लगा। यह दर्शक आत्मा दृश्य पदार्थों का कुछ नहीं है। यह बात चल रही है कर्ता कर्म और स्वस्वामी संबंध का भ्रम मिटाने के लिए। देखो प्रत्येक प्रसंग में ये बाह्य समस्त पदार्थ इस उपादान के बाहर ही बाहर लोट रहे हैं।
पर में पर के अप्रवेश का एक दृष्टांत―एक आग से तेज गर्म किए हुए गोले को पानी से भरी कुंडी में डाल दिया जाय तो देखने में ऐसा लगता है कि इस गोले में पानी समा गया, लेकिन फिर भी वह समस्त पानी गोले के बाहर ही बाहर लोट रहा है। इस स्वभावदृष्टि को परखने वाला जानता है। गरम लोहे का निमित्त पाकर बहुत सा पानी सूख भी गया, पर यह नहीं हो सकता कि लोहे में पानी प्रवेश कर जाय। वह बाहर ही बाहर लोटता रहता है, चाहे खत्म भी हो जाय, एक दृष्टांत की बात है।
आत्मा में पर के अप्रवेश को ज्ञान की विशुद्धता―इसी तरह समग्र वस्तुवें हम आपसे बाहर पड़ी हुई हैं, हममें कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, दूसरे में हम नहीं हैं लेकिन मोह की यह एक विचित्र करामात है कि यह अपने साफ सुगम स्वतंत्र चितचमत्कार मात्र आत्मस्वरूप को भूल गया है और परदृष्टि इसने बना डाली है, पर की ओर यह आकर्षण किए हुए है। यह आत्मा न पर का ज्ञायक है और न पर का दर्शक है। यह तो यह ही है, जैसा है तैसा ही है। इसको किसी अन्य पदार्थ का रंच भी संबंध नहीं है। इस कथन के सुनने से अपने आपमें यह प्रभाव होना चाहिए कि हम भी यह बुद्धि बनाएं, यथार्थ बात मानें कि मेरा मैं ही हूँ। मेरा मुझसे बाहर कोई कुछ शरण नहीं है। कोई करने वाला भोगने वाला नहीं है। यह ज्ञानामृत पिये रहेंगे तो ममत्व ही क्या होगा ? और इस ज्ञानामृत को न अंगीकार करेंगे तो व्याकुल होकर, दु:खी होकर संसार में रुलना ही पड़ेगा। जैसे कि अब तक रुलते चले आए हैं। पर के अकर्तृत्व, अभोक्तृत्व व अस्वामित्व आदि का समर्थन―इस प्रकार यहां तक ज्ञान और दर्शन गुण की वृत्ति की दृष्टि से भी इस आत्मा का पर के साथ संबंध नहीं है, इस बात का वर्णन किया गया है। और इस वर्णन में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि द्रव्य द्रव्य का तो कुछ है नहीं, केवल जानन और देखन का व्यवहार से संबंध है और कोई संबंध आत्मा और पर के साथ नहीं है। यह अपने को ही जानता और अपने को ही देखता है। जब दूसरे को जानता देखता तक नहीं है तो अमुक अमुक से राग करता है, अमुक-अमुक से बड़ा प्रेम करता है, बड़ा मोह है, इसका मेरा बड़ा बैर है, इन बातों की तो चर्चा ही क्या है ? सब अपने आप में अपने कषाय और ज्ञान के अनुसार अपना परिणमन बनाए हुए हैं। कोई किसी का न कर्ता है, न हर्ता है, न देने वाला है, न लेने वाला है, न अधिकारी है, न स्वामी है―ऐसा जानकर अपने ज्ञानस्वरूप का अनुभव करके मुक्ति का मार्ग प्राप्त करना यही एक अपना काम है।
जैसे यह ज्ञायक ज्ञेय का कुछ नहीं है और यह दर्शक दृश्य का कुछ नहीं है इसी प्रकार यह संयत परद्रव्य का संयत नहीं है अर्थात् यह त्यागी पर का त्यागी नहीं है इस संबंध में कुंदकुंदाचार्यदेव वर्णन करते हैं।